यात्रियों की चिंता बढ़ाते रेल हादसे - Punjab Kesari
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यात्रियों की चिंता बढ़ाते रेल हादसे

देश में ट्रेन हादसों का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है। आये दिन देश के किसी ने किसी कोने से रेल हादसे की खबर आती है। पिछले दिनों ऐसी खबरें भी प्रकाश में आई थी कि कुछ शरारती तत्व रेल हादसों के लिए पटरी पर पत्थर, लकड़ी या अन्य सामान रख रहे हैं। ऐसे शरारती तत्वों को पुलिस ने गिरफ्तार भी किया है। रेल हादसा शरारती तत्वों के कारण हो या फिर किसी तकनीकी वजह से, इस से रेलयात्रियों में भय और चिंता पैदा होती है। भारत की विशाल रेलवे प्रणाली जो दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेलवे है। यह हर दिन एक लाख किमी से अधिक फैले देशव्यापी ट्रैक नेटवर्क पर लगभग ढाई करोड़ यात्रियों को लाती ले जाती है।
वर्ष 2024 के पहले सात महीनों में 19 रेल दुर्घटनाएं रिकार्ड की गई हैं। इसकी वजह से कई जानें गई हैं, इंफास्ट्रक्चर का बहुत नुकसान हुआ है। एक तरफ इससे मौजूदा पटरियों और गाड़ियों की स्थिति पर सवाल उठे हैं, लेकिन एक विश्लेषण से पता चलता है कि रेलवे के बढ़ते राजस्व के बावजूद, ट्रैक के मेनटेनेंस पर ख़र्च कम हुआ है। राज्यसभा के आंकड़ों से पता चलता है कि रेल दुर्घटनाओं में भी पटरी से उतरना सबसे आम हादसा है। 2021-22 में 27 हादसे रिकॉर्ड किए गए थे, 2022-23 में 36, ये दुर्घटनाएं आम तौर पर ख़राब मैंटेनेंस वाली पटरियों, ऑपरेशन संबंधी चूक, पुराने सिग्नल सिस्टम, जलवायु जैसी वजहों से होती हैं।
बिज़नेस लाइन की एक समीक्षा के मुताबिक़, कुल पूंजीगत व्यय बढ़ने के बावजूद पटरियों के नवीनीकरण का हिस्सा घट रहा है। 2022-23 में रेलवे का राजस्व 1.2 लाख करोड़ रुपये था और ट्रैक नवीनीकरण के लिए 13.5 प्रतिशत, वित्त वर्ष 2024 में रेलवे राजस्व तो बढ़कर 1.5 लाख करोड़ रुपये हो गया, लेकिन ट्रैक पर ख़र्च राजस्व के 11 फ़ीसदी पर आ गया। जुलाई में जो बजट पेश किया गया, उसके मुताबिक़ वित्त वर्ष 25 में ट्रैक्स पर ख़र्च रेलवे राजस्व के 9.7 प्रतिशत पर आ गिरा है। दिसंबर, 2022 में एक रिपोर्ट छपी थीः ‘डीरेलमेंट पर नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट’। इसमें भी साफ़ कहा गया है कि ट्रैक नवीनीकरण में निवेश कम हो रहा है।
साल 2019-20 के लिए एक सरकारी रेलवे सुरक्षा रिपोर्ट में पाया गया कि 70 फीसदी रेलवे दुर्घटनाओं के लिए उनका पटरी से उतरना जिम्मेदार था, जो पिछले वर्ष 68 फीसदी से अधिक था। इसके बाद ट्रेन में आग लगने और टक्कर लगने के मामले आते हैं, जो कुल दुर्घटनाओं में क्रमशः 14 और आठ फीसदी के लिए जिम्मेदार हैं। रिपोर्ट में साल 2019-20 के दौरान 33 यात्री ट्रेनों और सात मालगाड़ियों से संबंधित 40 पटरी से उतरने की घटनाएं गिनाई गईं। इनमें से 17 पटरी से उतरने की घटनाएं ट्रैक खराबियों के कारण हुईं। रिपोर्ट के मुताबिक पटरी से उतरने की केवल नौ घटनाएं ट्रेनों, इंजन, कोच, वैगन में खराबी के कारण हुईं। दुर्घटना कोई भी हो, विध्वंस होती है।
कागज़ों पर, भारतीय रेलवे के अपने कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण और सुरक्षा मॉड्यूल बहुत बढ़िया हैं। उदाहरण के लिए, 13 लाख कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रोजेक्ट सक्षम को रेलवे कर्मचारियों की उत्पादकता और दक्षता बढ़ाने के लिए देश का सबसे बड़ा, समयबद्ध, व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम कहा जाता है। हालांकि, व्यवहार में, यह “नई चुनौतियों का सामना करने के लिए मानसिकता बनाने’’ के लिए प्रशिक्षण का एक अप्रभावी तरीका है।
लोकोमोटिव पायलट जिस तरह की चुनौतियों के बीच और जिस तरह के हालात में काम करते हैं, वे भुलाए नहीं जा सकते। इस संबंध में दिसंबर 2016 में संसदीय समिति ने ध्यान दिलाया था कि लोकोमोटिव पायलट तकरीबन हर किलोमीटर पर एक सिगनल से गुजरते हैं और उन्हें पर्याप्त टेक्निकल बैकअप भी उपलब्ध नहीं होता। अक्सर उन्हें 10 घंटे का अपना शिफ्ट बढ़ाना भी पड़ता है। ऐसे में सुरक्षा से जुड़े इन पहलुओं की अनदेखी करते हुए ट्रेनों की स्पीड बढ़ाने पर जोर आगे चलकर और गंभीर स्थिति पैदा कर सकता है।
रेलवे बोर्ड का मानना है कि लोको पायलट की लगातार कई घंटों, दिनों की नौकरी भी बड़े हादसों का बुनियादी कारण है। नियम अधिकतम दो रात लगातार ड्यूटी करने की अनुमति देते हैं। यह भी अमानवीय नियम है। वैकल्पिक लोको पायलटों की व्यवस्था होनी चाहिए। यह कैसे होगा, क्योंकि रेलवे में बीते 10 सालों से करीब तीन लाख पद खाली पड़े हैं। उनमें 21 फीसदी लोको पायलट के पद हैं। उन्हें कब भरा जाएगा? वे तो स्वीकृत और अधिकृत पद हैं, फिर सरकार को इन पदों को भरने में क्या दिक्कत रही है?
‘कवच’ एक ऑटोमैटिक रेल सुरक्षा सिस्टम है, जिसे स्वदेशी तौर पर ही विकसित किया गया है। अभी तक 1465 रूट किमी और 139 रेल इंजनों पर ही ‘कवच’ स्थापित किया गया है। यह स्थिति फरवरी, 2024 की है और दक्षिण मध्य रेलवे में ही यह व्यवस्था की गई है। बताया जाता है कि कई हजार रूट किमी पर ‘कवच’ प्रणाली के लिए टेंडर दे दिए गए हैं। वे कब तक इस सुरक्षा प्रणाली को स्थापित कर देंगे, ताकि कोई भी अमूल्य जिंदगी गंवानी न पड़े? ‘कवच’ ही सुरक्षा की 100 फीसदी गारंटीशुदा व्यवस्था नहीं है। सिग्नल और इंटरलोकिंग सरीखी तकनीकी समस्याएं हैं, जिनके कारण रेलवे टकराव होते हैं और त्रासद हादसे सामने आते हैं। सिग्नल खराब होने की स्थिति में लोको पायलट्स को ट्रेन कैसे चलानी है, इसका पर्याप्त प्रशिक्षण लोको स्टाफ को आज तक नहीं दिया गया है।
विशेषज्ञों के अनुसार धातु से बनी रेलवे पटरियां गर्मी के महीनों में फैलती हैं और सर्दियों में तापमान में उतार-चढ़ाव के कारण सिकुड़ती हैं। उन्हें नियमित रखरखाव की जरूरत होती है ढीले ट्रैक को कसना, स्लीपर बदलना और अन्य चीजों के अलावा, चिकनाई और समायोजन स्विच, इस तरह का ट्रैक निरीक्षण पैदल, ट्रॉली, लोकोमोटिव और अन्य वाहनों द्वारा किया जाता है। भारतीय रेलवे का सुझाव है कि ट्रैक-रिकॉर्डिंग कारों को हर तीन महीने में कम से कम एक बार 110 किमी/घंटा से 130 किमी/घंटा तक की गति बनाए रखने के लिए डिजाइन किए गए ट्रैक का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना चाहिए।
जहां तक सुरक्षा पर होने वाले खर्च की बात है तो 2017-18 में राष्ट्रीय रेल संरक्षा कोष तैयार कर दिया गया था। इस कोष में धन की कमी नहीं पड़ने दी गई, लेकिन मार्च 2023 में संसदीय समिति ने बताया कि कभी एक साल भी ऐसा नहीं गुजरा, जिसमें इस सालाना रकम का पूरी तरह इस्तेमाल किया गया हो। भूलना नहीं चाहिए कि भारतीय रेल रोज औसतन दो करोड़ से ज्यादा यात्रियों को उनकी मंजिल तक पहुंचाती है। ऐसे में ये छोटे-बड़े हादसे उन तमाम लोगों के मन में चिंता पैदा करते हैं, जो कहीं जाने के लिए बेखटके रेलवे का सहारा लेते हैं। जहां तक रेलवे के सेफ्टी सिस्टम का सवाल है तो रेलवे से जुड़ी संसदीय समिति और सीएजी दोनों की रिपोर्टें इस ओर ध्यान खींचती रही हैं। दिसंबर 2016 से मार्च 2023 के बीच ही ऐसी कम से कम तीन रिपोर्ट हैं, जो बताती हैं कि रेलवे अपने सुरक्षा मानकों पर खरा नहीं उतर पा रहा।
सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि भारतीय रेल की व्यापकता को अपेक्षाकृत सुरक्षित करने के मद्देनजर क्या ‘कवच’ प्रणाली को कुछ शीघ्रता से स्थापित नहीं किया जा सकता? सवाल यह भी है कि क्या ‘वंदे भारत’ सरीखी ट्रेन के आकर्षक आधुनिकीकरण पर राजनीतिक और नीतिगत फोकस अधिक है, लिहाजा ‘कवच’ जैसी प्राथमिकताएं पीछे छूट जाती हैं? क्या रेलवे की सुरक्षा से ऐसे समझौते किए जा सकते हैं? सवाल यह भी वाजिब है कि राष्ट्रीय रेल सुरक्षा कोष में 75 फीसदी फंडिंग कम क्यों की गई? सुरक्षा कोष के पैसे रेल अधिकारी क्यों खर्च कर रहे हैं? यह भी सवाल है कि हादसों के बाद जांच के लिए जो समितियां गठित होती हैं, उनकी सिफारिशें किस हद तक मानी गई हैं।

– रोहित माहेश्वरी

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