संसद का शीतकालीन सत्र जिस तरह ‘गरम’ हो कर ‘पानी-पानी’ हो रहा है वह भारत की संसदीय प्रणाली के लिए किसी भी तरह उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसके पीछे संसद के दोनों सदनों के अध्यक्षों या सभापतियों की भूमिका विवादास्पद बन रही है, इसमें भी खासतौर पर उच्च सदन राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ के किरदार को विपक्ष जिस तरह निशाने पर ले रहा है उससे उनकी न्यायप्रियता पर सवालिया निशान लग रहे हैं। सबसे पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि दोनों सदनों के अध्यक्षों के पास न्यायिक अधिकार भी होते हैं। इनकी भूमिका किसी न्यायाधीश के समान ही होती है जिससे सत्ता और विपक्ष के साथ पूरा न्याय न केवल हो बल्कि होता हुआ भी दिखे परन्तु राज्यसभा में विपक्ष श्री धनखड़ पर खुल्लमखुल्ला सत्ता पक्ष के हित में पक्षपात करने के आरोप लगा रहा है जो बहुत ही गंभीर विषय है। श्री धनखड़ संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति के सहायक हैं और संसदीय शिष्टाचार में उनका नाम राष्ट्रपति के बाद दूसरे नम्बर पर आता है अतः उनका कोई भी कृत्य संवैधानिक मर्यादाओं के भीतर ही मापा जायेगा। अफसोस इस बात का है कि विपक्ष उन पर सभी संसदीय मर्यादाओं व परंपराओं को ताक पर रखकर सदन चलाने के आरोप लगा रहा है।
यह स्थिति किसी भी सूरत में लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती क्योंकि दोनों ही सदनों में जनता द्वारा प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधि बैठते हैं जिनके अधिकार एक समान रूप से बराबर होते हैं। उनके इन अधिकारों की रक्षा करना दोनों सदनों के अध्यक्षों का ही काम होता है। चाहे राज्यसभा में सभापति का काम हो अथवा लोकसभा में अध्यक्ष का, दोनों की सत्ता स्वतन्त्र और सरकार से निरपेक्ष होती है। दोनों की सत्ता अपने-अपने सदनों में स्वतन्त्र होती है। हमारी संसदीय प्रणाली में संविधान निर्माता एेसी व्यवस्था करके गये हैं कि सदनों के भीतर सरकार की सत्ता नहीं बल्कि इनके अध्यक्षों की सत्ता चले। इन्हें न्यायिक अधिकार दिये जाने का मूल उद्देश्य भी यही था। अतः इस कर्त्तव्य से जब कोई भी अध्यक्ष विमुख होता है और उसका कामकाज पक्षपातपूर्ण होता दिखाई देता है तो विपक्ष को उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने का अधिकार होता है।
राज्यसभा में उपराष्ट्रपति के सन्दर्भ में यह अविश्वास महाभियोग हो जाता है। जबकि इसके उपसभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ही रहता है। जैसा कि 2020 में उपसभापति हरिवंश के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी विपक्ष ने की थी। उन्होंने उस समय कृषि विधेयकों को पारित कराने के लिए सारे संसदीय नियमों को तोड़ डाला था। मगर श्री धनखड़ इसी सदन में जो रवैया विपक्ष के सदस्यों के प्रति दिखा रहे हैं और उनके द्वारा रखे जा रहे प्रस्तावों को जिस तरह बरतरफ कर रहे हैं उससे एेसा लग रहा है कि उनका झुकाव सत्ता पक्ष की तरफ जरूरत से ज्यादा है और वह सदन के भीतर एक पक्षीय होते जा रहे हैं। अतः विपक्ष उनके विरुद्ध महाभियोग हेतु अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए उसके पास आवश्यक सांसदों की संख्या है। अतः उसने मंगलवार को सदन में अविश्वास प्रस्ताव रख दिया। महाभियोग के लिए विपक्ष का सदन में बहुमत होना जरूरी है मगर प्रस्ताव पेश करने के लिए बहुमत की नहीं बल्कि सदन की कुल सदस्य संख्या के जितने प्रतिशत मतों की ही जरूरत होती है, उतने उसके पास हैं। अविश्वास प्रस्ताव पर 50 से अधिक सांसदों ने हस्ताक्षर कर दिये हैं और अब यह सदन की सम्पत्ति बन चुका है। 245 के सदन में विपक्षी गठबन्धन ‘इंडिया’ के कुल 103 सदस्य हैं जबकि निर्दलीय विधि विशेषज्ञ सांसद श्री कपिल सिब्बल भी इसके साथ हैं। मगर अविश्वास प्रस्ताव चर्चा से 14 दिन पहले आना चाहिए जबकि वर्तमान सत्र 20 दिसम्बर को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो जायेगा। विपक्ष को इसकी परवाह नहीं है। यदि अविश्वास स्वीकृत होता है तो इसका मतलब यह है कि विपक्ष इस प्रस्ताव की मार्फत पूरे देश को सन्देश देना चाहता है कि राज्यसभा में उसके साथ श्री धनखड़ न्याय नहीं कर रहे हैं और उनका रुख सत्ता पक्ष की तरफ है।
अभी तक राज्यसभा में किसी भी सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की कोई नजीर नहीं है जबकि पहली ही लोकसभा में इसके अध्यक्ष श्री जी.वी. मावलंकर जैसी हस्ती के खिलाफ 1953 में अविश्वास प्रस्ताव पेश हुआ था जो कि बड़े अन्तर से गिर गया था परन्तु तब श्री मावलंकर को अपने आसन से उतर कर नीचे सामान्य सांसदों के साथ बैठना पड़ा था। इसके बाद 1966 में सरदार हुकम सिंह के खिलाफ और 1987 में बलराम जाखड़ के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में लाये गये थे जो गिर गये थे। राज्यसभा में यह बिल्कुल नया मामला होगा और लोकसभा की भांति इस सदन में व्यवहार नहीं होगा क्योंकि श्री धनखड़ सदन के सदस्य नहीं हैं और वह पदेन सभापति हैं। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के समय उपसभापति कार्यवाही का संचालन करेंगे। इस मामले में सदन खुद ही ताजा परंपरा स्थापित करेगा। मगर इससे हमें यह सबक जरूर मिलेगा कि हमारी संसदीय प्रणाली की व्यवस्था में कोई भी ऊंचे से ऊंचा पद निरापद नहीं है और संसद सर्वोच्च है। अतः लोकतन्त्र में हर विवाद के बावजूद इसका चलना बहुत जरूरी है जिसकी जिम्मेदारी मूलरूप से सत्ता पक्ष पर होती है। मगर सोमवार को तो खुद सत्ता पक्ष ने ही राज्यसभा को नहीं चलने दिया। यह भी एक नई नजीर हमें पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिल रही है। इसके लिए जरूरी है कि सत्ता पक्ष व विपक्ष के नेताओं के बीच एेसी बैठकें हों जिनमें आपसी विवादों को सुलझाया जाये। यह काम संसदीय कार्यमन्त्री का होता है। इस मामले में हमारे पास पिछली बीसियों नजीरें मौजूद हैं जिन पर अमल होना चाहिए। वरना संसद केवल शोभा की वस्तु बन कर रह जायेगी और किसी न किसी मुद्दे पर संसद स्थगित होती रहेगी। जबकि हम दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतन्त्र हैं।