मध्य प्रदेश में जनता का ‘राग’ - Punjab Kesari
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मध्य प्रदेश में जनता का ‘राग’

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भारत एेसा शोर-शराबे का लोकतन्त्र है जो इसके कोलाहल के बीच से ही अपनी स्पष्ट दिशा तय करता है, मगर इसका श्रेय इस देश की महान आम जनता को ही जाता है जो राजनैतिक दलों के स्तरहीन हो-हल्ले के बीच अपनी बोली को अलग ‘राग’ में आलाप कर खुद को लोकतन्त्र का मालिक घोषित करती है। हमने आजादी के बाद से हर चुनाव में मतदाताओं की वह बुद्धिमानी देखी है जो राजनीतिज्ञों को मूर्ख साबित करती रही है। इसकी असली वजह यह होती है कि मतदाता हर चुनाव में उस राजनैतिक एजेंडे को ही गले लगाते हैं जो उनके दिल के करीब होता है। मगर राजनीतिज्ञों को मतदान के दिन तक यह गलतफहमी रहती है कि वे उनकी गढ़ी हुई राजनैतिक शब्दावली के धोखे में आ जायेंगे। अतः जो लोग सोच रहे हैं कि विधानसभा चुनावों में असंगत बातों को उछाल कर बाजियां जीती जा सकती हैं उन्हें अंत मंे निराश ही होना पड़ेगा।

असल में चुनावी एजेंडा सिवाय इसके कुछ और नहीं होता कि मतदाता राजनीतिज्ञों के फैलाये हुए किस प्रचार को कोरा भ्रम मान रहा है और किन मसलों को असली समस्या मान रहा है। अतः वह चुनावों से पहले ही दीवार पर इबारत लिखनी शुरू कर देता है और जिस राजनैतिक दल के नेता इसे पढ़ने में कामयाब हो जाते हैं वे चुनाव जीत जाते हैं। मध्य प्रदेश में आज मतदान के ​िलये जो उत्साह मतदाताओं में देखा गया है उससे किसी को भी भ्रमित होने की जरूरत नहीं है और न ही इसका मनमाफिक विश्लेषण करने की आवश्यकता है क्योंकि परिणाम वही आयेगा जिसे सोच कर मतदाताओं ने अपना मत दिया है। इस राज्य के चुनाव परिणाम का विशिष्ट महत्व आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनजर इसलिए है क्योंकि यहां के 90 प्रतिशत मतदाता कस्बाई व ग्रामीण मानसिकता के होने के बावजूद महानगरीय सभ्यता में पले-बढे़ लोगों का मामला वैचारिक स्तर पर इस तरह करते हैं कि किसी भी दल के प्रत्याशी की जाति उनके लिए कोई मायने नहीं रखती।

बल्कि इसके विपरीत गांवों के अर्ध सामन्ती समाज के लोग शोषित और शोषक के बीच भेद करने की बुद्धि रखते हैं। अतः उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड इलाके से लगे मध्य प्रदेश के बुन्देलखंडी इलाकों में केवल जातिगत आधार पर चुनाव लड़ने वाली बहुजन समाज पार्टी को इस बार निराशा इसलिए हाथ लग सकती है क्योंकि चुनावों का असली एजेंडा वही उभरा जो इस राज्य के दबे व पिछड़े और व्यथित वर्ग ने तय किया था। इसमें कोई जातिगत भेदभाव नहीं था और न ही साम्प्रदायिक रंग इसे प्रभावित कर पाया क्योंकि इसकी संभावना स्वयं जनता ने ही शुरू में इस प्रकार समाप्त कर दी थी कि लोग नर्मदा परिक्रमा कार्यक्रम से उपजे भ्रष्टाचार की बातें करने लगे थे। परन्तु जाहिर तौर पर जनता के एजेंडे को बदलना किसी भी राजनीतिज्ञ की क्षमता से बाहर होता है बल्कि बुद्धिमान राजनीतिज्ञ जनता एजेंडे को ही पकड़ लेते हैं और उसे ही मुद्दा बना कर पूरा चुनाव लड़ जाते हैं। अतः हर चुनावी हार-जीत का रहस्य इसी तथ्य में छिपा रहता है। बेशक जनता के एजेंडे को ओझल करने के लिये राजनैतिक दल विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाते हैं और एेसे-एेसे विषयों को चुनावी मैदान में घसीट लाते हैं जिनका सम्बन्ध न लोगों से होता है न राज्य के विकास से और न राजनीतिक दृष्ट या नीति से। उनका एकमात्र लक्ष्य लोकतन्त्र की उस पवित्रता को अशुद्ध करने का होता है जिसकी ताईद भारत का संविधान करता है।

अतः यह बेवजह नहीं था कि मध्य प्रदेश के चुनाव प्रचार में अचानक ‘बजरंग बली’ और ‘अली’ आ गये। किसान आत्महत्या और उद्योगों के बन्द होने के मसलों को पृष्ठिभूमि में डालने का प्रयास किया गया। सभी अपना-अपना चुनावी एजेंडा बनाने की कोशिश कोई करता है तो वह लोकतन्त्र को एेसा खेल समझने की भूल करता है जिसमें इसके मालिक (मतदाताओं) को बिना दिमाग का चलता-फिरता जीव समझ लिया जाये? मध्य प्रदेश के लोग यह भलीभांति जानते हैं कि चुनाव पांच साल में एक बार ही आते हैं क्योंकि इसकी व्यवस्था भी वे अपने एक वोट के अधिकार से पुख्ता तरीके से इस प्रकार करते आ रहे हैं कि विजयी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिले। 1967 के बाद से मध्य प्रदेश के लोगों ने अपने राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकारें ही बनाई हैं।

अतः एक पक्का निष्कर्ष यह जरूर निकाला जा सकता है कि इन चुनावों में भी जो भी पार्टी विजयी होगी वह उम्मीद से ज्यादा बहुमत पाकर ही सत्ता का वरण करेगी। अब हार-जीत का निष्कर्ष स्वयं वह राजनैतिक दल निकाल सकता है जिसने जनता के एजेंडे को पकड़ कर अपना चुनाव अभियान चलाने में सफलता हासिल की है। इसमें ज्यादा माथापच्ची की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि पूरा चुनाव ही राज्य के मुद्दों पर लड़ा गया है। असल में चुनावों में आम जनता तो राजनीतिज्ञों के राजनीति मंे पारंगत होने का इम्तेहान लेती है। मगर राजनीतिज्ञ गफलत मंे आ जाते हैं कि वे उसका इम्तेहान ले रहे हैं। यह जनता ही है जो अपना एजेंडा पकड़ने वाले नेता को ‘फर्श’ से उठा कर ‘अर्श’ पर पहुंचा देती है। वरना राजनीतिज्ञ तो एक बार अर्श पर पहुंच जाने के बाद उससे भी आगे कहीं और दुनिया बसाने की सोचने लगते हैं।

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