देश में अन्धाधुन्ध तरीके से बढ़ती पेट्रोल व डीजल की कीमतों ने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है और यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आखिरकार वर्तमान सरकार की नई ईंधन नीति उद्योगपतियों की मदद करने के लिए है अथवा साधारण व्यक्ति की सहायता के लिए। अन्तर्राष्ट्रीय तेल मूल्यों से घरेलू तेल के मूल्य जोड़ने का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि विश्व बाजार में कच्चे तेल के भाव लगातार गिरते रहने के बावजूद घरेलू बाजार में पेट्रोल के भाव मनमाने तरीके से बढ़ते जाएं। यदि सरकार ने पेट्रोल व डीजल को अपनी राजस्व उगाही का प्रमुख स्रोत हर हाल में बनाये रखना है तो इसके कथित मूल्य च्विनियन्त्रणज् का कोई अर्थ नहीं है।
विश्व बाजार में जब कच्चे तेल का भाव मनमोहन सरकार के दौरान 140 डालर प्रति बैरल तक पहुंच गया था तब भी तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री श्री मणिशंकर अय्यर ने इसका भाव घरेलू बाजार में 50 रुपए प्रति लीटर से ऊपर नहीं जाने दिया था। उन्होंने इस पर लगने वाले आयात शुल्क व उत्पाद शुल्क पर इस तरह कमी की थी जिससे घरेलू उपभोक्ता पर ज्यादा बोझ न पड़े। उस समय पेट्रोल व डीजल के क्षेत्र में संलिप्त निजी कम्पनियों ने अपने पेट्रोल पंप बन्द कर दिये थे क्योंकि उन्हें मुनाफा नहीं हो पा रहा था।
देश के हजारों लोगों ने इन कम्पनियों के पेट्रोल पंपों की जो एजेंसियां भारी धन निवेश करके ली थीं उनका धन डूब गया था मगर सरकारी तेल कम्पनियों ने अपना कारोबार जारी रखा था और लोगों को तकलीफ नहीं होने दी थी मगर वर्तमान दौर में निजी कम्पनियों के लिए मानों अन्धा खाता खोल दिया गया है और वे प्रतिदिन पेट्रोल के दामों का निर्धारण करती हैं। हकीकत यह है कि मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भाव (46 डालर प्रति बैरल) के अनुरूप डालर व रुपये की विनिमय दर को देखते हुए भारत में पेट्रोल की कीमत ज्यादा से ज्यादा 40 रुपए प्रति लीटर रहनी चाहिए मगर केन्द्रीय व राज्य करों के चलते यह 77 रुपए प्रति लीटर तक के हिसाब से बिक रहा है। इन आंकड़ों को यदि कोई चुनौती दे सकता है तो कृपया जरूर दे आैर सिद्ध करे कि क्यों भारत में पेट्रोल 70 रुपए प्रति लीटर (राजधानी दिल्ली में ) बिकना चाहिए ? मुझे अच्छी तरह याद है कि वाजपेयी सरकार के दौरान जब यशवन्त सिन्हा वित्तमन्त्री थे तो अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव 20 डालर प्रति बैरल से भी नीचे चले जाने के बाद एक अध्यादेश लेकर आये थे जिसमें पेट्रोलियम उत्पादों पर शुल्क तीन गुना करने का प्रावधान था।
यह केवल इसलिए किया गया था जिससे घरेलू बाजार में पेट्रोल सस्ता न होने पाये मगर अब परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं और डीजल व पेट्रोल को सीधे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के भावों से जोड़ कर निजी कम्पनियों को भी प्रतियोगिता में आने का माहौल बना दिया गया है परन्तु इसकी मार्फत आम आदमी की जेब पर लगातार बोझ बढा़या जा रहा है और निजी कम्पनियां भारी मुनाफा कमा रही हैं। ऐसी नीति का किसी भी रूप में आम जनता समर्थन नहीं कर सकती है। पेट्रोल व डीजल के भाव देश की अर्थव्यवस्था पर सीधा असर डालते हैं और इतने बड़े आर्थिक संवाहक को किस तरह तदर्थ आधार पर रोज भाव तय करने की नीति पर छोड़ा जा सकता है।
दक्षिण एशिया के अधिसंख्य देशों में पेट्रोल व डीजल के भाव स्थिर रखने की एक मजबूत प्रणाली विकसित की जा चुकी है। वहां भी खुली अर्थव्यवस्थाएं हैं मगर सरकार इनके भावों को स्थिर रखने के लिए शुल्कों में घट-बढ़ का हथियार अपने पास रखकर भावों को स्थिर बनाये रखती हैं मगर भारत में तो सारे आर्थिक फैसले लोगों को बेमतलब के मुद्दों में उलझा कर किये जा रहे हैं। जिन मुद्दों का उनके जीवन से प्रत्यक्षतः सरोकार है उन पर राजनीतिक हलचल पैदा ही नहीं होने दी जाती। यह देश के आम आदमी के साथ अन्याय के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता।
जिस जीएसटी की आज सर्वत्र चर्चा हो रही है उसके दायरे में पेट्रोल व डीजल की कीमतों को नहीं लाया गया है। यह देश की आर्थिक हकीकत से भागने का पलायनवादी दृष्टिकोण है। इसमें वित्तमन्त्री अरुण जेतली की कोई गलती नहीं है क्योंकि अधिसंख्य राज्य इसके लिए तैयार ही नहीं थे मगर इससे यह जरूर साबित होता है कि राज्य सरकारों की समग्र विकास के बारे में कितनी अधकचरी समझ है। इन्हें पेट्रोल अपनी आय बढ़ाने का सबसे सरल रास्ता दिखाई पड़ता है जिसका मतलब यह निकलता है कि इनके पास अपने प्रदेश के लोगों के विकास की कोई योजना नहीं है और नया औद्योगिक विकास करने की इनकी इच्छा शक्ति मृतप्रायः है लेकिन एक और सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसका सम्बन्ध केन्द्रीय सरकार से है। भारत अपने कुल बजट की एक तिहाई धनराशि का कच्चा तेल आयात करता है।
इसमें उसकी विदेशी मुद्रा खर्च होती है। अतः वह देश किस प्रकार तरक्की कर सकता है जिसका एक तिहाई धन केवल तेल आयात में ही खर्च हो जाता हो ? यह सवाल मनमोहन सरकार के समय भी था और आज भी जस का तस बना हुआ है। सरकार तेल पर लगाये गये राजस्व की उगाही भारी राशि खर्च करने के बाद ही करती है मगर ये बड़े सवाल हैं जिनका हल यहां नहीं खोजा जा सकता, फिलहाल तो सवाल इतना सा है कि क्यों उस पेट्रोल को ७७ रुपए के भाव पर बेचा जा रहा है जिसकी लागत २५ रुपए से भी कम पड़ती है। मैं पेट्रोल पर सब्सिडी देने का विरोधी रहा हूं क्योंकि यह परोक्ष रूप से कार निर्माताओं को मिलती थी। कच्चे तेल को विश्व बाजार भावों से जोड़कर हमने गलत काम नहीं किया है बल्कि इसके भाव कम्पनियों के ऊपर छोड़ कर हमने भ्रष्टाचार का रास्ता बना दिया है।