महाराष्ट्र में सियासी धमाका - Punjab Kesari
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महाराष्ट्र में सियासी धमाका

महाराष्ट्र में जो सियासी नाटक हुआ है उससे सिद्ध होता है कि वर्तमान राजनीति में सैद्धान्तिक मान्यताओं के

महाराष्ट्र में जो सियासी नाटक हुआ है उससे सिद्ध होता है कि वर्तमान राजनीति में सैद्धान्तिक मान्यताओं के लिए जगह बहुत सीमित रह गई है और नेताओं का व्यक्तिगत स्वार्थ सर्वोच्च हो गया है। निश्चित रूप से सत्ता पाना राजनीति में हर राजनीतिज्ञ का लक्ष्य होता है मगर वह यह काम यदि अपनी राजनैतिक विचारधारा की बलि देकर करता है तो उसे ‘सत्ता लोलुप’ की उपाधि से नवाजा जाता है। मगर राजनीतिक लोकतन्त्र में हम देखते हैं कि अक्सर विभिन्न पार्टियों में विद्रोह और बगावत होती रहती हैं। नेताओं की बगावत यदि सिर्फ सत्ता के लिए होती है तो जनता उन्हें नकार देती है और यदि सिद्धांतों के लिए होती है तो यही जनता उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखती है। महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस के संस्थापक श्री शरद पवार के खिलाफ उन्हीं के भतीजे अजित दादा पवार ने बगावत करके राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा से हाथ मिला लिया और उपमुख्यमन्त्री पद भी पाया। उनके साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस के कुल 53 विधायकों में से 29 विधायक बताये जा रहे हैं जिनमें से आठ को उनके साथ ही मन्त्री पद की शपथ दिला दी गई। मगर शरद पवार को केवल अजित पवार ने ही झटका नहीं दिया बल्कि उनके सबसे विश्वस्त माने जाने वाले सांसद प्रफुल्ल पटेल ने भी धोखा दिया और वह अजित पवार के खेमे में चले गये। अजित पवार और प्रफुल्ल पटेल दोनों को ही स्वयं शरद पवार ने हाथ पकड़ कर राजनीति में चलना सिखाया और दोनों को अपनी छत्रछाया में रखते हुए उनको योग्य बना कर ऊंचे से ऊंचे औहदे पर पहुंचने में भी मदद की। बेशक स्वयं शरद पवार ने भी कई बार अपनी मूल पार्टी कांग्रेस से बगावत की मगर फर्क सिर्फ यह रहा कि वह कभी पद के पीछे नहीं दौड़े बल्कि पद उनकी राह में रहा। चाहे वह 1978 में उनके पहली बार संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा बना कर मुख्यमन्त्री बनने का अवसर रहा हो या बाद में मुख्यमन्त्री बनने के मौके रहे हों। इसकी वजह यही थी कि शरद पवार जमीनी संघर्ष करके राजनीति में नेता बने और लोगों ने उनकी भूमिका को सराहा। आज सवाल यह है कि जब महाराष्ट्र में भाजपा व शिवसेना ( शिन्दे) की मिली-जुली सरकार  पूर्ण बहुमत के साथ आराम से चल रही है तो इसे अजित पवार के सहयोग की क्या जरूरत है? जाहिर है कि जरूरत भाजपा से ज्यादा अजित पवार की है। उनके साथ जो मंडली राष्ट्रवादी विधायकों व नेताओं की गई है उनमें से कम से कम सात के खिलाफ बकौल श्री शरद पवार केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा विभिन्न मामलों की जांच का काम भी लम्बित है। इनमें से नये मन्त्री बने श्री छगन भुजबल तो 17 महीने जेल में रह चुके हैं। 
लोकतन्त्र चूूंकि नम्बरों का खेल होता है तो यदि कोई विधायक पाला बदल करके सत्ता पक्ष में आना चाहे तो उसे कोई क्यों मना करेगा?पाला बदलते ही अजित पवार ने कहना शुरू कर दिया है कि असली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी वही हैं। अजित पवार अभी तक राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता भी थे। अतः उनका सीधा पाला बदल कर सीधे उपमुख्यमन्त्री बन जाना कोई साधारण घटना नहीं कही जा सकती। कहा जा रहा है कि उनके विद्रोह की वजह राष्ट्रवादी पार्टी में उनकी उपेक्षा होना है। वह अपनी पार्टी की महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष बनना चाहते थे मगर पार्टी के सर्वेसर्वा श्री शरद पवार ने उन्हें विधानसभा में विपक्ष का नेता बने रहने के लिए ही कहा और अपनी पुत्री सुप्रिया सुले के हाथ में पार्टी की आंशिक कमान देना ज्यादा बेहतर समझा। अजित पवार ने पिछले दिनों यह भी इच्छा व्यक्त की थी कि वह पार्टी संगठन का काम देखना चाहते हैं मगर उन्हें यह काम नहीं मिल सका। मगर राजनीति को समझने वाले सभी लोग इस हकीकत से वाकिफ हैं कि पिछले कुछ महीनों से अजित पवार लगातार भाजपा को यह संकेत दे रहे थे कि वह केन्द्र की भाजपा सरकार के कामकाज के प्रशसंक हैं। ऐसा करके क्या वह भाजपा को ललचा रहे थे क्योंकि एक बार पहले भी 2019 के चुनावों के बाद जब विधानसभा में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था भाजपा व शिवसेना का चुनाव पूर्ण गठबन्धन टूट गया था तो उन्होंने सुबह-सबेरे ही भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस  के साथ उपमुख्यमन्त्री पद की शपथ ले ली थी मगर 80 घंटे बाद वह पुनः वापस राष्ट्रवादी कांग्रेस में आ गये थे। अतः समझा जा सकता है कि उनकी सैद्धान्तिक निष्ठा शुरू से ही सन्देह के घेरे में थी। महाराष्ट्र में भाजपा की जमीन तभी मजबूत बन पाई जब राज्य में शिवसेना का एक राजनैतिक पार्टी के रूप में उदय हुआ और भाजपा ने इसके साथ मिल कर चुनाव लड़ना शुरू किया। 
2019 के लोकसभा चुनाव अपवाद थे क्योंकि ये केवल प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति पर लड़े गये थे लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा अपने साथ उन दलों के नेताओं को भी देखना चाहती है जो सैद्धान्तिक रूप से उसके पारंपरिक विरोधी रहे हों। इस समीकरण को अजित पवार हल कर सकते हैं। अतः उनका साथ भाजपा के जमीनी विस्तार में मददगार हो सकता है लेकिन मुद्दे की बात यह है कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस का मतलब शरद पवार ही माना जाता है क्योंकि 1999 में उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर इस पार्टी का गठन किया था। मराठों की ग्रामीण अस्मिता को राजनीति में उभारा था। यही वजह है कि शरद पवार कह रहे हैं कि वह अपनी पार्टी के विभाजन को लेकर किसी न्यायालय में नहीं जायेंगे बल्कि लोगों के बीच में जायेंगे। 

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