प. बंगाल में पंचायती चुनाव आज सम्पन्न हो गये हैं। इन चुनावों की घोषणा के बाद राज्य के कुछ जिलों में जिस प्रकार हिंसा हुई उसे लेकर राज्य की तृणमूल कांग्रेस सरकार प्रतियोगी राजनीति के निशाने पर भी रही और विपक्षी पार्टी भाजपा मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी को इसके लिए जिम्मेदार भी बताती रही। वैसे हकीकत यह है कि प. बंगाल में चुनावों के दौर में हिंसा होना इसकी राजनैतिक संस्कृति का हिस्सा तब बना जब राज्य में वामपंथी सरकारों का शासन हुआ करता था। ममता दीदी की असफलता यह रही कि वह इस संस्कृति को समाप्त नहीं कर सकीं। पिछले 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद से राज्य में भाजपा प्रमुख विपक्षी दल बन चुकी है और वामपंथी पार्टियां हाशिये पर चली गई हैं परन्तु दुर्भाग्य से हिंसा हाशिये पर नहीं जा सकी । इतना अन्तर जरूर हुआ कि राजनैतिक किरदार बदल गये। पहले जहां कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस पार्टियों के बीच हिंसा के आरोप-प्रत्यारोप लगते थे अब वे आरोप भाजपा व तृणमूल कांग्रेस के बीच लगने लगे हैं।
2019 में लोकसभा में राज्य की कुल 42 सीटों में से भाजपा 18 सीटें जीतने कामयाब रही थी। इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 294 सीटों में से 70 के लगभग सीटें जीतीं। इस प्रकार यह पार्टी अब राज्य की अाधिकारिक विपक्षी पार्टी मानी जाती है लेकिन यह भी सत्य है कि भाजपा भी राज्य की हिंसा की राजनैतिक संस्कृति में उलझ कर रह गई है जिसकी वजह से सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी की ओर से भी उसके कार्यकर्ताओं पर हिंसा फैलाने के आरोप लगाये जाते हैं। जब से राज्य में पंचायत चुनावों की घोषणा हुई है तब से अब तक कुल 19 व्यक्ति इस हिंसा का शिकार हो चुके हैं। जाहिर है कि सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की सरकार को ही इस हिंसा की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी । अतः यह बेवजह नहीं कहा जा सकता कि कोलकाता उच्च न्यायालय ने चुनावी हिंसा से सम्बन्धित एक याचिका की सुनवाई करते हुए आदेश दिया कि राज्य में पंचायत चुनावों के प्रबन्धन के लिए केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात किये जायें। अतः आज के चुनाव केन्द्रीय बलों की निगरानी में ही हुए मगर इसके बावजूद कूट बिहार जिले के एक मतदान केन्द्र पर बैलेट पेपरों को नष्ट कर दिया गया और हिंसा भी हुई और 24 दक्षिण परगना जिले से भी हिंसा की घटनाओं की खबरें आयीं। तृणमूल कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने आरोप लगाया कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भाजपा के लोगों ने मारा-पीटा।
सवाल पैदा हो सकता है कि केन्द्रीय बलों के साये में भी अगर हिंसा नहीं रुक पा रही है तो इससे आगे क्या हो सकता है? वास्तविकता यह है कि चुनाव लोकतन्त्र का शृंगार होते हैं। पूरी दुनिया में केवल अमेरिका और भारत ही एेसे दो देश हैं जहां हर साल कोई न कोई चुनाव होते रहते हैं। ये दोनों देश ही पूरी दुनिया में लोकतन्त्र के अलम्बरदार भी कहलाये जाते हैं। भारत में ग्राम पंचायत के चुनाव लोकतन्त्र की पहली सीढ़ी होते हैं। इनमें ही यदि हिंसा का बोलबाला हो जाता है तो फिर आगे की कहानी समझी जा सकती है। इसलिए प. बंगाल के राज्यपाल श्री सी.वी. आन्नद बोस का कल ही यह कहना नाजायज नहीं है कि पंचायत चुनाव कराने की जिम्मेदारी राज्य चुनाव आयुक्त श्री राजीव सिन्हा की थी मगर उन्होंने अपने कर्त्तव्यों का न्यायपरक तरीके से पालन नहीं किया और वह शान्तिपूर्ण चुनावी माहौल देने में असमर्थ रहे। राज्यपाल ने कल एक प्रेस कान्फ्रेंस करके यहां तक कह दिया कि चुनाव आयुक्त को मतदान के दिन आम जनता के जीवन के संरक्षण की गारंटी देनी चाहिए क्योंकि चुनाव घोषित होने के बाद राज्य की शासन व्यवस्था के वह ही संरक्षक बन गये थे और पुलिस विभाग भी उनके निर्देशों का मुन्तजिर बन गया था। संवैधानिक रूप से राज्यपाल का यह कदम कहां तक उचित माना जा सकता है, इस बारे में राजनैतिक राय अलग-अलग हो सकती है मगर इतना तो सही है कि चुनाव आयुक्त ही पंचायती चुनाव कराने का जिम्मेदार होता है।
राजनीति की छाया इसमें इस वजह से ढूंढी जा सकती है क्योंकि राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्य की चुनी हुई सरकार ही करती है बेशक उसे शपथ राज्यपाल ही दिलाते हैं। पंचायत चुनाव प्रायः राज्य पुलिस की छत्रछाया में ही होते हैं और प. बंगाल में इससे पूर्व एेसा ही होता रहा है। ममता दी की सरकार के मन्त्री और उनकी पार्टी के नेताओं का आरोप है कि पंचायती चुनावों की पूर्व बेला में छिटपुट हिंसा को जिस तरह बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की कोशिश भाजपा की तरफ से की गई है उससे राज्य के आम लोगों की छवि धूमिल हुई है जबकि बंगाल की जनता पक्की लोकतान्त्रिक है और अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए उसने शान्तिपूर्ण ढंग से संघर्ष भी किया है। असली सवाल यह है कि पंचायतों के चुनाव में हिंसक वारदातें हुईं जिनके लिए कोई न कोई जिम्मेदार तो होगा ही। यह भी तय है कि जिम्मेदार राजनैतिक दल ही हैं जो पंचायतों के चुनावों को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना रहे हैं। इसकी वजह यह है कि अगले साल के शुरू में होने वाले लोकसभा चुनावों का इन्हें ‘ट्रेलर’ माना जा रहा है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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