राजस्थान की अशोक गहलौत सरकार ने कुछ ऐसे क्रान्तिकारी कदम उठाये हैं जिनकी मांग समय-समय पर देश के लगभग हर राज्य की नागरिक अधिकार संस्थाएं और प्रगतिशील राजनैतिक दल भी करते रहे हैं जिससे आम भारतीय व्यक्ति आर्थिक रूप से और सशक्त व मजबूत हो सके। श्री गहलौत भारत के पहले मुख्यमन्त्री हैं जिन्होंने स्वास्थ्य को अपने राज्य की विधानसभा में कानून बना कर इसे नागरिकों का मूल अधिकार बनाया और सुनिश्चित किया कि हर गरीब नागरिक का इलाज आधुनिक निजी अस्पताल से लेकर सरकारी अस्पताल तक में 25 लाख रुपए वार्षिक की धन सीमा में हो सके। इसके अलावा उन्होंने गरीब जनता के हित में ऐसी योजनाएं भी शुरू कीं जिससे समाज के निचले पायदान पर जीने वाले लोग भी आर्थिक बोझ से थोड़ा मुक्त होकर अपने बाल-बच्चों का पालन- पोषण थोड़ी सहूलियत के साथ कर सकें। इसमें गैस सिलेंडर के दाम 500 रुपए तय कर देना महत्वपूर्ण तो है ही मगर राज्य में सरकारी क्षेत्र में अंग्रेजी माध्यम के हजार से ज्यादा स्कूल खोलना भी अहमियत रखता है।
बेशक अशोक गहलौत की उम्र 70 के आसपास हो मगर उनकी सोच वर्तमान समय की युवा पीढ़ी की अपेक्षाओं के अनुरूप है जिसमें नई पीढ़ी को आधुनिक शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सेवा सुलभ कराने की प्रतिबद्धता है। संभवतः स. मोहनलाल सुखाड़िया के बाद श्री गहलौत एकमात्र ऐसे मुख्यमन्त्री हैं जिन्होंने राजस्थान की मरुथल भूमि को हरा-भरा बनाने के काम में लगे किसानों की दशा को भी सुधारने के लिए ऐतिहासिक फैसला किया है। श्री गहलौत ने आज ही विधानसभा में कर्जे के बोझे से दबे किसानों को राहत देने के लिए और उनके आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए विधेयक पेश किया है वह भारत के उन राज्यों के लिए एक नजीर है जहां किसान आत्म हत्याएं करने लिए मजबूर होते हैं। श्री गहलौत ने ‘किसान ऋण राहत आयोग’ बना कर यह तय किया है कि बैंकों के कर्जे के बोझ से दबे किसी भी किसान की खेती योग्य जमीन किसी भी हालत में कुर्क न हो और किसान को यह अधिकार मिले कि वह अपना कर्जा छोटी किश्तों में लम्बी समय अवधि में चुका सके। इस कानून के तहत बैंक से कर्जा लेने वाला किसान कर्जा चुकाने में असमर्थ होने पर इस संस्था के पास जा सकेगा और अपील कर सकेगा कि नुकसान में रहने की वजह से उसका कर्जा आगे के लिए बढ़ा दिया जाये और उसकी किश्तें छोटी रकम कर दी जायें। इसके बाद कोई बैंक कर्जा चुकता न होने की एवज में किसान की जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकेगा। अशोक गहलौत की सरकार ने राज्य के उन छोटे किसानों के कर्जे माफ कर दिये थे जिन्होंने सहकारी बैंकों से ऋण लिये थे। कर्ज माफी के लिए उनकी सरकार ने 15 हजार करोड़ रुपए की रकम भी रखी थी मगर वह वाणिज्यिक बैंकों से लिए गये कर्जों को माफ नहीं कर सके थे क्योंकि इसमें केन्द्र सरकार का अंशदान प्राप्त नहीं हुआ था। नये कानून के अनुसार अब किसी भी बैंक से लिये गये कर्जें का हर मामला सुना जायेगा।
दरअसल यह विषय बहुत व्यापक है क्योंकि भारत आज भी कृषि प्रधान देश ही हैं क्योंकि इसके 55 प्रतिशत से अधिक लोग कृषि क्षेत्र में ही लगे हुए हैं और यह रोजगार का भी बहुत बड़ा साधन है। इसे एक संयोग नहीं कहा जा सकता कि 1947 में आजादी मिलने के समय भारत की आबादी जहां 30 करोड़ से ज्यादा थी वहीं इसके 95 प्रतिशत लोग कृषि पर ही निर्भर थे लेकिन इस जनसंख्या का पेट भरने लायक अनाज का उत्पादन भी नहीं कर पाते थे और भारत को विदेशों से अनाज आयात करने के लिए मजबूर होना पड़ता था। मगर आज भारत की आबादी 140 करोड़ के लगभग है और इसके 55 प्रतिशत लोग ही कृषि पर निर्भर हैं और यह अनाज का आयात करने की बजाये अब इसका विदेशों को निर्यात करता है।
भारत आज दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। यह तरक्की हमने ऐसे ही प्राप्त नहीं कर ली है। इसके लिए हमारे दूरदर्शी नेताओं और मेहनती किसानों ने रात-दिन एक किया है। पं. नेहरू के शासनकाल से लेकर राजीव गांधी के शासनकाल तक भारत की सरकारों ने कृषि क्षेत्र पर भारी निवेश करके और ग्रामीण व कृषि क्षेत्रों में पूंजी का सृजन (कैपिटल फार्मेशन) करके व खेती में आधुनिक तरीके अपना कर एक तरफ किसानों को अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित किया और दूसरी तरफ उनकी नई पीढि़यों के लिए औद्योगिक क्षेत्रों में रास्ते खोलने का मार्ग प्रशस्त किया जिसकी वजह से भारत की रोजगार निर्भरता कृषि से दूसरे क्षेत्रों मे धीरे-धीरे परिवर्तित होती गई। और हम तरक्की करते गये बेशक यह सारा कार्य हमने संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्था के घेरे में ही किया। परन्तु 1991 में आर्थिक उदारीकरण के शुरू होने के बाद प्रारम्भिक वर्षों में कृषि क्षेत्र को लावारिस बना कर छोड़ दिया गया और सारा जोर औद्योगिक व सेवा क्षेत्र पर ही रहा मगर इसके बावजूद कृषि क्षेत्र में पिछली सरकारों द्वारा की गई मेहनत का फल भारत को भरपूर तरीके से मिला जिसका प्रमाण 71 से 81 दशक में जहां कृषि की वृद्धि दर केवल 2 प्रतिशत थी वहीं 81 से 91 के दशक मे यह 3.2 प्रतिशत हो गई और 1996 से 97 के वर्ष में यह 8.8 तक रही। हालांकि बीच के वर्षों में यह ऊपर नीचे होती रही। मगर 2009 से 2014 के वर्षों में 1991 से 96 तक वित्तमन्त्री के रूप में कृषि क्षेत्र को लावारिस बना कर छोड़ने वाले डा. मनमोहन सिंह ने पुनः इसकी सुध ली और सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा दिया। परन्तु बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में भारत के अन्न निर्यातक देश बन जाने की वजह से हम खेती की तरफ से बफिक्र होते चले गये और किसानों को अधिकाधिक कर्ज देने की नीति पर चलने लगे जिसकी वजह से किसानों की आत्महत्याएं भी बढ़ने लगीं। गहलौत ने इसी बीमारी का इलाज निकाला है जिसका अनुसरण अन्य राज्यों को भी करना चाहिए क्योंकि कृषि मूलतः राज्यों का ही विषय है।