राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में आयोजित इस संगठन के वार्षिक समारोह को सम्बोधित करते हुए पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने पुनः स्थापित किया है कि भारत की धरती कभी भी वीरों से खाली नहीं हो सकती। संघ के मंच से खड़े होकर उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और देशभक्ति के जिस दर्पण में सम्पूर्ण भारत को आत्मसात करते हुए परिभाषित किया उससे इस देश की वह तस्वीर समस्त देशवासियों के आंखों में स्वतः तैर गई जो प्रत्येक भारतीय को आपस में जोड़कर एक राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करती है। धर्म, जाति व सम्प्रदाय से ऊपर सौहार्द व सहिष्णुता के आधार पर अपनी विशिष्ट वैश्विक पहचान बनाने वाले भारत की आत्मा विविधता के बहुरंगी आपसी प्रेम व भाईचारे में बसती है। संभवतः श्री मुखर्जी से बेहतर अनवरत रूप से भारतीय संस्कृति का अंग बने इस तथ्य का निरुपण कोई दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता था क्योंकि प्रणव दा का व्यक्तित्व स्वयं इसका जीवन्त उदाहरण है।
भारी राजनैतिक विवाद के चलते संघ के कार्यक्रम में जाने का निमन्त्रण स्वीकार करके और उसी के मंच पर हिन्द की समग्र समावेशी बहुधर्मी सहनशीलता से उपजी सहिष्णु संस्कृति के उलझे हुए तारों को जिस सरलता के साथ खोलते हुए प्रणव दा ने यह उद्घोष किया कि प्रजातन्त्र हमें सौगात मंे नहीं मिला है बल्कि यह हमारी संस्कृति में रचा-बसा वह तत्व है जिसमें प्रत्येक भारतवासी की निष्ठा है। दरअसल प्रणव दा का यह भाषण भारत की आने वाली पीढि़यों के लिए वह रास्ता था जिस पर चल कर वे अपने भविष्य के प्रति निश्चिन्त हो सकती हैं। उन्होंने भारत के प्राचीन इतिहास के पन्नों को पलट कर आधुनिक भारत के लोगों को चेताया कि धार्मिक पहचान के आधार पर भारतीय राष्ट्रीयता की परिकल्पना किसी भी दौर में इसका हिस्सा नहीं रही वरना अशोक महान जैसे बौद्ध सम्राट का साम्राज्य इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित न होता। यह सब सद्भावना, सहिष्णुता और विविधता में समरसता का ही प्रताप था कि उस समय चीन तक में हमारी संस्कृति का तेज महसूस किया गया। हमने भारत के इन मूल तत्वों को समेट कर अपने संविधान को स्वीकारा और सुनिश्चित किया कि भारतीय राष्ट्रीयता और देशभक्ति इसमें समाहित विविधता के समन्वीकरण के संसर्गों से निर्देशित हो। यही वजह है कि मुख्य रूप से तीन जातीय वर्गों काकेशसीय, द्रविड़ व मंगोल लोगों से बने भारत में एक ही संविधान व ध्वज के नीचे समस्त नागरिक अपनी-अपनी विविध जीवन शैली के साथ रहते हैं और सात प्रमुख धर्मों के अनुयायी हैं तथा 120 भाषाएं व 1600 बोलियां बोलते हैं।
भारत का निर्माण इसी विविधता के साये में एक देश के रूप में हुआ है, इसका सम्बन्ध किसी एक धर्म, भाषा या क्षेत्र से नहीं है। सांस्कृतिक विविधता हमारी ताकत रही है। इसी विविधता के बीच से उपजी साझा पहचान हमारा राष्ट्रवाद है। इस सन्दर्भ में उन्होंने प.जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया से उदाहरण देते हुए समझाया कि नेहरू जी का अटूट विश्वास था कि राष्ट्रवाद ‘हिन्दू , मुस्लिम , सिख व अन्य सम्प्रदायों की वैचारिक टकराहट से उपजा दर्शन है। मगर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इनमें से किसी एक भी संस्कति को हाशिये पर डाल दिया जाये बल्कि असल में एक एेसी साझी राष्ट्रीय दृष्टि है जिसके आगे दूसरे मुद्दे या पहचान नीचे रह जाते हैं। इतना ही नहीं प्रणव दा ने महात्मा गांधी का भी उदाहरण दिया और स्पष्ट किया कि बापू की नजर में भारतीय राष्ट्रवाद न तो सीमित था, न ही हमलावर था और न ही विध्वंसकारी था, बल्कि यह समावेशी था। प्रणव दा को यह सब कहने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि आजकल राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर सार्वजनिक उद्बोधनों में गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है और हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है, उन्होंने चेताया कि हमें किसी भी प्रकार की हिंसा से बचना होगा चाहे व भौतिक रूप में हो अथवा वैचारिक रूप में। हिंसा से प्रगति और विकास का मार्ग अवरुद्ध होता है। इस सन्दर्भ में उनका खुश या प्रसन्न रहने वाले 156 देशों में भारत का 123वें नम्बर होने के सर्वेक्षण का हवाला देना बहुत महत्वपूर्ण है और भारत की संसद में कौटिल्य के अर्थ शास्त्र से उद्घृत अंकित सूत्र वाक्य का याद दिलाना सत्ताधारियों को सचेत करता है कि राजा की खुशी प्रजा की खुशी में ही होती है।
श्री मुखर्जी के भाषण से उन सभी आशंकाओं का निराकरण होना स्वाभाविक था जो कांग्रेस पार्टी के नेताओं के मन में उठ रही थीं। यहां तक कि उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी संघ की नीयत पर शक जाहिर किया था मगर प्रणव दा की राजनीति कभी भी व्यक्ति मूलक नहीं रही है, उनका प्रत्येक कार्य राष्ट्र के हित में रहा है। जब वह वित्त मन्त्री थे तो शर्मिष्ठा मुखर्जी ने ही मांग की थी कि जो लोग पशु प्रेमी हैं उन्हें कर में छूट प्रदान की जानी चाहिए, तब प्रणव दा ने उत्तर दिया था कि यह एक नागरिक का निजी विचार है इससे ज्यादा कुछ नहीं। यह सोचना फिजूल होगा कि वह संघ के कार्यक्रम में बिना किसी उद्देश्य के किसी के बुलावे पर चले गये थे। यह कार्यक्रम कोई निजी नहीं था बल्कि सार्वजनिक कार्यक्रम था। मगर इस कार्यक्रम में वह जो सन्देश देना चाहते थे उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के अपने वैचारिक मान्यताओं के आधार पर दे दिया। गौर से देखें तो एक राजनेता ( स्टेटसमैन ) ने पूरे देश को सावधान किया है कि विरोधी विचारों का विरोध करके ही अपने अस्तित्व का बोध कराना तब बुद्दिमत्ता नहीं होती जब राष्ट्र सर्वत्र सामाजिक कलह से अपने ही अस्तित्व के लिए बेचैन हो, एेसे वातावरण में सत्यबोध का आइना दिखा कर ही राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा की जाती है। गुरु देव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता की उपमा देकर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि न जाने कितनी संस्कृतियों के लोग इस धरती पर आकर बसते गये और इसी में समाहित होते गये। इसी समागम का नाम भारत पड़ा।