हरियाणा चुनाव में हार का ठीकरा कांग्रेस पार्टी ने ईवीएम पर फोड़ा है। ऐसा नहीं है कि हरियाणा में कांग्रेस को शून्य सीट प्राप्त हुई है। 37 सीटें जीतकर वो बहुमत के लायक संख्या नहीं जुटा पाई और भाजपा तीसरी बार सत्ता पर काबिज हो गई। ये बात कांग्रेस को हजम नहीं हो पा रही, ऐसे में सारा गुस्सा, खीझ और झुंझलाहट ईवीएम पर निकालकर कांग्रेस जनता के बीच अपनी छवि बचाने की कसरत कर रही है। वहीं वो मोदी सरकार और चुनाव आयोग की छवि पर गहरे दाग भी लगा रही है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस मोदी का इकबाल खत्म भले न कर पाए लेकिन ऐसा लगता है कि उनकी पार्टी अब संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को ध्वस्त करने के खतरनाक खेल में जुट गई है। ईवीएम पर निशाना लगाकर कांग्रेस बारकृबार चुनाव आयोग की निष्पक्षता को संदेह के कठघरे में खड़ा करने का काम करती है।
पिछले एक दशक से केंद्र की सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस हार के बाद ईवीएम में गड़बड़ी का मुद्दा उठाती है। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में जीत के बाद उसे ईवीएम में कोई दोष दिखाई नहीं दिया। अभी हाल ही में हरियाणा के साथ ही साथ जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित हुए। वहां कांग्रेस के सहयोगी नेशनल कांफ्रेस को सबसे ज्यादा सीटें मिली। वहां कांग्रेस और एनसी मिलकर सरकार बना रहे हैं, इसलिए वहां भी ईवीएम बिल्कुल ठीक ठाक रही।
कांग्रेस समेत विपक्ष के कई दल ताजा घटनाक्रम में फिर एक बार उस ईवीएम पर सवाल उठा रहे जो एक बार नहीं बल्कि कई बार, बार-बार अग्निपरीक्षा में पास हुई है। बेदाग साबित हुई है। सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट मिली। चुनाव आयोग ने हैकिंग का ओपन चैलेंज तक दिया लेकिन कोई सामने नहीं आया। कांग्रेस ने हार को स्वीकार कर आत्ममंथन और समीक्षा की बजाय बहानेबाजी का आसान रास्ता चुना लेकिन ऐसा करते हुए वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की महान लोकतांत्रिक प्रक्रिया और उसकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा रही है। हरियाणा में इस बार कांग्रेस के प्रदर्शन में सुधार हुआ है। 90 विधानसभा सीटों वाले राज्य में 2019 में 31 सीट जीतने वाली कांग्रेस ने इस बार 37 सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन प्रदर्शन में ये सुधार सत्ता तक नहीं पहुंच पाया। ऐसा क्यों हुआ, उसकी समीक्षा के बजाय पार्टी चुनावी प्रक्रिया पर ही लांछन लगाने लगी है।
भारत में चुनावों में पहली बार ईवीएम का इस्तेमाल साल 1982 में हुआ था। केरल विधानसभा की पारूर सीट पर हुए उपचुनाव के दौरान बैलटिंग यूनिट और कंट्रोल यूनिट वाली ईवीएम इस्तेमाल की गई। लेकिन इस मशीन के इस्तेमाल को लेकर कोई क़ानून न होने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने उस चुनाव को ख़ारिज कर दिया था। इसके बाद, साल 1989 में संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन किया और चुनावों में ईवीएम के इस्तेमाल का प्रावधान किया। इसके बाद भी इसके इस्तेमाल को लेकर आम सहमति साल 1998 में बनी और मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली की 25 विधानसभा सीटों में हुए चुनाव में इसका इस्तेमाल हुआ। बाद में साल 1999 में 45 सीटों पर हुए चुनाव में भी ईवीएम इस्तेमाल की गई। फ़रवरी 2000 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान 45 सीटों पर ईवीएम इस्तेमाल की गई। मई 2001 में तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और पुड्डुचेरी में हुए विधानसभा चुनावों में सभी सीटों में मतदान दर्ज करने के लिए ईवीएम इस्तेमाल हुईं। उसके बाद से हुए हर विधानसभा चुनाव में ईवीएम इस्तेमाल होती आ रही हैं। 2004 के आम चुनावों में सभी 543 संसदीय क्षेत्रों में मतदान के लिए 10 लाख से ज़्यादा ईवीएम इस्तेमाल की गई थीं।
ईवीएम, भारत में चुनाव प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण अंग बन गई है। भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में इसकी अहमियत को इस बात से समझा जा सकता है कि करीब दो दशक से हर संसदीय और विधानसभा चुनाव में इन्हें इस्तेमाल किया जा रहा है। अपने 45 साल के इतिहास में ईवीएम को शंकाओं, आलोचनाओं और आरोपों का भी सामना करना पड़ा है, लेकिन चुनाव आयोग का कहना है कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाने में ईवीएम बहुत अहम भूमिका निभाती है। ईवीएम में गड़बड़ी या इसके जरिये धांधली से जुड़ी चिंताओं को दूर करने के लिए चुनाव आयोग ने समय-समय पर कई कोशिशें भी की हैं।
निहित स्वार्थ के तहत चुनाव आयोग और ईवीएम को लांछित करने की कोशिशों पर सुप्रीम कोर्ट एडीआर जैसे समूहों को लताड़ लगा चुका है। इसी साल अप्रैल में जब लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी तब सर्वोच्च अदालत ने पिछले 70 सालों से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग की तारीफ की और साथ में इस पर दुःख जताया कि ‘निहित स्वार्थी समूह’ देश की उपलब्धियों को कमजोर कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईवीएम पर 8 बार परीक्षण किया गया और ये हर बार बेदाग निकली। ईवीएम को लेकर कई बार मामले हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पहुंचे लेकिन हर बार उसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध मिली।
सात साल पहले 2017 में तो चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों या किसी भी व्यक्ति या संगठन को ईवीएम हैक करके दिखाने का खुला चैलेंज दिया था। तब सिर्फ 2 पार्टियों ने ही चैलेंज स्वीकार किया था- एनसीपी और सीपीएम। तय तारीख को दोनों पार्टियों के नेता चुनाव आयोग के दफ्तर तो पहुंचे लेकिन चैलेंज में हिस्सा लेने की हिम्मत नहीं हुई। हां, आम आदमी पार्टी ने जरूर दिल्ली विधानसभा के भीतर प्रश्न किया। विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जुगाड़ के डिब्बों को ईवीएम का नाम देकर कथित तौर पर हैक करके दिखाया गया। पार्टी ने असली ईवीएम के बजाय ‘जुगाड़ डिब्बे’ का इस्तेमाल करके सस्ती पब्लिसिटी का हथकंडा अपनाया। चुनाव आयोग कार्रवाई न कर दे, इसलिए विधानसभा के विशेष सत्र की आड़ ली गई।
भारत के चुनाव आयोग के मुताबिक, ईवीएम बहुत ही उपयोगी है और यह पेपर बैलट यानी मतपत्रों की तुलना में सटीक भी होती है, क्योंकि इसमें गलत या अस्पष्ट वोट डालने की संभावना ख़त्म हो जाती है। इससे मतदाताओं को वोट देने में भी आसानी होती है और चुनाव आयोग को गिनने में भी। ईवीएम से वोटिंग से परिणाम भी जल्दी आते हैं नहीं तो बैलट पेपर्स की गिनती में ही 1-2 दिन और लोकसभा चुनाव में तो 3-3, 4-4 दिन तक लग जाते थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी बैलेट पेपर से वोटिंग कराने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया है। ईवीएम की शुचिता असंदिग्ध रहे, इसके लिए मशीन में दर्ज वोटों और वीवीपैट पर्चियों के मिलान होता है। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने ईवीएम पर भरोसा जताया और सभी याचिकाएं खारिज कर दीं, लेकिन बेहतर होता कि वह इस मशीन को बदनाम करने के अभियान पर लगाम भी लगाता।
ईवीएम की विश्वसनीयता और उपयोगिता प्रमाणित हो चुकी है, लेकिन कुछ लोग और साथ ही राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक संगठन उस पर बेवजह सवाल उठाने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे रह-रहकर हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाते हैं।
उच्चतर न्यायपालिका को ऐसे तत्वों को हतोत्साहित करना चाहिए, अन्यथा वे कोई न कोई बहाना लेकर ईवीएम के खिलाफ मोर्चा खोलते ही रहेंगे, क्योंकि उन्होंने ऐसा करने को अपना धंधा बना लिया है। ऐसे तत्व विदेशी मीडिया के उस हिस्से को भी खाद-पानी देने का काम करते हैं, जिसे न तो भारत की प्रगति रास आ रही है और न ईवीएम की सफलता पच रही है।
– रोहित माहेश्वरी