राम मन्दिर और आस्था ये तीनों अलग–अलग विषय हैं जिन्हें राजनीति ने इस तरह उलझा दिया है कि लोग मन्दिर से राम की पहचान करने लगे हैं और विश्वास में आस्था को देखने लगे हैं। इसका भेद महात्मा गांधी ने भारत के आजाद होते ही तब खोल दिया था जब कश्मीर पर पाकिस्तान ने आक्रमण किया था। अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता ने तब पाकिस्तान के हमले का मुकाबला करने के लिए पं. नेहरू द्वारा पूछे गए इस सवाल का कि बापू अब हमें क्या करना चाहिए? जवाब दिया था कि एक सैनिक का कर्त्तव्य सीमा पर जाकर राष्ट्र की सुरक्षा में लड़ना होता है अतः भारत की फौज को अपना काम करना चाहिए। महात्मा गांधी ने अपने पूरे जीवन में पहली बार तभी हिंसा की वकालत की थी हालांकि उनका पूरा विश्वास तब भी अहिंसा में ही था।
इसका अर्थ यही निकलता है कि विश्वास कभी भी अन्धा नहीं होता और वह आस्था की अनन्त तर्कहीनता के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करता। यह कोई दर्शनशास्त्र नहीं है जो साधारण व्यक्ति की समझ में ही न आ सके। भारत ऐसे लोगों का भी देश है जिनका ईश्वर में विश्वास ही नहीं है उन्हें अनीश्वरवादी अर्थात ‘एथीस्ट’ कहा जाता है परन्तु ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखने का तात्पर्य कभी भी साकार ब्रह्म की उपासना से नहीं होता। हिन्दू धर्म में निराकार ब्रह्म की उपासना करने वाले लोग भी ईश्वरवादी होते हैं इसका प्रमाण हमें ऐतिहासिक दस्तावेजों के रूप में कबीर के सन्त बनने की प्रक्रिया से मिलता है इसका वर्णन हमें गुरुग्रन्थ साहिब की वाणी में मिलता है-
हुए बिरखत बनारसि रैन्दा रामानन्द गुसाईं
अमृत वेले उठ के जान्दा गंगा न्हावन ताईं
अग्गे ते ही जाइके लम्बा पया कबीर कथाईं
पैरी टुंग उठा लेया बोलो राम सिख समझाई
जो लोहा पारस शोहे चन्दन वास निम्ब महकाई
राम –कबीरा एक है भाई , राम कबीरा भेद न भाई
कबीर को रामानंद के राम के गुरुमन्त्र ने राम की ही पदवी के बराबर लाकर खड़ा कर दिया जबकि कबीर ने साकार उपासना को स्वीकार नहीं किया और राम शब्द की मीमांसा में सभी हिन्दू-मुसलमानों को प्रेम से रहने का संदेश दिया और दोनों के ही अंधविश्वासों को खुली चुनौती भी दी। वहीं उनके समानान्तर दलित परिवार में पैदा हुए सन्त रविदास ने राम के मंदिरों में ही मूर्तवान होने की व्याख्या को यह कह कर चुनौती दी कि, ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ दरअसल यह धर्म में वैज्ञानिकता को प्रतिष्ठापित करते हुए मानवीयता को धर्म से जोड़ने की अगली आम जन की समझ में आने वाली कड़ी थी जिसका विरोध हर धर्म के पोंगापंथी लोगों ने किया था। कबीर ने तो यहां तक लिख दिया कि-
हिन्दू कहे मोहे राम पियारा , तुरक कहे रहिमानी
आपस में दुई लरि–लरि मुए कोऊ मरम न जानि
सन्त रविदास ने तो अपनी वाणी में लोक हितकारी राज्य की स्थापना के नियमों तक की भी विवेचना की जिनमें से बहुत से अंश गुरुग्रन्थ साहिब में समाहित हैं। इसका मतलब यही निकलता है कि सदियों पूर्व के समय में भी सामान्य व्यक्ति के विचारों को वैज्ञानिकता प्रदान करने का आन्दोलन रैदास व कबीर जैसे सन्तों ने पूरी ताकत से चलाया था परन्तु ये अनीश्वरवादी नहीं थे उनका पूरा विश्वास ईश्वर या राम अथवा अल्लाह की सत्ता में थी गुरु नानक देव जी ने तो इस वैज्ञानिकता को धर्म वैधानिकता इस प्रकार बख्शी कि समाज में आडम्बरहीनता को सम्मान मिला और मानवतावदी दृष्टि को धर्म में पूजनीयता मिली। उन्होंने पोंगापंथियों और आडम्बरों के खिलाफ क्रान्ति का बिगुल ही यह कह कर बजा डाला कि
अव्वल अल्लाह नूर उपाइया, कुदरत के सब बन्दे
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मन्दे
मगर हम आज की 21वीं सदी में इतिहास की कब्रों को उखाड़ कर राजनीति इस प्रकार करना चाहते हैं कि वर्तमान का समाज सदियों पीछे जाकर उन परिस्थितियों की कल्पना में मशगूल हो जाये जो इस देश की तत्कालीन राज्यव्यवस्था में सत्ता हथियाने के तरीकों पर टिकी हुई थी। इसे हम धर्म की लड़ाई के रूप में पेश करके अपने इतिहास के उस सच से पीछा छुड़ाना चाहते हैं जिसमें दो राजाओं की लड़ाइयां अपनी- अपनी धार्मिक पहचान के बूते पर लड़ी जाती थीं। बाबर के नाम पर अयोध्या में तामीर की गई जिस मस्जिद को 1992 में ढहाया गया था उसके पीछे राम मन्दिर निर्माण की मंशा होने का अमल 1949 में ही स्पष्ट हो गया था जब इस मस्जिद के निचले तह खाने में अचानक मूर्तियां मिलने की खबर फैलाई गई थी और इसके बाद यहां अदालत के आदेश पर ताला लगा दिया गया था।
जाहिर है इससे पहले यहां मूर्तियां नहीं थीं लेकिन इतिहास का सच यह भी है कि बाबर को सबसे पहले चित्तौड़ के राणा सांगा ने ही दिल्ली में राज कर रहे इब्राहिम लोदी से अपनी रक्षा करने के लिए निमन्त्रण दिया था। वह लोदी की फौजों को हरा कर वापस चला गया था मगर पुनः दिल्ली की लोदी सल्तनत के आपसी झगड़ों की वजह से वह अपनी पिछली जीत के गुमान में आया और पानीपत में युद्ध जीत कर दिल्ली की गद्दी पर बैठा। मगर बाबर को सबसे पहले बादशाह का खिताब गुरुनानक देव जी ने ही देकर ताईद की थी कि वह अमन–चैन कायम करके राज करे मगर बाबर के पोते अकबर ने एक हिन्दू राजपूत महिला जोधाबाई से विवाह करके पूरे हिन्दोस्तान की तासीर में खुद को आत्मसात कर लिया और उसके बेटे ‘जहांगीर का इंसाफ’ पूरे संसार में प्रसिद्ध हो गया।
हमारा इतिहास यह भी है जिसे हम धर्म की आड़ में छिपाना चाहते हैं। मगर अब दीगर सवाल यह है कि क्या हम राम मन्दिर को चुनावी मुद्दा बना कर इस देश का भविष्य तय कर सकते हैं? इस सवाल का जवाब देश की नई पीढ़ी दे रही है और वह पूछ रही है कि हे राम मुझे क्या चपरासी की नौकरी के लिए अपनी पीएचडी की डिग्री को दांव पर लगाना होगा और किसान पूछ रहे हैं कि उनके गन्ने का भुगतान क्या हर बरस ऐसे ही आगे ही बढ़ता रहेगा और उसका घर तंगी में ही सिसकता रहेगा। उसने तो बीस साल पहले ही राम मन्दिर बनाने के लिए चन्दा दे दिया था।