भारत, ईरान और अफगानिस्तान के लिए 3 दिसम्बर रविवार का दिन काफी महत्वपूर्ण रहा। ईरान के राष्ट्पति हसन रुहानी ने भारत और अफगानिस्तान के वरिष्ठ प्रतिनिधियों की मौजूदगी में चाबहार बंदरगाह के पहले चरण का उद्घाटन कर दिया। भारत के लिए चाबहार बंदरगाह का काफी महत्व है। भारत की लगातार कोशिश है कि वह मध्य एशिया और यूरोप के देशों से आर्थिक तौर पर सीधे जुड़ सके। चाबहार बंदरगाह के जरिये भारत को ईरान तक बेहतर रास्ता मिल गया है। भारत चाबहार बंदरगाह के जरिये रूस, मध्य एशिया और यहां तक कि यूरोप तक पहुंच जाएगा। इससे भारत के अफगानिस्तान और ईरान के बीच व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ेंगे। सबसे अहम बात यह है कि अब पाकिस्तान के कराची बंदरगाह पर व्यापार के लिए निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। इस समय चीन, अमेरिका और जापान दक्षिण सागर में पैठ जमाने की कोशिश कर रहे हैं वहीं भारत, सऊदी अरब जैसे देश अरब सागर और हिन्द महासागर में फैलने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में चाबहार बंदरगाह के माध्यम से भारत का प्रभुत्व मजबूत हो गया है और अब अरब सागर के अहम हिस्से उसके काफी करीब हो गए हैं। चाबहार परियोजना भारत के लिए एक रणनीतिक कारक है।
चीन-पाकिस्तान आर्थिक सम्बन्धों को देखते हुए भारत-ईरान की चाबहार परियोजना को पाकिस्तान ने कभी पसन्द नहीं किया। भारत जब भी किसी पड़ोसी देश या क्षेत्रीय शक्ति से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाता है या रणनीतिक सहयोग करता है तो पाकिस्तान इससे प्रभावित होता है। चाबहार परियोजना के शुरू होते ही पाकिस्तान इस क्षेत्र में अलग-थलग हो जाएगा। अब तक भारत का माल पाकिस्तान के जरिये अफगानिस्तान तक पहुंचता रहा है। इस परियोजना के जरिये भारत मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप तक माल पहुंचा सकता है। वैसे भी ईरान जैसी सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक शक्ति के साथ भारत के अच्छे सम्बन्ध पाकिस्तान को कैसे भा सकते हैं। पाकिस्तान अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी का विरोधी है जबकि भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में बड़ी भूमिका निभा रहा है। ग्वादर परियोजना में जिस तरह की चीन की भूमिका है, वैसी ही भूमिका आर्थिक परिप्रेक्ष्य में भारत की भी है। राजग के सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कूटनीतिक स्तर पर ऐसा बहुत कुछ किया है जिससे पाकिस्तान-चीन गठजोड़ को जबर्दस्त आघात लगा है। भारत ने चाबहार बंदरगाह में करीब 10 करोड़ डॉलर का निवेश किया है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 50 करोड़ डॉलर के निवेश का वादा किया हुआ है। इस परियोजना के माध्यम से भारत ने ग्वादर परियोजना से रणनीतिक बढ़त हासिल कर ली है। अंतर्राष्टय प्रतिबंध हटने के बाद बन रहे नए ईरान से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बंदरगाह निर्माण का समझौता एक बुनियाद है। भारत, ईरान और अफगानिस्तान मानते हैं कि इस क्षेत्र में जो कुछ भी हो रहा है उसमें पाक सेना और आईएसआई की भूमिका है।
अफगानिस्तान में आतंकवाद को पाक का पूरी तरह समर्थन प्राप्त है। पाकिस्तान ने भारत को ओआईसी या फिर अरब जगत के जरिये अलग-थलग करने की लगातार कोशिशें की हैं लेकिन भारत-ईरान के सम्बन्धों में मजबूती से पाकिस्तान खुद ही अलग-अलग पड़ सकता है। चाबहार समझौता कर भारत ने पाकिस्तान और चीन को माकूल जवाब दिया है। एक समय पर अफगानिस्तान दो बड़े साम्राज्यों की दिलचस्पी का केन्द्र था। इस भूभाग का लाभ उठाने के लिए उपनिवेशवादी ब्रिटेन और जार के नेतृत्व में रूस इसका लाभ उठाना चाहते थे। बाद में विरासत के जरिये अमेरिका बनाम सोवियत संघ की जोर-आजमाईश का अखाड़ा बना था। फिर अफगानिस्तान में मुजाहिदीन पनपे और बाद में यह तालिबान का परीक्षण स्थल बना रहा और अन्त में यह चीन-पाक के गठजोड़ की धुरी बन गया।
चीन ने पाकिस्तान में आर्थिक गलियारा बना दिया लेकिन पाक का अवाम ही इस गलियारे का विरोध कर रहा है। इस आर्थिक गलियारे की शुरूआत चीन के काशी से लेकर पाक के ब्लूचिस्तान के अरब सागर के ग्वादर पोर्ट तक है। चाबहार परियोजना पाक-चीन आर्थिक गलियारे का जवाब है। इस परियोजना के पूरी तरह से विकसित होने पर अफगानिस्तान को ईरान के जरिये एक वैकल्पिक बंदरगाह, बुनियादी संरचनाएं और सम्पर्क का रास्ता मिल जाएगा। अमेरिका ने इस परियोजना में बहुत बाधाएं खड़ी कीं लेकिन भारत अपने हितों की रक्षा करना जानता है। विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज बिना किसी पूर्व घोषणा के रूस से लौटते हुए तेहरान पहुंचीं और ईरान के विदेश मंत्री जावेद जरीफ के साथ इस परियोजना पर बातचीत की। हाल ही में कोडला बंदरगाह से गेहूं से लदे जहाज को चाबहार बंदरगाह के रास्ते अफगानिस्तान भेजा गया था। अब भारत को अपना सामान पहुंचाने के लिए पाकिस्तान के मार्ग की जरूरत ही नहीं रही। चाबहार से ग्वादर की दूरी महज 60 मील है। भारत, ईरान, अफगानिस्तान का त्रिकोण भविष्य में बहुत शक्तिशाली बनकर उभरेगा।