लोकतन्त्र का यह अन्तर्निहित सिद्धान्त होता है कि जब देश में कोहराम मचा हो तो संसद शान्त नहीं रह सकती क्योंकि यह उसी देश के रहने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। संसद के दोनों सदनों की नियमावली को बनाने वाले हमारे दूरदर्शी संसदीय विशेषज्ञ पुरखों ने यह व्यवस्था कुछ सोच-समझ कर ही की होगी कि जब किसी विषय पर देश उबल रहा हो तो उसका ‘अक्स’ संसद पर पड़े बिना नहीं रह सकता और ऐसे माहौल में संसद की कार्यवाही अपने पुराने ढर्रे पर चलती दिखाई नहीं दे सकती अतः सदनों के नियमों के तहत ही ‘काम रोको’ प्रस्ताव रखने का अधिकार उन्होंने विपक्ष के सांसदों को दिया। हमने पूर्व की सरकारों में देखा है कि विपक्ष के सांसद अपने इस अधिकार का प्रयोग अक्सर करते रहे हैं और संसद में सभी सामान्य काम रोक कर चर्चा भी होती रही है। मगर प्रस्ताव का स्वीकार करना या न करना पूर्णतः लोकसभा के अध्य़क्ष के विवेक पर निर्भर करता है और उनके निर्णय को चुनौती नहीं दी जा सकती है।
इसकी एक वजह यह भी है कि लोकसभा के अध्यक्ष का चुनाव सदन में विभिन्न राजनैतिक दलों के सदस्यों के होने और उनके सत्ता व विपक्ष में बंटे होने के बावजूद प्रायः सर्वसम्मति से ही होता है। वह प्रत्येक सांसद के अधिकारों के संरक्षक होते हैं और सदन में उनकी स्वतन्त्र सत्ता भी होती है। मौजूदा संसद का ‘सावन’ सत्र चल रहा है जो कुल 17 बैठकों वाला होगा। इनमें से इसकी तीन बैठकें हो चुकी हैं जो पूर्णतः निर्रथक गई हैं। इसकी वजह यह है कि पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में जिस प्रकार मानवता को रौंदने का नंगा नाच हुआ है और यह राज्य अपने नागरिकों के दो जनजातीय समूहों के बीच खूनी संघर्ष चलने की वजह से जिस गृह युद्ध में फंस कर महिलाओं को निशाने पर ले रहा है उससे पूरा भारत हिल उठा है और इसके नागरिकों को लग रहा है कि मणिपुर में संवैधानिक ढांचा पूरी तरह समाप्त हो चुका है। मणिपुर की इस जनजातीय दुश्मनी की आग अब पूर्वोत्तर के अन्य पड़ोसी राज्यों तक भी पहुंचने लगी है और भारत के इस छोटे से राज्य में हो रही हिंसा और मानवीय अधिकारों के हनन पर दुनिया के अन्य लोकतान्त्रिक व विकसित देशों में भी चर्चा होने लगी है। इसे देखते हुए संसद में मौजूद विपक्षी दल यदि संसद के दोनों सदनों में सभी सामान्य कामकाज रोक कर मणिपुर पर चर्चा कराने की मांग कर रहे हैं तो कुछ ‘ज्यादा’ नहीं मांग रहे हैं। संभवतः इसी वजह से आज लोकसभा में स्वयं केन्द्रीय गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने आकर कहा कि वह मणिपुर के मुद्दे पर चर्चा कराने की हिमायत करते हैं जिससे इस राज्य की स्थिति के बारे में देशवासी अवगत हो सकें।
मणिपुर का मामला मूल रूप से श्री शाह के मन्त्रालय के अन्तर्गत ही आता है अतः अब यह लोकसभा अध्य़क्ष के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस नियम के तहत चर्चा कराते हैं। वह ‘विक्रमादित्य’ के आसन पर विराजमान हैं और प्रत्येक सांसद के अधिकारों के संरक्षक भी हैं अतः उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए पूरे विषय की गंभीरता को समझते हुए न्यायोचित निर्णय लेना होगा। परन्तु विपक्ष यह भी मांग कर रहा है कि मणिपुर के मामले में स्वयं प्रधानमन्त्री पहले संसद के भीतर बयान दें। विपक्ष तर्क दे रहा है कि संसद का सत्र शुरू होने वाले दिन प्रधानमन्त्री ने संसद से बाहर मणिपुर के बारे में बयान दिया जबकि वह ऐसा संसद के भीतर भी कर सकते थे जिससे सांसदों और संसद का सम्मान बढ़ता। लेकिन संसद के बाहर प्रधानमन्त्री का दिया गया बयान कोई नीतिगत बयान भी नहीं था। उन्होंने महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में चिन्ता व्यक्त की थी और मणिपुर के साथ राजस्थान व छत्तीसगढ़ राज्यों में भी महिला उत्पीड़न की घटनाओं का जिक्र किया था और आश्वासन दिया था कि दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जायेगी। हम जानते हैं कि मणिपुर की घटनाओं का देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वतः संज्ञान लिया है और निर्देश दिया है कि सरकारें कार्रवाई करती नजर आयें।
अतः संसद का यह दायित्व बनता है कि वह गतिरोध को समाप्त करके चर्चा करने के मुकाम तक पहुंचे और देशवासियों के साथ पूरी दुनिया को भी सन्देश दे कि भारत जैसे पुरातन सभ्यता वाले देश में किसी भी व्यक्ति या महिला के साथ इंसानियत को शर्मसार करने वाला पाशविक व्यवहार सहन नहीं किया जायेगा और प्रत्येक नागरिक के मानवीय अधिकारों का संरक्षण सरकार पूरे दम-खम के साथ करेंगी। मगर इसके साथ हमें यह भी देखना होगा कि मणिपुर के मामले पर उत्तेजित विपक्षी सांसदों के साथ भी स्थापित संसदीय परंपराओं के उच्च स्तर को ध्यान में रखते ही व्यवहार किया जाये। राज्यसभा से आम आदमी पार्टी के सांसद श्री संजय सिंह का शेष सत्र के लिए निष्कासन किया जाना संसद में व्याप्त उत्तेजित माहौल को देखते हुए दोनों पक्षों सत्ता व विपक्ष के बाच दूरियां और बढ़ायेगा। इसी राज्यसभा में साठ व सत्तर के दशक में जब डा. लोहिया की पार्टी संसोपा के सदस्य स्व. राजनारायण बैठा करते थे तो विरोध प्रदर्शन के लिए वह प्रायः सभापति के आसन के सामने आसन्दी में आकर धरने पर बैठ जाया करते थे। उन्हें कई बार मार्शलों की मार्फत सदन से बाहर भी कराया गया मगर ऐसा मौका कभी नहीं आया कि पूरे सत्र के लिए ही उन्हें सदन से बाहर कर दिया गया हो। ऐसा ही कई बार लालू जी ने वाजपेयी सरकार के दौरान राज्यसभा में आने के बाद भी किया औऱ वह सदन में ही धरने पर बैठे। लोकतन्त्र परस्पर सम्मान के सौहार्द भाव से चलता है। विपक्ष अपना धर्म निभायेगा और सत्तापक्ष अपना बड़प्पन दिखायेगा। एेसा डा. लोहिया ही कहा करते थे। यदि यह लोकाचार न होता तो डा. अम्बेडकर क्यों कह कर जाते कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है। अतः गतिरोध टूटना चाहिए और संसद चलनी चाहिए।