विपक्षी एकता का मन्तव्य - Punjab Kesari
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विपक्षी एकता का मन्तव्य

कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में चल रही देश के प्रमुख विपक्षी दलों की बैठक का सबसे बड़ा संकेत

कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में चल रही देश के प्रमुख विपक्षी दलों की बैठक का सबसे बड़ा संकेत यह माना जा रहा है कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव स्वतन्त्र भारत के इतिहास के अभी तक के सबसे विकट चुनाव होंगे जो भारत की नई पीढि़यों का भविष्य तय करने के लिहाज से दूरगामी प्रभाव वाले होंगे। इन चुनाव परिणामों से यह भी तय हो जायेगा कि निकट भविष्य में भारत की बहुदलीय राजनीति की क्या दिशा होगी और भारत अपनी बढ़ती आबादी के साथ वैश्विक राजनीति की किस धुरी को अपने विकास का पैमाना बनायेगा। देश के प्रबुद्ध राजनैतिक पंडितों व विश्लेषकों के अऩुसार ये चुनाव साधारण चुनाव नहीं होंगे क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर जो राजनैतिक धुंध का वातावरण विभिन्न क्षेत्रीय, सम्प्रदायगत व सामुदायिक स्वार्थों के चलते बन चुका है उसको चीर कर ही इन चुनावों में जनादेश आयेगा। यह आंकलन पूर्णतः इस तथ्य पर टिका हुआ है कि भारत का कम पढ़ा-लिखा और गरीब समझा जाने वाला मतदाता राजनैतिक रूप से बहुत परिपक्व और सुविज्ञ है और राष्ट्रीय हितों के प्रति बहुत सजग रहने वाला है। इस मतदाता की बड़ी खूबी यह भी है कि इसे विपक्ष को बहुत कमजोर हालत में देखने की आदत भी नहीं है जिसके प्रमाण हमें देश के पहले 1952 के चुनावों से ही मिलते हैं।
यदि हम वर्तमान भारत के विभिन्न राज्यों की ही बात करें तो कम से कम 11 राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को पिछले लोकसभा चुनावों में कुल 78 करोड़ से अधिक मतदाताओं में से 22 करोड़ ने इसके पक्ष में वोट डाले थे जबकि विपक्षी की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के पक्ष में 12 करोड़ के लगभग मत पड़े थे। जाहिर है कि शेष मत अन्य दलों को ही गये होंगे मगर इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि राजनीति कोई सीधा-साधा अंकगणित है जिसमें दो जमा दो चार ही होते हैं। राजनीति चुनाव में खड़े किए गये उन विमर्शों या मुद्दों पर अपने समीकरण गढ़ती है जिन्हें आम जनता अपने करीब समझती है। अतः इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि बेंगलुरु में 26 सियासी पार्टियां आपस में मिल रही हैं या इसके जवाब में दिल्ली में भाजपा अपने खेमे में 30 पार्टियों को घेर कर ला रही है।
चुनावों में राजनैतिक दलों के गठबन्धन केवल ऊपरी सजावट (ओर्नामेंटल) के तौर पर ही होते हैं जिससे अपने विरोधी को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित किया जा सके। असली गठबन्धन तो जमीन पर आम मतदाताओं के बीच बनता है। इसके सबसे चमकीले दो उदाहरण हैं। पहला 1971 के चुनावों का और दूसरा 1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों का।  1971 के चुनावों में भारत के सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने स्व. इंदिरा गाधी की कांग्रेस के खिलाफ एक गठबन्धन बनाया जिसे चौगुटा कहा गया। इसमें जनसंघ (भाजपा) से लेकर स्व. राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी व डा. लोहिया की संयुक्त समाजवादी पार्टी के साथ ही मूल कांग्रेस पार्टी से अलग हुई संगठन काग्रेस पार्टी भी थी। साथ ही चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रान्ति दल से लेकर अन्य और प्रभावशाली क्षेत्रीय पार्टियां जैसे अकाली दल आदि भी थीं। इसके अलावा देश के पूर्व राजा- महाराजाओं और प्रख्यात उद्योगपतियों व पूंजीपतियों ने न केवल अपना खुला समर्थन विपक्षी चौगुटे को दिया बल्कि कई ने तो उनकी तरफ से खुद चुनाव भी लड़ा। इनमें बिड़ला, टाटा व नन्दा प्रमुख थे। मगर इंदिरा जी की कांग्रेस की तरफ से जो विमर्श मतदाताओं के बीच खड़ा किया गया उसने चुनावों में इस गठबन्धन को तिनकों की तरह उड़ा कर फेंक दिया। वजह एक थी कि इस देश के मतदाताओं को लगा इन्दिरा जी उनके हितों व राष्ट्रहित के लिए ही सारी ताकतों से लड़ रही हैं।
यदि उस समय की अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाये तो अमेरिका की मदद से पाकिस्तान इन्दिरा सरकार को बहुत कमजोर दिखाने पर तुला हुआ था। मगर चुनाव जीत कर दिसम्बर 1971 में बांग्लादेश बनवा कर इन्दिरा गांधी ने पूरी दुनिया को न केवल चौंधिया दिया बल्कि पूरे एशिया की राजनीति को ही बदल डाला। मगर इसके ठीक छह साल बाद उन्हीं विपक्षी दलों ने पुनः गठबन्धन बना कर उन्ही इन्दिरा जी की कांग्रेस को बुरी तरह परास्त कर डाला। ये एेसे चुनाव हुए थे जिसमें पहली बार तब मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों ने भी जनसंघ के विपक्षी खेमे के प्रत्याशियों को वोट देने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई थी। ये चुनाव इमरजेंसी उठने के बाद हो रहे थे। अतः राजनीति में कभी कोई एक नियम नहीं होता है। लोकतन्त्र में हकीकत में राजनीति के नियम पार्टियां नहीं बल्कि जनता बनाती है। पार्टियां तो केवल अपनी तरफ से जनता को भरमाने का प्रयास करती हैं परन्तु जमीन पर असली समस्याओं से तो जनता को ही दो- चार होना पड़ता है जिसके परिप्रेक्ष्य में वह अपना विमर्श बुनती है औऱ फिर जिस भी राजनैतिक दल का विमर्श उसे अपने विमर्श के करीब लगता है वह उसे अपनी मोहब्बत से नवाज देती है। बेशक विपक्षी खेमे में दो दर्जन दल हों या सत्ता के खेमे में इससे भी ज्यादा मगर असली सवाल तो जनता के खेमों का ही रहेगा।

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