संसद में मणिपुर पर चल रहे हंगामे के बीच लोकसभा में जनविश्वास बिल पारित कर दिया गया है। इस बिल के जरिये कारोबारियों को काफी राहत मिलेगी। क्योंकि इसमें 42 अधिनियमों के 188 प्रावधानों का संशोधन कर छोटी-मोटी गड़बड़ियों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का प्रस्ताव किया गया है। कई प्रावधानों को अपराध मुक्त करने से कारोबारियों को अब जेल नहीं जाना पड़ेगा। अब वे भारी-भरकम जुर्माना देकर बच सकेंगे। कारोबारी सुगमता की दृष्टि से देखें तो यह विधेयक पहली नजर में सभी को अच्छा लगेगा। कई बार छोटी-मोटी गलती के कारण कारोबारियों को अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। उन्हें नौकरशाहों के भ्रष्टाचार के जाल में फंसना पड़ता है। पिछले 9 वर्षों के शासनकाल के दौरान मोदी सरकार ने लगभग 40 हजार प्रावधानों और प्रतिक्रियाओं को या तो सरल बना दिया गया या हटा दिया गया, जिनसे लोगों के लिए समस्याएं पैदा होने की आशंका थी। मोदी सरकार अब तक 1486 पुराने कानूनों को निरस्त कर चुकी है जो आज के दौर में अर्थहीन हो चुके हैं। जनविश्वास संशोधन विधेयक के तहत धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) में भी संशोधन करने का प्रस्ताव है। इस अधिनियम के पैराग्राफ 25 और 27 को हटाया गया है। इन प्रावधानों को हटाने से प्रवर्तन निदेशालय की शक्तियां कम हो जाएंगी। सरकार का कहना है कि इससे अदालतों का बोझ कुछ कम होगा। मुकद्दमों की संख्या घटेगी। इस बिल में कई अपराधों में सजा की बजाय जुर्माने का प्रावधान किया गया है और जिन सजाओं में पहले से जुर्माना लग रहा है, वहां जुर्माना राशि कई गुणा बढ़ा देने का प्रस्ताव किया गया है।
जनविश्वास बिल को लेकर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। इस विधेयक में ड्रग्स एवं कॉस्टमेटिक्स एक्ट 1940 में दो संशोधन किए गए। पहला संशोधन किसी दवा के विज्ञापन के लिए सरकारी विश्लेषण या परीक्षण रिपोर्ट का उपयोग करने के बार-बार अपराध के लिए सजा को बदलने का प्रावधान करता है। पहले इसके लिए दो साल की सजा या दस हजार रुपए से अधिक का जुर्माना किया जाता था, जिसे अब पांच लाख रुपए कर दिया गया है। दूसरा संशोधन 1940 अधिनियम की धारा 27 (डी) के तहत परिभाषित मानक गुणवत्ता से कम या घटिया स्तर की दो साल की कैद और 20 हजार रुपए जुर्माने की जगह अब केवल जुर्माने का ही प्रावधान करता है। यद्यपि स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि नए कानूनों से दवाओं के मामले में कोई समझौता नहीं करता लेकिन विधि विशेषज्ञों ने इस पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत की फार्मा कम्पनियों की दवाओं की गुणवत्ता को लेकर न केवल देश में बल्कि विदेशों में भी सवाल उठाए जा रहे हैं। कई देशों ने भारतीय कम्पनियों द्वारा सप्लाई की जाने वाली खांसी की दवाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। अगर फार्मा कम्पनियों को केवल जुर्माना भरकर बच जाने की छूट दी गई तो वह घटिया स्तर की दवाएं बनाने की ओर प्रोत्साहित होंगी।
सब जानते हैं कि देश में नकली और घटिया दवाओं का व्यापार फलफूल रहा है। यद्यपि मिलावटी दवाओं जिससे मौत हो सकती है उसके लिए आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है लेकिन नकली दवाओं से जिनका कोई दुष्प्रभाव न हो उनको अपराध मुक्त श्रेणी में डालना उचित नहीं होगा। अगर देश के लोगों को घटिया स्तर की दवाइयां भी महंगे दामों पर मिलेंगी तो इससे अपराध को और बढ़ावा मिलेगा। यह विधेयक ड्रग्स और कॉस्मेटिक्स एक्ट के प्रावधानों को कमजोर बनाएगा। विधेयक पर विचार करने वाली संसदीय समिति ने भी ऐसे कई पहलुओं को नजरंदाज किया है। बिल को राज्यसभा में भी पेश किया जाना है।
बिना गम्भीर बहस के विधेयक को पारित करना जोखिम भरा होता है। बेहतर यही होगा कि इस विधेयक को प्रवर समिति के हवाले किया जाए और विधेयक के प्रावधानों पर फिर से विचार किया जाए। इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि कोई भी दवा जो सुरक्षा मापदंडों में विफल रहती है या जिन्हें अस्वच्छ परिस्थितियों में बनाया गया हो या बिना लाइसैंस के बनाया गया हो उसके लिए कठोर प्रावधान लागू रहने चाहिए। यदि किसी भी घटिया दवा से शारीरिक नुक्सान पहुंचता है तो उसके लिए किसी न किसी को जवाबदेह या अपराधी तो ठहराया ही जाना चाहिए। कई सवालों का जवाब तो ढूंढना ही पड़ेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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