लोकतन्त्र में सत्ता में बैठी हुई राजनीतिक पार्टियों और विपक्ष में खड़े हुए सियासी दलों के नजरिये में इस प्रकार फर्क होता है कि दोनों अपने-अपने रास्ते को एक-दूसरे के मुकाबले ज्यादा जन-हितकारी व राष्ट्र हित में मानते हैं। यह पूरी तरह सिद्धांतोंं और विचारधाराओं का युद्ध होता है इसमें व्यक्तिगत हमले बौद्धिक स्तर पर वैचारिक खोखलेपन का सबूत माने जाते हैं। हालांकि इनका असर कभी बहुत तीखा भी हो सकता है।
इस मायने में दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित कांग्रेस पार्टी की ‘भारत बचाओ रैली’ को वैचारिक युद्ध का आह्वान करने वाली अपील माना जा सकता है। जबकि इससे एक दिन पूर्व लोकसभा में इसी पार्टी के नेता राहुल गांधी के खिलाफ जिस तरह का हंगामा किया गया वह कमोबेश व्यक्तिगत आक्रमण की श्रेणी में आता है। झारखंड के चुनाव प्रचार में राहुल गांधी ने जिस तरह मेक इन इंडिया का रेप इन इंडिया का अभिप्राय रूपान्तरण किया वह कर्कषता की ध्वनि का रूपमान है किन्तु यह उनकी वर्णनात्मक शैली का कटुपन है जिसका राजनीति में प्रयोग करना प्रायः स्वयं को ही रक्षात्मक घेरे में खड़ा कर देता है।
अतः चतुर राजनीतिज्ञ कटु सत्य को सर्वदा लोकपीड़ा का भाव देकर रहस्यात्मक या व्यंग्यात्मक शैली में वर्णन करते हैं। इस मामले में स्वतन्त्र पार्टी के नेता श्री पीलू मोदी व भाजपा के स्तम्भ अटल बिहारी वाजपेयी का कोई मुकाबला नहीं था। संयोग से ये दोनों नेता 1974 में स्व. इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान में दिल्ली के चान्दनी चौक में आयोजित एक जनसभा में एक ही मंच पर थे।
इस सभा में श्री पीलू मोदी ने इंदिरा जी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे की हवा एक ही शब्द में जिस तरह निकाली उसे अटल बिहारी वाजपेयी ने पकड़ कर राष्ट्रव्यापी बना दिया। पीलू मोदी पारसी थे और हिन्दी बहुत टूटी-फूटी बोलते थे परन्तु देश के माने हुए वास्तुकार( आर्किटेक्ट) थे। उन्होंने इस सभा में कहा कि ‘इन्दिरा गांधी बोला था कि गरीबी हटाओ, लेकिन गरीब हट गया हम उनको बोलता है हमारा गरीबी वापस करो’ उनके इस कथन पर पूरी जनसभा खिलखिला कर हंस पड़ी और सबसे ज्यादा मंच पर बैठे अटल बिहारी वाजपेयी हंसे।
परन्तु इसके बाद वाजपेयी जी ने इस कथन को पूरे भारत में फैला दिया। लेकिन इससे भी पहले जब स्वयं श्री वाजपेयी 1968 में जनसंघ के अध्यक्ष बने तो 1969 में मोरक्को के शहर रब्बात में पहला इस्लामी देशों का शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें इन्दिरा जी ने अपने वरिष्ठ मन्त्री श्री फखरुद्दीन अली अहमद को भाग लेने भेजा परन्तु उस सम्मेलन में उन्हें भाग लेने की इजाजत नहीं दी गई। जिस पर उस समय की विरोधी पार्टी जनसंघ ने भयंकर तूफान खड़ा कर दिया। इसके विरोध में जगह-जगह जनसभाएं आयोजित कीं।
वाजपेयी जी ने इसे ‘किक इंडिया’ के उपमान में व्यंग्यात्मक शैली में पेश करके आम जनता की सहानुभूति अपनी पार्टी के लिए बटोरने की कोशिश की। उस समय पांचजन्य अखबार में एक कार्टून भी छपा जिसमें रब्बात सम्मेलन से फखरूद्दीन अली अहमद को लात मार कर बाहर करते हुए व्यंग्य किया गया था और उस पर लिखा हुआ था ‘किक इंडिया’ दर असल यह 1942 के अंग्रेजों के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के छेड़े गये ‘क्विट इंडिया’ या भारत छोड़ो आन्दोलन का व्यति उपमान था। कहने का मतलब यह है कि चतुर राजनीतिज्ञ अपने विरोधी को मीठी मार इस तरह देता है कि उसका असर जनता के दिल में तीर की तरह महसूस हो।
दुखद यह है कि राजनीति से यह फन गायब हो रहा है और कर्कषता की शैली पनप रही है जिसकी वजह से समाज में असहिष्णुता भी बढ़ रही है। लोकतन्त्र इसका तिरस्कार करता है क्योंकि सत्ता और विपक्ष दोनों ओर के लोगों का चुनाव आम जनता ही करती है जब हम कहते हैं कि लोगों की चुनी हुई सरकार तो उसमें सत्ताधारी दल के खिलाफ वोट देने वाले लोग भी शामिल होते हैं क्योंकि उनकी भूमिका सदैव सरकार को सचेत व लोकोन्मुख बनाये रखने की होती है। अपनी इसी भूमिका का निर्वाह विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक करता है और इस क्रम में सड़कों पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है क्योंकि जनमत से चुनी हुई सरकार को परिमार्जित या बदलते जनमत का आभास करना उसका पहला दायित्व होता है।
इसी वजह से लोकतन्त्र का यह नियम बना हुआ है कि विपक्ष का धर्म है कि वह सरकार का विरोध करे, सरकार की कमियों को उजागर करे और यदि संभव हो तो सरकार को गिरा दे। किन्तु यह सब संसदीय नियमों व सिद्धान्तों के अनुसार ही होता है जहां सत्ता व विपक्ष के सांसदों की संख्या मुख्य आधार होती है। कांग्रेस की रैली में श्रीमती सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी व राहुल गांधी ही मुख्य वक्ता रहे। इसे लेकर भाजपा को भी आलोचना की छूट लोकतन्त्र देता है और वह कह सकती है कि कांग्रेस एक परिवार का निजी मामला हो चुकी है।
फिर भी इसका सरकारी नीतियों के विरोध से सीधा सम्बन्ध नहीं है। कांग्रेस सिद्धान्ततः नागरिकता संशोधन विधेयक को संविधान की आत्मा के विरुद्ध मानती है जिसे श्रीमती सोनिया गांधी ने बखूबी बताया भी। इस मुद्दे पर कांग्रेस विचारात्मक लड़ाई लड़ना चाहती है जिसकी लोकतन्त्र में उसे छूट है राहुल गांधी को भी यह पूरी स्वतन्त्रता है कि वह सरकार की किसी भी नीति की आलोचना पूरा दम लगा कर करें और लोगों को समझा सकते हैं तो समझायें कि सरकार ने जनहित को दरकिनार करके अपनी नीतियां बनाई हैं जिनका विरोध जनता को करना चाहिए।
जनता को भी अधिकार है कि वह अपनी मंशा पूर्ण अहिंसक तरीके से संविधान की सीमाओं में रहते हुए करे। दूसरी तरफ सरकार को भी अधिकार है कि वह किसी भी व्यक्ति को संविधान की सीमाओं से बाहर न जाने दें और हर हाल में व्यवस्था (पब्लिक आर्डर) बनाये रखें। शान्तिपूर्ण आन्दोलन लोकतान्त्रिक जन अधिकार है जिसका सहारा लेकर ही भाजपा आज देश की सत्तारूढ़ पार्टी बनी है। सवाल सिद्धान्तों का तब भी था और आज भी है। विपक्ष अपना धर्म निभायेगा और सरकार अपना क्योंकि दोनों ही जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
यह देश नेहरू का भी है और डा. लोहिया का भी, सी.एम. अन्नादुरै का भी है और चौधरी चरण सिंह का भी। सभी ने लोकतन्त्र को मजबूत बनाया है और आम जनता से ताकत लेकर इसका नव निर्माण किया है। यह बात आज के राजनीतिक माहौल पर भी अक्षरशः लागू होती है, फर्क सिर्फ इतना है कि अब राजनीति के तौर-तरीके बदल गये हैं मगर संविधान हमारा तब भी सर्वोच्च था और आज भी है।