पत्रकारों की पिटाई की राजनीति - Punjab Kesari
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पत्रकारों की पिटाई की राजनीति

माननीय अखिलेश यादव यदि यह सोच रहे हैं कि पत्रकारों की भरी प्रेस कान्फ्रेंस में अपनी समाजवादी पार्टी

माननीय अखिलेश यादव यदि यह सोच रहे हैं कि पत्रकारों की भरी प्रेस कान्फ्रेंस में अपनी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा पिटाई करा कर वह राज्य में ‘खाली पड़े’ विपक्षी स्थान को भर सकते हैं तो बहुत बड़ी गलती पर हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश उस दौर को तिलांजिली दे चुका है जब अपराधी और अराजकतावादी मिल कर शासन को कानून से चलाने के बजाय अपने इशारों पर चलाया करते थे। 1989 के बाद से इस राज्य की राजनीति को जिस तरह जातियों के खेमों में बांट कर कबायली अन्दाज में सामाजिक कलह को पैदा किया गया उसने उत्तर प्रदेश को पचास साल पीछे फैंक दिया और आम लोगों की सोच को कबीलों की संकीर्णता में धकेल दिया। मगर 2017 के चुनावों में जिस तरह राज्य की जनता ने भाजपा को तीन चौथाई से अधिक बहुमत देकर यह सिद्ध किया कि राजनीति में वैचारिक लगाव मुख्य भूमिका निभाता है उससे इसी आधार पर आगे के चुनाव लड़े जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। यह कोई तर्क नहीं हो सकता कि इन चुनावों में साम्प्रदायिक आधार पर जबर्दस्त गोलबन्दी हुई जिसकी वजह से भाजपा को एेतिहासिक सफलता मिली। भाजपा की इस विजय को उसके उस राष्ट्रवादी सिद्धांत की विजय के रूप में ही देखा जायेगा जिसका खाका उसने आम लोगों के सामने प्रस्तुत किया था मगर इसी परिवर्तन से राज्य की राजनीति के सिद्धान्त परक होने का मार्ग निकलता है जिसमें अब अपराध प्रवृत्ति की राजनीति के लिए कोई खास जगह नहीं बचती है। 
जरा गौर करिये वह व्यक्ति क्या खाक लोगों की रहनुमाई करेगा जो पत्रकारों के सवालों पर ही आपे से बाहर हो जाये और उसके सामने ही उसकी पार्टी के लोग पत्रकारों की पिटाई करते रहे और वह यह कहने कि हिमाकत करे कि ‘‘हां जाओ मारा  जो करना है कर लो” लोकतन्त्र में जब नेता किसी मोहल्ले के दबंग की तरह व्यवहार करने लगता है तो समझना चाहिए कि उसके नीचे से पूरी जमीन खिसक चुकी है और उसे अपने ऊपर भी भरोसा नहीं रहा है। बेशक पत्रकारिता में भी लाख बुराइयां आ चुकी हैं मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं हो सकता कि राजनीतिज्ञ ही गुंडागर्दी पर उतारू हो जायें। सवाल का जवाब देना या न देना नेता का अधिकार होता है और सवाल पूछना पत्रकार का जन्मजात हक होता है। मगर यह भी हकीकत है कि जैसी राजनीति होगी वैसी ही पत्रकारिता भी होगी। अतः जो नेता पत्रकारों के तीखे से तीखे सवालों का जबाव मुस्करा कर न दे सके वह राजनीतिज्ञ तो किसी तौर पर नहीं हो सकता क्योंकि राजनीति दुश्मन पैदा करने का नाम नहीं परन्तु मित्र बनाने की कला होती है। अखिलेश यादव ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया कि अभी उन्हें राजनीति में बहुत कुछ सीखना है। इस क्षेत्र में वह फिलहाल घुटनों के बल चलने वाले बच्चे ही हैं। मगर उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यहां के नेताओं ने हाशिये पर पड़े लोगों को जाति-बिरादरी में बांट कर अपनी निजी सम्पत्तियों के अम्बार खड़े किये हैं और इस काम में उनकी मदद असामाजिक तत्वों से लेकर अपराधियों तक ने की है। अतः यह बेवजह नहीं है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति का अपराधीकरण भी 1989 के बाद से बहुत तेजी के साथ हुआ। इससे बड़ा दुर्भाग्य इस राज्य का और क्या होगा कि जो चौधरी चरण सिंह राजनीति में सादगी और ईमानदारी के पर्याय माने जाते थे। उन्होंने जब स्वयं 1974 में कई बड़े विपक्षी दलों का विलय करके ‘भारतीय लोकदल’ बनाया तो इनकी उत्तर प्रदेश शाखा की कमान अखिलेश यादव के पिता श्री मुलायम सिंह यादव को इसलिए सौंपी थी कि वह किसानों के हकों के लिए लड़ने वाले सिपाही थे जिनकी प्रारम्भिक राजनीतिक दीक्षा डा. लोहिया की संसोपा पार्टी में हुई थी।  मगर न जाने क्या हवा चली कि उन्हीं मुलायम सिंह यादव ने किसानों को जातियों में बांट कर और मुस्लिम जनता की भावनाओं को भड़का कर सत्ता पर काबिज होने का तरीका अपनाया। हालांकि यह काम अयोध्या में राम मन्दिर आंदोलन चलने के चलते हुआ मगर इससे उत्तर प्रदेश की राजनीतिक परिपक्वता व तीक्ष्णता समाप्त होती चली गई और यह कबीलों की राजनीति में बंटता चला गया जिसमें बहुजन समाज पार्टी की सुश्री मायावती ने पूरा सहयोग दिया। 
भारत का सबसे बड़ा राज्य जिसे अगर दुनिया के देशों के क्रम में रखा जाये तो छठे नम्बर पर आयेगा, उसकी हालत यह हो गई कि चुनाव में ‘गुंडा और सभ्य’ एक विमर्श बनता चला गया। भूमाफिया से लेकर और न जाने कितने माफिया भेष बदल-बदल कर राजनीतिक सिंहासनों पर बैठने लगे जिन्होंने कानून को ही अपनी जेब में रख लिया। मगर यह दौर समाप्त हो चुका है और राज्य का आमजन चेतावनी दे रहा है कि राजनीति वह शह नहीं है कि कोई भी अपने पिता की परचून की दुकान की गद्दी पर बैठ कर एक हाथ से ‘आटा’ और दूसरे हाथ से ‘मिट्टी का तेल’ बेचता रहे। अखिलेश यादव को सबसे पहले किसी सुलझे हुए नेता की शागिर्दी में पांच साल गुजारने चाहिए और पत्रकारों के सवालों के जवाब देने का सलीका सीखना चाहिए। वे अपनी पार्टी के भीतर ‘लाठी और डंडे’ के माहिरों को बेशक भर्ती कर सकते हैं मगर सार्वजनिक जीवन में उन्हें राजनीति का अस्त्र नहीं बना सकते। पत्रकारों पर हमला करवा कर उन्होंने सिद्ध यही किया है कि वह राजनीति को लाठी-डंडे का मैदान बनाना चाहते हैं। एेसी मानसिकता तो वही है कि जहां दिमाग से काम न चले वहां हाथ से काम लेना शुरू कर दो। राजनीति में ऐसे लोगों का प्रवेश निषेध होता है और वे बच्चे कहलाये जाते हैं। परिपक्व लोग ही राजनीति करते हैं और हारते-जीतते रहते हैं।
‘‘गिरते हैं शह सवार ही मैदान-ए-जंग में 
वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले।’’ 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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