भारत का राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग एक स्वायत्त संस्था है जिसकी स्थापना 2005 में केन्द्र सरकार ने सी. रंगराजन की अध्यक्षता वाली आर्थिक सलाहकार समिति की सिफारिश के आधार पर की गई थी। डा. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में जनवरी 2000 में सरकार द्वारा गठित आयोग द्वारा देश में सांख्यिकीय प्रणाली तथा सरकारी सांख्यिकी के समस्त कार्यक्षेत्र की समीक्षा की गई। आयोग की प्रमुख सिफारिशों में से एक सिफारिश देश के सभी कोर सांख्यिकी कार्यकलापों के लिए एक नोडल तथा शक्ति प्रदत्त निकाय के रूप में सांख्यिकी सम्बन्धी एक स्थायी राष्ट्रीय आयोग स्थापित करने के बारे में थी ताकि उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से विकास योजनाएं शुरू की जा सकें, योजनाओं में परिवर्तन किया जा सके। अगर सरकार के सामने देश के समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र से जुड़े सही आंकड़े हैं तो उसी के हिसाब से नीतियां बनाई जाएंगी। अगर सरकार के पास देश के गरीबों या गरीबी की रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों का वास्ताविक आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं होगा तो सरकार के कार्यक्रम और नीतियां सफल नहीं हो पाएंगी।
जिन देशों में कम्युनिस्ट शासन रहा वहां की सरकारें आंकड़ों में फेरबदल करती रहीं और लोगों को कभी असली तस्वीर से रूबरू नहीं कराया गया। वामपंथी विचारधारा का दुनियाभर में समाप्त हो जाने का यह कोई अकेला कारण नहीं लेकिन इससे समाज में असंतोष बढ़ता गया और एक दिन यह आक्रोश कम्युनिस्ट तानाशाहों के खिलाफ फूट पड़ा लेकिन लोकतांत्रिक देशों में ऐसा सम्भव ही नहीं है। लोकतांत्रिक देेशों में केन्द्र सरकार द्वारा ही गठित प्रतिष्ठानों की स्वायत्तता बहुत जरूरी है। स्वायत्त संस्थानों की अपनी प्रतिष्ठा होती है। इनकी स्थापना ही इसलिए की जाती है कि इससे देश के विभिन्न पहलुओं की ठोस जानकारी सार्वजनिक दायरे में मौजूद रहेगी। सरकारें चाहे केन्द्र की हों या राज्यों की, वह चाहती हैं कि लोगों को सपने दिखाए जाएं, उनके सामने ऐसी तस्वीर पेश की जाए ताकि उन्हें लगे कि सरकार उनके लिए काम कर रही है।
सत्ता से जुड़ी संस्थाओं और प्रतिष्ठानों में मतभेद होना स्वाभाविक है और मतभेदों की गुंजाइश हमेशा बनी भी रहनी चाहिए ताकि संस्थान की पारदर्शिता और पवित्रता बनी रहे। मतभेद तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों में खुलकर सामने आए हैं और सीबीआई का जो हाल है, वह भी देश के सामने है। अब राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो स्वतंत्र सदस्यों पी.सी. मोहनन और जे.बी. मीनाक्षी ने सरकार के साथ कुछ मुद्दों पर असहमति होने के चलते इस्तीफा दे दिया है। पद छोड़ने वालों ने आरोप लगाया है कि 5 दिसम्बर 2018 को ही नेशनल सैम्पल सर्वे का डाटा मंजूर कर सरकार को दिया था मगर वह आज तक जारी नहीं हुआ। कहा जा रहा है कि इस रिपोर्ट में नोटबंदी के बाद कम हुई नौकरियों के आंकड़े मौजूद हैं।
हालांकि सरकार ने सफाई दी है कि इस्तीफा देने वाले दोनों अधिकारियों ने कभी अपनी चिन्ताओं का उल्लेख आयोग की बैठकों में नहीं किया। सरकार हर बार पांच साल का एनएसएसओ डाटा जारी करती है लेकिन आयोग के पास सिर्फ एक वर्ष के आंकड़े ही उपलब्ध हैं। सरकार का मानना है कि इन आंकड़ों से सही तस्वीर सामने नहीं आएगी। बहरहाल दो अधिकारियों के इस्तीफे के बाद चीफ स्टेटिशियन और नीति आयोग के सीईओ ही बचे हैं। अहम सवाल यह है कि इन दोनों अधिकारियों की अन्तरात्मा तब ही क्यों जागी जब लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। उनके इस्तीफों ने विपक्ष के हाथ में सरकार को घेरने का नया अस्त्र दे दिया है। इससे यह संदेश भी देश के लोगों तक पहुंचा है कि सरकार या तो आंकड़ों को छिपाना चाहती है या उनमें फेरबदल करना चाहती है।
वैसे आंकड़ों के खेल को मध्यम और गरीब वर्ग कभी गम्भीरता से नहीं लेता। आंकड़े केवल देश की इलीट क्लास के लिए होते हैं। मध्यम और गरीब वर्ग को तो भरपेट खाना चाहिए और उसके लिए उसे रोजगार चाहिए। उसे घर से निकलते ही अच्छी सड़क, स्वच्छ पानी आैर स्वच्छ हवा मिलनी चाहिए। देश की सरकारों को नीतियों को सफल बनाने के लिए सही आंकड़ों की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो कार्यक्रम कभी सिरे नहीं चढ़ सकते। राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की गरिमा कायम रहनी चाहिए अन्यथा एक और संस्था दबाव के बोझ तले दब जाएगी।