बिहार की उलझती राजनीति - Punjab Kesari
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बिहार की उलझती राजनीति

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बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू ) के नेता श्री नीतीश कुमार के राजनीतिक भविष्य को लेकर अटकलों का जो बाजार गर्म है उसके लिए वह कमोबेश स्वयं ही जिम्मेदार हैं क्योंकि राज्य का मुख्यमन्त्री बने रहने के लिए उन्होंने जिस तरह पिछले साल पलटी मारी थी उससे उनकी छवि बिहारी बोली में ‘छबिया की गाय’ जैसी बन गई है। इसका मतलब यही होता है कि जिस खूंटे पर गऊ को अच्छा चारा मिलता है ‘छबिया’ उसे उसी खूंटे पर बांध कर ‘दूध’ का मजा लेती है मगर बिहार जैसे राजनीतिक रूप से सचेत राज्य के सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि यहां के मतदाता बहुत आसानी से राजनीतिज्ञों की हर चाल की काट निकाल लेते हैं और फिर अपनी चाल से सभी को स्तम्भित कर देते हैं। इसका प्रमाण 2015 के विधानसभा के चुनाव थे जिनमें नीतीश बाबू की पार्टी और लालू जी के राष्ट्रीय दल व कांग्रेस पार्टी में महागठबन्धन बना था और इसने भाजपा को करारी शिकस्त देकर साफ कर दिया था कि राज्य की जनता किसी पार्टी की हवा में नहीं बहती बल्कि वह अपनी खुद की हवा चलाने में समर्थ रहती है।

इन चुनावों के बाद नीतीश बाबू को भविष्य का विपक्षी गठबन्धन का प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी तक बताया गया। बेशक उनका जनाधार लालू जी के जनाधार जितना मजबूत नहीं था मगर उनकी छवि एेसे नेता की थी जो विभिन्न विपक्षी पार्टियों का चेहरा बन सकता था। उनका भाजपा विरोध हालां​िक सैद्धान्तिक नहीं रहा मगर 2012 में जब उन्होंने इस पार्टी के साथ अपना 18 साल पुराना गठबन्धन खत्म किया और 2014 में लोकसभा चुनाव इस पार्टी के विरुद्ध लड़ा तो इसने लगभग सैद्धांतिक स्वरूप ले लिया और इन चुनावों में अपनी पार्टी की हार के बाद उन्होंने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा देकर जिस तरह अपनी पार्टी के ही श्री जीतनराम मांझी को मुख्यमन्त्री बनाया उससे उनकी सिद्धान्तप्रियता का लोहा चमकदार होता गया। श्री मांझी जनता दल (यू) से विद्रोह करके मुख्यमन्त्री बने रहने की कोशिश में जिस तरह नाकामयाब हुए उससे भी नीतीश बाबू की छवि पर असर नहीं पड़ा मगर पिछले साल उन्होंने जिस तरह 24 घंटे के भीतर लालू जी के परिवार पर मुसीबत पड़ने पर पलटी मारी और अपनी महागठबन्धन सरकार को गिराकर भाजपा के समर्थन से पुनः मुख्यमन्त्री पद पाया उससे उनकी छवि ‘पलटू चाचा’ की इस तरह बनी कि अब उन्हें कोई भी प्रमुख विपक्षी दल अपने साथ लेने से घबरा रहा है।

नीतीश बाबू ने कुर्सी के लालच में अपनी ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री शरद यादव के साथ जिस तरह का व्यवहार किया उससे उनकी बची-खुची साख भी मिट्टी में मिल गई। श्री शरद यादव नीतीश कुमार से राजनीति में बहुत वरिष्ठ ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भारत के गांवों की आवाज माने जाते हैं। चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद अखिल भारतीय स्तर पर ग्रामीण राजनीति का शालीन चेहरा कहे जाने वाले श्री यादव को जब संसद में सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार दिया गया था तो यही सिद्ध हुआ था कि भारत की मिट्टी में खेले-बड़े हुए राजनीतिज्ञों में भी बड़े-बड़े अंग्रेजी दां और विदेशों में पढ़े हुए विद्वानों का मुकाबला करने की क्षमता होती है। जनता दल (यू) को श्री शरद यादव ने ही अपने खून-पसीने से सींच कर बड़ा किया था जिसमें नीतीश बाबू व जार्ज फर्नांडीज की समता पार्टी का विलय हुआ था। श्री यादव की छवि कभी भी किसी एक राज्य से बंधी हुई नहीं रही। वह किसी भी उत्तर भारत के राज्य से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाते थे।

उनका नीतीश बाबू के साथ होना ही एक बड़ी राजनीतिक सम्पत्ति समझा जाता था मगर श्री यादव ने नीतीश कुमार के पलटी​ मारने को पूरी तरह सिद्धान्तहीनता बताते हुए जिस प्रकार कड़ा विरोध किया उससे बिहार की राजनीति में नया हड़कम्प मचा और लालू जी व शरद यादव में करीबी बढ़ी। अब शरद यादव ने अपना अलग लोकतान्त्रिक जनता दल बना लिया है। खतरा यह पैदा हो रहा है कि बिहार में नीतीश बाबू के मुख्यमन्त्री रहते ही उनके जनता दल (यू ) से जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं का 2019 के चुनाव आते-आते कहीं भारी पलायन शुरू न हो जाए और नीतीश बाबू की हालत भी जीतन राम मांझी जैसी न हो जाए। इस वजह से नीतीश बाबू अब कांग्रेस के साथ प्रेम की पींगें बढ़ाना चाहते हैं। इसकी असली वजह यह है कि पिछले साल से लेकर अब तक बिहार में जितने भी विधानसभा व लोकसभा उपचुनाव हुए हैं उनमें कमोबेश लालू जी की पार्टी के प्रत्याशी विजयी रहे हैं। इन्हें सिर्फ भाजपा विरोध के मुद्दे पर ही हराया गया। इससे नीतीश बाबू की पार्टी के भीतर भारी घबराहट पैदा होनी शुरू हो गई है जिससे वह विकल्प की तलाश में जुट गए हैं।

बिहार में दलितों के नेता कहे जाने वाले श्री राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भी अब राज्य की ताजा राजनीतिक स्थिति को देखते हुए छटपटा रही है, 2009 के लोकसभा चुनाव में श्री पासवान और लालू जी की पार्टी के बीच चुनावी गठबन्धन हुआ था मगर वह पूरी तरह असफल रहा था लेकिन अब श्री पासवान भाजपा के साथ हैं। भाजपा का साथ छोड़ना अब उनके वश में नहीं है क्योंकि कांग्रेस पार्टी श्री पासवान से पूरी तरह उदासीन हो चुकी है। बिहार की सबसे बड़ी शिफ्त यही रही है कि यह विद्रोही तेवर वाले जमीन के पुख्ता राजनीतिज्ञों को हमेशा ही सिर-आंखों पर बिठाता रहा है। चाहे वह जार्ज फर्नांडीज रहे हों या कभी मधु लिमये। यहां के मतदाता वक्त की नजाकत को देखते हुए क्षेत्रवाद को तिलांजलि देकर लोकतन्त्र के प्रहरियों को अपना सिरमौर चुनते रहे हैं। अतः यह बेवजह ही कहावत प्रचलित नहीं हुई है कि बिहार के मतदाता ‘उड़ती चिड़िया को हल्दी लगाने’ में माहिर होते हैं। अभी जो बिहार की तस्वीर बन रही है उसमें नीतीश कुमार के इसके फ्रेम से बाहर निकलने की आशंका उसी तरह बन रही है जिस तरह 1967 के बाद राज्य के महारथी समझे जाने वाले स्व. महामाया प्रसाद सिन्हा की बनी थी।

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