कर्नाटक विधानसभा के चुनाव प्रचार का शोर बन्द होने के बाद आज इस राज्य की 224 सीटों पर मतदान होगा। कर्नाटक में मतदान का औसत प्रायः सामान्य ही रहता आया है मगर इसके शहरी इलाकों खासकर बेंगलुरु में मतदान का प्रतिशत पचास के आस-पास ही रहता आया है। इस बार यह अपेक्षा की जा रही है कि मतदान का औसत बढ़ेगा क्योंकि इस शहर को मिला कर करीब कुल सीटें 24 बैठती हैं और इस पूरे इलाके में भाजपा व कांग्रेस की तरफ से जम कर प्रचार किया गया है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने जहां 26 कि.मी. लम्बा रोड शो किया वहीं कांग्रेस की तरफ से श्रीमती प्रियंका गांधी ने भी रोड शो किया और श्री राहुल गांधी ने भी जनता के बीच जाकर जन सम्पर्क किया। परन्तु मूल सवाल पूरे कर्नाटक में मतदान का है और अर्ध शहरी व ग्रामीण इलाकों में इस राज्य में बहुत अच्छा मतदान होता आया है। चुनाव आयोग का जोर प्रायः मतदान के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए रहता है और इसके लिए वह विभिन्न प्रचार माध्यमों का सहारा लेकर अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराता आया है। मगर इस बार चुनाव आयोग की चर्चा अन्य विवादों की वजह से ज्यादा हो रही है और कांग्रेस व भाजपा दोनों ही एक-दूसरे की शिकायतें चुनाव आयोग को भेज रही हैं।
चुनाव के समय न्यायिक संस्थाएं पूरी तस्वीर से स्वयं को अलग रखती हैं जिससे स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव कराने की जिम्मेदार संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग अपना कार्य पूरी निर्भयता के साथ न्यायपूर्ण ढंग से कर सके। संविधान मंे इसी वजह से चुनाव आयोग को न्यायिक अधिकार भी दिये गये हैं। राज्य में इस बार जिस जोशीले व जुझारूपन से प्रचार किया गया है उससे कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षकों को राजनीति की वे मर्यादाएं टूटती नजर आ रही हैं जिनका पालन करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक दल प्रतिबद्ध होता है। चुनावों में व्यक्तिगत आलोचना से लेकर राजनीतिक विचार मूलक व सैद्धान्तिक आलोचनाएं होती हैं और प्रत्येक राजनीतिक दल के प्रत्याशी को इसका अधिकार भी होता है मगर इसमें भी मर्यादा का ध्यान इस प्रकार रखा जाता है कि संविधान के किसी निर्देश का उल्लंघन न होने पाये। यह देखने की जिम्मेदारी केवल चुनाव आयोग की ही होती है। इसीलिए इस बार चुनाव आयोग के पास शिकायतों की संख्या कुछ ज्यादा लगती है। अगर हम गौर से देखें तो कर्नाटक के चुनाव हमें प्रचार के तरीकों से हम कुछ नतीजे निकाल सकते हैं। सबसे प्रमुख नतीजा यह है कि राजनीतिक विमर्श का विस्तार कुछ इस प्रकार हो रहा है जिसमें जीवन के व्यक्तिगत व सार्वजनिक मुद्दे बुरी तरह गड्ड-मड्ड हो रहे हैं।
विकास से लेकर बात निजी आस्था तक की जरूर हो रही है मगर वे मुद्दे गायब हैं जिनका सीधा सम्बन्ध सामाजिक विकास से होता है। कौन नहीं जानता कि कर्नाटक का देश के बैंकिंग उद्योग के विकास में आजादी के बाद से बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस राज्य के वित्तीय उद्यमियों ने देश को बहुत सारे बैंक दिये हैं। इसके साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी इस राज्य का विशेष योगदान रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में इस राज्य ने पूरे देश को दिशा दिखाई है। वहीं सांस्कृतिक विशेष रूप से संगीत के क्षेत्र में इस राज्य ने महान विभूतियों को जन्म दिया है। दक्षिण का कर्नाटक संगीत स्वयं में एक सम्पूर्ण स्वर धारा है। पं.भीमसेन जोशी व मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे शास्त्रीय गायक इसी धरती से आये हैं परन्तु उनकी विशेषता यह रही कि उन्होंने अपने गायन से दक्षिण को उत्तर से जोड़ा। पं. भीमसेन जोशी किराना घराने (उत्तर प्रदेश) के गायक कहलाये औऱ मल्लिकार्जुन मंसूर जयपुर घराने (राजस्थान) के। हमें पूरे चुनाव प्रचार में कर्नाटक की ये विशेषताएं सुनने को नहीं मिली। चुनाव साधारण मतदाता के लिए राजनीतिक पाठशालाएं होती हैं। इन पाठशालाओं में प्रत्येक राज्य की विशिष्ट पहचान के साथ उसे राष्ट्रीय फलक पर उतारने का कार्य राजनीतिज्ञ करते आये हैं।
लोकतन्त्र में प्रत्येक राजनीतिक दल का लक्ष्य विजय जरूर होता है मगर इस व्यवस्था की पहली शर्त यह होती है कि जनता को भी राजनीतिक रूप से सजग बनाया जाये क्योंकि केवल जागरूक जनता ही लोकतन्त्र की रक्षा कर सकती है। लेकिन अनौपचारिक तरीके से जिस प्रकार चुनावों पर धन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है उससे स्थिति एक दिन बेहद चिन्तनीय हो सकती है। चुनाव जिस प्रकार से लगातार खर्चीले होते जा रहे हैं उन्हें देख कर तो यही कहा जा सकता है कि आने वाले समय में कोई चिन्तनशील व सजग और ईमानदार व्यक्ति चुनावों में खड़ा होने की हिम्मत ही नहीं कर सकता। जबकि भारत का संविधान कहता है कि देश के हर वैध नागरिक को चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता है। खर्चीले चुनावों ने तो लोकतन्त्र को धन तन्त्र की दासी बना कर रख दिया है। इसका असर देश की नई पीढ़ी की राजनीतिक चेतना पर पड़े बिना नहीं रह सकता और वह यह कभी नहीं समझ सकता कि राजनीति में सक्रिय होना उसका भी जन्म सिद्ध अधिकार है। हम शिक्षित वर्ग व शहरी क्षेत्रों में कम मतदान की जो शिकायत करते हैं उसके पीछे यह भी बहुत बड़ा कारण है। मगर यह सोचने का काम राजनीतिक दलों का ही है कि वे इस परिस्थिति को कैसे बदलें और लोकतन्त्र को मजबूत बनाने के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार करने का कदम किस तरह उठायें। 1974 में जब जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन शुरू हुआ था तो चुनाव सुधार उसका प्रमुख एजेंडा था मगर उसके बाद न जाने कितनी सरकारें बदली मगर सभी ने इसे ताले में बन्द रखना ही अपने वजूद के लिए सुरक्षित समझा।