अविश्वास प्रस्ताव का मन्तव्य - Punjab Kesari
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अविश्वास प्रस्ताव का मन्तव्य

लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को बहस के लिए स्वीकार कर लिया गया है। अब

लोकसभा में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव को बहस के लिए स्वीकार कर लिया गया है। अब इस पर आगामी शुक्रवार को बहस होगी। विपक्षी पार्टियों द्वारा रखे गये इस प्रस्ताव से स्प्ष्ट है कि वे मिलकर सरकार की जवाबतलबी करना चाहते हैं क्योंकि किसी भी दल के पास लोकसभा में अपने दम पर जरूरी सांसदों की 50 से ऊपर संख्या नहीं है। लोकतन्त्र का यह मूल नियम होता है कि सरकार के कामकाज की विपक्ष जमकर समीक्षा करे क्योंकि उसे भी जनता का समर्थन प्राप्त होता है। बेशक उसके पास बहुमत नहीं होता मगर जनता का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार तो होता है। उसके इसी अधिकार की लोकतन्त्र में व्याख्या जिस प्रकार की गई है वह भी संसद के माध्यम से जन अभिव्यक्ति को ही प्रकट करती है। यह व्याख्या यही है कि विपक्ष को सरकार का विरोध करना चाहिए तथा उसके ‘गलत’ कामों के बारे में खुलासा करना चाहिए और यदि संभव हो तो उसे सत्ता से बेदखल कर देना चाहिए (अपोज दि गवर्नमेंट, एक्सपोज इट एंड इफ पासिबिल डिपोज इट )।

जाहिर है यह कार्य संसदीय नियमों के अन्तर्गत ही सदन की मर्यादा को रखते हुए किया जा सकता है। सरकार के गलत कामों से आशय होता है कि विपक्ष उन कामों की खुलकर समालोचना करे जो उसकी दृष्टि में जनता या राष्ट्र के हितों के खिलाफ हैं। लोकतन्त्र की यह स्वाभाविक प्रक्रिया है जो बताती है कि सरकार का विरोध करना कोई राष्ट्र के विरोध में काम करना नहीं होता बल्कि लोकतन्त्र की जड़ों को पुख्ता बनाना होता है। संसदीय तन्त्र में इसके माध्यम से विपक्ष और सरकार अपने-अपने पक्ष का मय सबूतों के समर्थन इस प्रकार करते हैं कि आम जनता के सामने असलियत आ सके। इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि अविश्वास प्रस्ताव लाने का मतलब कभी भी सरकार को अपमानित करना नहीं होता बल्कि उसकी जवाबदेही को मुकम्मल करना होता है। इसके जरिये विपक्ष वे सभी मुद्दे खुलकर उठा सकता है जिन्हें वह संसदीय प्रक्रियागत पेंचोखम की वजह से रचनात्मक तरीके से उठा पाने में असमर्थ रहता है परन्तु इसका असली उद्देश्य देश की सड़कों के माहौल को संसद में आवाज देना ही होता है जिससे सत्ता पक्ष उसके अनुरूप जवाब देकर जनमत को बनाये रखने की कोशिश करता है।

यह सभी जानते हैं कि 1963 में पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार के खिलाफ जब स्वतन्त्र भारत में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव आया था तो सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को अपने बहुमत की चिन्ता नहीं थी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के आचार्य कृपलानी को अविश्वास प्रस्ताव के साथ आवश्यक सांसद संख्या न होने के बावजूद स्वयं पं. नेहरू ने तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह से उसे दाखिल करने को कहा था। इस प्रस्ताव पर जमकर बहस हुई और पं. नेहरू ने चीन से हुए युद्ध में भारत की हार को स्वीकार भी किया मगर जनता के पास हकीकत को जाने से सरकार ने नहीं रोका। पं. नेहरू की मृत्यु के बाद 1964 में लालबहादुर शास्त्री की सरकार बनी और 1965 में पाकिस्तान से युद्ध होने से पहले उनकी सरकार के खिलाफ तीन अविश्वास प्रस्ताव आये। इससे यह समझा जा सकता है कि 1962 और 1967 के चुनावों के बीच भारत की संसद में माहौल कैसा था। ये सब चीन युद्ध के बाद ही रखे गये थे।

दरअसल लोकतन्त्र में संसद के माध्यम से विपक्ष देश में फैली हुई बेचैनी का इजहार संवैधानिक रास्ते से करता है जिसका जवाब सरकार भी इसी रास्ते से देती है। फैसला बेशक लोकसभा के भीतर सत्ता और विपक्ष के सांसदों के बीच मतदान द्वारा होता है मगर इसका असर सदन से बाहर पूरे देश में जिस तरह होता है उसका कोई पैमाना ईजाद नहीं हो सकता। क्योंकि प्रस्ताव पर चली संसद के भीतर बहस एेसा प्रामाणिक दस्तावेज बन जाती है जिसका प्रयोग समय पड़ने पर दोनों ही पक्ष अपने-अपने हक में करते हैं। इसलिए इस प्रस्ताव की महत्ता सत्ता पक्ष के लिए भी कम नहीं होती। देखने वाली बात केवल यह होती है कि विपक्ष कौन-कौन से सबूत देकर सरकार को नाकाबिल करार देता है और सत्ता पक्ष इनके जवाब में क्या-क्या तर्क देकर अपनी काबलियत साबित करता है। असल में अविश्वास प्रस्ताव एेसा औजार होता है जिसे केवल 6 महीने में एक बार प्रयोग करने के साथ ही विपक्ष सरकार की उन नीतियों में परिवर्तन करने का माहौल बना सकता है जो उसके विचार से जनता व देश के हितों के खिलाफ हैं। संसदीय प्रणाली में सरकार को लगातार जनोन्मुखी बनाये रखने का यह नियम जब हमारे संविधान निर्माताओं ने बनाया था तो उसके मूल में गांधी का वह विचार था कि ‘‘लोकतन्त्र में सरकार मालिक नहीं होती बल्कि वह केवल लोगों की सम्पत्ति की संरक्षक होती है।’’ अतः हर 6 महीने बाद लोगों को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि उसके द्वारा नियुक्त सेवक अपना काम निष्ठा से कर रहे हैं या नहीं, विपक्ष को भी इस तथ्य का ध्यान रखना चाहिए।

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