कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी अपनी उस पार्टी की महान विरासत के धनुर्धर हैं जिसके कर्ताधर्ता रहे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘मैं अपने विरोधी के विचार उसे अपने से ऊंचे आसन पर बैठा कर सुनना पसन्द करूंगा’। राष्ट्रपिता ने ये विचार एक अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर को 1946 में दिये गये साक्षात्कार में व्यक्त किये थे। राष्ट्रपिता ने 1934 में ही घोषणा कर दी थी कि स्वतन्त्र होने पर भारत में संसदीय प्रणाली का लोकतन्त्र होगा जिसमें प्रत्येक वयस्क नागरिक को एक समान एक वोट का अधिकार मिलेगा। गांधी के सपनों को ही हमारे पुरखों ने भारत के संविधान में ढाला जिसमें बाबा साहेब अम्बेडकर की बहुत बड़ी भूमिका थी। हमारे संविधान में वे सभी वादे और आश्वासन हैं जो महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता का युद्ध लड़ते हुए देश की जनता को दिये थे। लोकतान्त्रिक भारत का निर्माण गांधी का सपना था जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने देश का पहला प्रधानमन्त्री बनने के साथ ही पूरा किया। ये ऐसे पुख्ता ऐतिहासिक तथ्य हैं जिन्हें कोई भी बदल नहीं सकता।
श्री राहुल गांधी ने पूर्व केन्द्रीय मन्त्री श्रीमती स्मृति ईरानी के बारे में अपनी पार्टी व अन्य लोगों को जो सलाह दी है वह लोकतन्त्र में एक परिपक्व राजनीतिज्ञ की निशानी है। उन्होंने कहा है कि अमेठी से लोकसभा चुनाव एक साधारण कांग्रेसी कार्यकर्ता किशोरी लाल शर्मा से लोकसभा चुनाव हारने वाली स्मृति ईरानी के लिए न तो अपशब्दों का प्रयोग करें और न ही उनका मजाक उड़ाने का प्रयास करें। लोकतन्त्र में हार-जीत चलती रहती है मगर इसका मतलब यह नहीं होता कि हारने वाले नेता का जनाधार नहीं होता। बेशक उसे जीतने वाले नेता से कम वोट प्राप्त होते हैं मगर इसके बावजूद उसके पक्ष में भी लोग मतदान करते हैं। प्रजातन्त्र में घमंड या गरूर नेताओं को शोभा नहीं देता क्योंकि उनकी अपनी ताकत कुछ नहीं होती। उन्हें जो भी ताकत मिलती है वह सीधे जनता से ही मिलती है। जनता ही उन्हें अर्श पर बैठाती है औऱ वही फर्श पर भी ला पटकती है।
अतः 2019 में अमेठी में राहुल गांधी को पराजित कर श्रीमती स्मृति ईरानी ने जिन तेवरों को अख्तियार किया था उनका अनुसरण करना पूरी तरह गैर लोकतान्त्रिक व अवांछित होगा। बेशक स्मृति ईरानी का व्यवहार राहुल गांधी के प्रति कभी-कभी मर्यादा की सारी सीमाएं लांघते हुए अमर्यादित हो गया हो मगर उनकी हार के बाद उनके साथ ऐसा व्यवहार ही करना पूरी तरह अनुचित होगा। जाहिर है कि जब वह मन्त्री नहीं रही हैं तो उनसे सरकारी बंगला खाली कराया ही जायेगा। इसे लेकर उपहासात्मक टिप्णियां करना भी लोकतन्त्र की अवधारणा के विरुद्ध ही माना जायेगा। अतः राहुल गांधी ने बाकायदा अपने विचार सार्वजनिक करके कांग्रेस की महान विरासत के अनुसार ही काम किया है और सिद्ध किया है कि लोकसभा में विपक्ष के नेता होने के कारण उनका दायित्व सभी वर्गों के प्रति बनता है।
हमारे लोकतन्त्र में तो बीसियों एेसे उदाहरण हैं जब जो राजनैतिक प्रतिद्वन्दी निजी जीवन में अच्छे मित्र हुआ करते थे। विचारों की प्रतिद्वन्दिता का मतलब यह नहीं होता कि व्यक्तिगत जीवन में भी दो व्यक्तियों के बीच रंजिश रहे। जो राजनीतिज्ञ ऐसा करते या मानते हैं वे राजनीति में आने के अयोग्य होते हैं। क्योंकि भारत में प्रत्येक राजनीतिक दल भारत के संविधान के प्रति उत्तरदायी होता है और इसके दायरे में ही अपनी विचारधारा व सिद्धान्तों के अनुसार देश व इसके लोगों का विकास करना चाहता है। बेशक हर राजनैतिक दल का रास्ता अलग होता है मगर लक्ष्य एक ही विकास करना होता है। विरोधी विचारों के लोग इस रास्ते की खामियां ही गिनाते हैं मगर किसी भी राजनैतिक दल को देश विरोधी कैसे कह सकते हैं। लोकतन्त्र इसकी पूरी इजाजत देता है।
डा. राम मनोहर लोहिया पं. नेहरू की नीतियों के कटु आलोचक थे। वह व्यक्तिगत रूप से नेहरू जी की कभी-कभी आलोचना कर डालते थे मगर नेहरू जी को अपना शत्रु नहीं मानते थे। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं। लोकसभा के भीतर जब डा. लोहिया पहली बार उपचुनाव जीतकर 1963 में आये तो उन्होंने तत्कालीन नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना की झड़ी लगा दी थी मगर नेहरू जी उनकी आलोचना को लोकसभा में बैठकर मुस्कराते हुए सुनते रहते थे और बाद में डा. लोहिया को अपने कार्यालय में बुलाकर चाय भी पिलाते थे। इसी प्रकार मुहम्मद अली जिन्ना महात्मा गांधी का परम शत्रु था मगर गांधी जी उसके साथ भी मृदुल व्यवहार करते थे। गांधी जी ने जनवरी 1940 में जिन्ना को एक पत्र लिख कर यह तक सुझाव दे दिया था कि वह और डा. अम्बेडकर व दक्षिण के रामस्वामी नायकर पेरियार मिलकर भारत में कांग्रेस के समानान्तर अपना एक अलग दल ही बना लें। राजनीति में दुश्मनी जैसी कोई चीज नहीं होती है अतः राहुल गांधी ने जो विचार व्यक्त किये हैं वे उनके बड़प्पन की ही निशानी कहे जायेंगे। राजनीति प्रतियोगिता का नाम होती है। इस प्रतियोगिता में हार-जीत होती रहती है। जनता जिस भी नेता या दल के विमर्श को स्वीकार कर लेती है जीत उसकी हो जाती है। जब लोकतन्त्र में सब कुछ जनता ने ही तय करना है तो आपसी दुश्मनी क्यों हो?
आदित्य नारायण चोपड़ा
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