भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है तो इसका पूरा श्रेय कृषि वैज्ञानिकों और मेहनतकश किसानों को जाता है। पूरे विश्व में हरित क्रांति के जनक के रूप में भले ही प्रोफैसर नारमन बोटलॉग काे देखा जाता है लेकिन भारत में हरित क्रांति के जनक के रूप में एम.एस. स्वामीनाथन का नाम ही लिया जाता है। हरित क्रांति में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े कृषि वैज्ञानिकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
1947 में हमारी जमीन भी भूखी-प्यासी थी। उस समय खेती के लिए मुश्किल से दस फीसदी क्षेत्र में ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध थी। आज सरकारी गोदाम खाद्यान्न से भरे पड़े हैं। कोरोना काल में भी खाद्यान्न का कोई संकट नजर नहीं आया। इस बात की व्यवस्था की गई कि कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं सोये। इस बात का पूरा श्रेय देश के वैज्ञानिकों को ही जाता है। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं। यह बात एक बार फिर भारतीय मूल के अमेरिकी मृदा (मिट्टी) वैज्ञानिक डा. रतन लाल ने सिद्ध कर दी है। डा. रतन लाल को कृषि क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के बराबर माने जाने वाले प्रतिष्ठित विश्व खाद्य पुरस्कार से नवाजा गया है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने मिट्टी विज्ञान में उनके शोध की सराहना करते हुए कहा है कि वे दुनिया भर के लाखों छोटे किसानों की मदद कर रहे हैं। डा. रतन लाल ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी में मृदा विज्ञान के प्रोफैसर है और विश्वविद्यालय के कार्बन प्रबंधन और पृथक्करण केन्द्र के संस्थापक निदेशक हैं। जब देश आजाद हुआ तो उनका परिवार पश्चिमी पंजाब, जो अब पाकिस्तान में है, से आकर हरियाणा के राजोंद में शरणार्थी के रूप में रहा। रतनलाल ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना से पूरी की आैर एमएससी दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान से की।
विश्व खाद्य पुरस्कार की स्थापना 1986 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता नोर्मन बोरलॉग द्वारा की गई थी। यह फाउंडेशन अमेरिका के डेस मोइनेस, आपोवा में स्थित है। इस पुरस्कार के पहले विजेता भारतीय कृषि वैज्ञानिक डा. एम.एस. स्वामीनाथन हैं, जिन्हें 1987 में इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
अब डाक्टर रतन लाल को इस पुरस्कार से सम्मानित इसलिए किया गया कि उन्होंने चार महाद्वीपों में अपना योगदान किया है। उनकी तकनीकों से 50 करोड़ से भी अधिक किसानों को आजीविका में लाभ हुआ और दो अरब से अधिक लोगों के लिए आहार और पोषण की पक्की व्यवस्था करने के प्रयासों में सुधार आया है। इन तकनीकों से प्राकृतिक ऊष्णकटिबंधीय पारिस्थितकीय तंत्र से लाखों-करोड़ों हैक्टेयर भूमि को बचाया जा सका है। डा. रतन लाल को मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार कर छोटे किसानों की मदद का वैश्विक खाद्य आपूर्ति को बढ़ाने का श्रेय दिया गया है। आजकल कृषि क्षेत्र में तकनीकी अनुसंधान पूंजी एवं ऊर्जा आदि की भागीदारी बढ़ गई है। आज कृषि एक जटिल वैज्ञानिक प्रक्रिया का स्वरूप धारण कर चुकी है। यदि इनमें से किसी भी एक संसाधन की पर्याप्त उपलब्धता नहीं रही तो कृषि से अपेक्षित उत्पादन नहीं प्राप्त किया जा सकता। कृषि का सबसे आधारभूत संसाधन है मिट्टी। भारत में कृषि अनुसंधान परिषद ने मिट्टी को 8 वर्गों में विभाजित किया है। प्रत्येक प्रकार की मिट्टी में अलग-अलग गुण-दोष हैं। विभिन्न प्रकार की मिट्टी अलग-अलग तरह की फसलों के लिए उपयुक्त है। अतः देश के प्रत्येक जिले में मिट्टी परीक्षण केन्द्र बनाए गए हैं। किसान के सोयल हैल्थ कार्ड बनाए गए हैं। अब कीटनाशकों से मुक्त जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। कृषि में अनुसंधान सतत् चलने वाली प्रक्रिया है।
भारत के प्रतिष्ठित कृषि वैज्ञानिक के.के. सुब्रमणि ने कुछ वर्ष पहले पपीते की रेड लेडी इनार्फ प्रजाति के बीजों के विकल्प के तौर पर इस वैराइटी के ही एफ-वन हाईब्रिड बीज तैयार किए हैं। पहले पपीते के बीज विदेशों से आयात किए जाते थे अब बीज देश में ही उपलब्ध हैं।
यह विडम्बना ही रही कि भारतीय मूल के वैज्ञानिकों को सफलता और सम्मान विदेशों में रहकर ही मिला। हरित क्रांति के बाद भारत में कृषि अनुसंधान में कोई ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। भारत को अनुभवी कृषि वैज्ञानिकों से परामर्श कर भारतीय प्रतिभाओं को देश में रह कर ही कृषि अनुसंधान के लिए प्रेरित करना चाहिए। यह काम भारत कृषि अनुसंधान परिषद भी कर सकती है ताकि मिट्टी से सोना पैदा करने वाले डा. रतन लाल जैसे वैज्ञानिक भारत में ही पैदा कर सके। डा. रतन लाल की उपलब्धि ने उन्हें भारत के लिए आदर्श बना दिया है। हमें उन पर गर्व होना ही चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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