विपक्षी क्षेत्रीय दल और कांग्रेस - Punjab Kesari
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विपक्षी क्षेत्रीय दल और कांग्रेस

आगामी 23 जून को पटना में देश के प्रमुख विपक्षी दलों की जो बैठक हो रही है उसमें

आगामी 23 जून को पटना में देश के प्रमुख विपक्षी दलों की जो बैठक हो रही है उसमें केवल कांग्रेस ही अखिल भारतीय स्तर की पार्टी होगी और बाकी सभी क्षेत्रीय दल होंगे। यह बैठक आगमी लोकसभा के राष्ट्रीय चुनावों को देखते हुए की जा रही है जिससे केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का चुनावों में प्रभावी तरीके से मुकाबला किया जा सके। इस सन्दर्भ में हमें राष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टि से करना होगा और फिर सोचना होगा कि आज की परिस्थितियों में भाजपा से लोहा लेने के लिए ‘क्षेत्रीय’ दलों को कांग्रेस की जरूरत है या ‘कांग्रेस’ को क्षेत्रीय दलों की जरूरत है। देश की सबसे बड़ी चुनी हुई पंचायत ‘लोकसभा’ में भाजपा के बाद कांग्रेस की ही सर्वाधिक 53 सीटें हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में भी भाजपा के बाद कांग्रेस पार्टी को ही 20 प्रतिशत के लगभग मतदाताओं ने वोट दिये थे। ये आंकड़े अखिल भारतीय स्तर के हैं। राज्यवार आंकड़ों में किसी-किसी राज्य में बेशक वहां के क्षेत्रीय दल कांग्रेस से आगे रहे हों। मगर उनकी उपस्थिति अपने सीमित राज्य में ही थी। क्षेत्रीय दलों को सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि लोकसभा चुनाव किसी राज्य के मुद्दों या समस्याओं पर नहीं होंगे बल्कि पूरे राष्ट्र के मुद्दों पर होंगे। 
जाहिर तौर पर किसी भी क्षेत्रीय दल में यह वैचारिक सामर्थ्य नहीं है कि वह देश पर शासन करने वाली भाजपा के खड़े किये जाने वाले किसी राष्ट्रीय विमर्श का जवाब अपने क्षेत्रीय विमर्श से दे सके। यह कार्य केवल राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ही कर सकती है। अतः कुछ क्षेत्रीय दलों का यह मन्तव्य चुनावों से पहले ही अपनी हार के इन्तजाम करने वाला है कि जिस राज्य में जो क्षेत्रीय दल बलशाली हो उसमें उसी के नेतृत्व में विपक्षी गठबन्धन एकजुट होकर भाजपा के विरुद्ध चुनाव लड़े। यदि राष्ट्रीय चुनावों में हर राज्य में भाजपा का मुख्य विरोधी बदल जायेगा तो मुकाबला क्या खाक होगा? चुनावों से पूर्व विपक्षी दल बेशक अपने किसी नेता को प्रधानमन्त्री पद के प्रत्याशी के रूप मे पेश न करें मगर उन्हें उस पार्टी की घोषणा तो करनी ही पड़ेगी जिसकी अगुवाई में वे भाजपा के राष्ट्रीय कद को चुनौती देंगे। संसदीय चुनाव प्रणाली में जनता लोकसभा के 543 सदस्यों का चुनाव करती है। इनमें से कोई भी प्रधानमन्त्री बन सकता है। बहुमत में जो भी दल आता है उसके चुने हुए सांसद अपने नेता का चुनाव करते हैं और फिर वही प्रधानमन्त्री होता है। 
भारत की प्रधानमन्त्री चुनने और सरकार बनाने की संवैधानिक प्रक्रिया यही है। मगर तमिलनाडु को छोड़ शेष भारत के क्षेत्रीय दल इस हकीकत से मुंह चुरा रहे हैं कि पूरे भारत के लोग राष्ट्रीय चुनावों में भाजपा के मुकाबले किसी वैकल्पिक राष्ट्रीय दल को ही देना चाहते हैं । उनकी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को क्षेत्रीय दल किसी कीमत पर पूरा नहीं कर सकते। तमिलनाडु का मामला बिल्कुल अलग है और इसके एेतिहासिक कारण हैं। द्रविड़ उप-राष्ट्रीयता का मुद्दा अग्रेजों के शासनकाल से लेकर आजादी मिलने तक इतना व्यग्र रहा है कि इस राज्य में जस्टिस पार्टी से लेकर द्रविड़ कषगम व द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम और बाद में अन्ना दविड़ मुन्नेत्र कषगम जैसे क्षेत्रीय दलों ने कभी इस उप राष्ट्रीयता को सुप्त नहीं होने दिया। यही वजह है कि 1967 के बाद से इस राज्य में कभी भी कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी की कमर सीधी नहीं हो पाई। जिस वजह से स्वयं कांग्रेस ने ही यहां की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी द्रमुक के साथ गठबन्धन करने के लिए हाथ बढ़ाया जिससे संघीय राष्ट्रीय एकता के ढांचे को हर हालत में मजबूत रखा जा सके। मगर शेष भारत में यह स्थिति नहीं है और इसके विभिन्न राज्यों के जितने भी क्षेत्रीय दल हैं वे सब कांग्रेस के जनाधार की ताकत में सेंध लगा कर ही स्वयं में शक्तिशाली हुए हैं। पिछले कुछ समय से कांग्रेस पार्टी की तरफ से राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह का विमर्श भाजपा के विरुद्ध तैयार किया जा रहा है, विशेष रूप से श्री राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ दक्षिण से उत्तर तक निकाल कर जो जमीनी हलचल पैदा की है उससे क्षेत्रीय दलों में ‘फुस-फुसाहट’ होनी स्वाभाविक थी। जो लोग यह सोचते हैं कि राहुल गांधी की यात्रा किसी एक व्यक्ति की यात्रा थी वे भारत की राजनीति को कितना समझते हैं, ये तो वही जानें मगर भारत के लोगों ने इसे जिस तरीके से लिया वह यह था कि यात्रा राहुल गांधी की नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी और उसकी पूरी सदी की विरासत की हो रही थी। 
राहुल के साथ सड़कों पर कांग्रेस पार्टी व उसकी सरकारों द्वारा पूर्व में किये गये कार्यों की फेहरिस्त भी चल रही थी और लोगों को कांग्रेस के सकल राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय नजरिये की याद भी दिला रही थी। क्षमा कीजिये आज देश में केवल राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पवार को छोड़ कर शेष किसी भी क्षेत्रीय दल के पास न तो कोई राष्ट्रीय नजरिया है और न ही कोई अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि है। इनके पास केवल जातिगत जोड़ का गुणा गणित है जो प्रादेशिक चुनावों में काम आता है। कांग्रेस इस देश की स्वाभाविक जमीनी राजनैतिक पार्टी मानी जाती है जिसकी जड़ें देश के हर राज्य में आज भी किसी न किसी रूप में फैली हुई मिलती हैं। बेशक समय की गति बदल जाने की वजह से इसकी जमीन को खोद कर क्षेत्रीय दलों ने अपने आशियाने बना लिये हों मगर भारत के लोगों के सामने जब भी अखिल भारतीय स्तर पर भाजपा से मुकाबले की बात आती है तो वह कांग्रेस की जड़ों को साफ करने लगता है। इसकी केवल एक ही वजह है कि कांग्रेस के पास अपनी वैकल्पिक राष्ट्रीय दृष्टि है। अतः क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस की जरूरत है न कि कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों की। इस हकीकत को जितना जल्दी क्षेत्रीय दल समझ लेंगे उतना ही उनके अस्तित्व के लिए बेहतर होगा। क्योंकि जमीनी हलचल बता रही है कि आसमां में मौसम का मिजाज हवाओं का रुख तय कर रहा है। 

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