अब संसद सुचारू रूप में चले - Punjab Kesari
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अब संसद सुचारू रूप में चले

अब जबकि लोकसभा में विपक्ष के 26 दलों के गठबन्धन ‘इंडिया’ ने सत्तारूढ़ मोदी सरकार के खिलाफ अपना

अब जबकि लोकसभा में विपक्ष के 26 दलों के गठबन्धन ‘इंडिया’ ने सत्तारूढ़ मोदी सरकार के खिलाफ अपना संसदीय ब्रह्मास्त्र  ‘अविश्वास प्रस्ताव’ चल दिया है तो संसद में गतिरोध बने रहने का कोई कारण नहीं बनता है। हालांकि इस गतिरोध को तोड़ने के लिए गृहमन्त्री श्री अमित शाह ने लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेताओं को खत लिखकर भी सकारात्मक प्रयास किया था मगर उसे कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष व राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह कह कर निरस्त कर दिया कि भाजपा सरकार का संसद में रवैया बहुत एकपक्षीय और मनमाना रहता है परन्तु श्री खड़गे को यह विचार भी करना चाहिए था कि जब देश का गृहमन्त्री उनसे खुद कह रहा है कि वह संसद में मणिपुर की समस्या पर कितनी भी लम्बी बहस के लिए तैयार हैं तो उन्हें सहृदयता दिखानी चाहिए थी। भारत के संघीय ढांचे के भीतर मणिपुर का मामला आखिरकार गृहमन्त्री के अधिकार क्षेत्र में ही आता है। इस मामले का राज्यसभा के भीतर जो हो रहा है संसदीय तकनीकी प्रणाली के तहत उससे कोई खास लेना-देना नहीं है क्योंकि सदन में विपक्ष के 50 सांसदों ने नियम 267 के तहत मणिपुर पर चर्चा कराये जाने की मांग की। इन सब सांसदों की सूचनाएं नियमानुसार थीं अतः सदन के सभापति श्री जगदीप धनखड़ को ही यह मामला देखना था। 
सभापति के आसन पर विराजमान रहते सरकार व विपक्ष के बीच उनका व्यवहार न्यायाधीश के रूप में अपेक्षित रहता है। मगर वह पहले ही मणिपुर के मुद्दे पर ढाई घंटे की अल्पकालिक चर्चा कराये जाने की अन्य सांसदों की सूचना को स्वीकृति दे चुके थे, हालांकि जिस दिन उन्होंने इसकी स्वीकृति दी उस दिन भी कुछ सांसदों ने नियम 267 के तहत चर्चा कराये जाने की मांग की थी लेकिन श्री धनखड़ ने स्वयं सदन में ही स्वीकार किया कि जब नियम 267 के तहत बहस कराये जाने की मांग होती है तो संसदीय नियमावली के अनुसार उन सभी नियमों को अनदेखा कर दिया जाता है और लम्बी बहस कराई जाती है। इस नियम के तहत लम्बी चर्चा होने के बाद मांगे जाने पर मतदान भी कराया जाता है परन्तु सदन में सभापति के फैसले को चुनौती भी नहीं दी जा सकती है। 
 राज्यसभा में ‘इंडिया’ गठबन्धन के दल मांग कर रहे हैं कि मणिपुर के मामले पर प्रधानमन्त्री स्वयं सदन में आकर वक्तव्य दें और उसके बाद चर्चा शुरू कराई जाये परन्तु हम यह भी जानते हैं कि संसदीय लोकतन्त्र में सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी होती है अतः सदन के भीतर सरकार की तरफ से कोई भी मन्त्री जवाब दे सकता है और मणिपुर के मामले में तो स्वयं गृहमन्त्री वक्तव्य देने के लिए तैयार हैं और वह संसद में बने गतिरोध को तोड़ने के भी इच्छुक हैं। अतः विपक्ष को श्री अमित शाह के साथ मणिपुर के मुद्दे पर सहमति बनाने का मौका गंवाना नहीं चाहिए था। बेशक संसद की यह स्थापित परंपरा है कि सदन चलाने की जिम्मेदारी अन्ततः सत्तारूढ़ दल की ही होती है और संसद पर पहला अधिकार भी विपक्ष का होता है मगर इस व्यवस्था में विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी होती है कि वह संसद चलाने में अडि़यल रुख को छोड़ कर लचीलापन अपनाए जिससे संसद के माध्यम से ही वह देश के लोगों की दुख-तकलीफों का ब्यौरा सरकार के सामने रख कर उससे जवाब तलबी कर सके लेकिन अब यह स्थिति पार हो चुकी है क्योंकि लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव इसके अध्यक्ष श्री ओम बिरला ने स्वीकार कर लिया है जिससे अपनी सरकार की रक्षा करने के लिए इस सदन में प्रधानमन्त्री श्री मोदी को विपक्ष द्वारा उठाये गये विभिन्न मसलों और प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कमान संभालनी ही पड़ेगी। 
यह पूरे देश की जनता को मालूम है कि इस अविश्वास प्रस्ताव से मोदी सरकार को कोई खतरा नहीं है क्योंकि इसके पास अपने बूते पर सदन में जबर्दस्त बहुमत है और 538 की वर्तमान सदस्य संख्या वाली लोकसभा में भाजपा व इसके सहयोगी दलों के 332 सांसद हैं जबकि इंडिया दलों के 142 व निरपेक्ष या संकट के समय मोदी सरकार का साथ देने वाले दलों के सदस्यों की संख्या 64 है। यह अविश्वास प्रस्ताव सांकेतिक है और इस बात का प्रयास है कि इसके माध्यम से विपक्षी गठबन्धन देश के लोगों के बीच अपने समर्थन में ‘जन-अवधारणा’ का निर्माण कर सके। अविश्वास प्रस्ताव संसदीय लोकतन्त्र में प्रायः सरकारों के खिलाफ जन अवधारणा सृजित करने के लिए ही लाये जाते हैं क्योंकि भारत के संसदीय इतिहास में केवल तीन बार ही सत्तारूढ़ सरकारें इनके माध्यम से सत्ता से बेदखल की गई हैं। इनमें सभी सरकारें पंचमेल खिचड़ी सरकारें थीं और एक बार 1999 में तो अटल बिहारी वाजपेयी की साझा सरकार केवल एक वोट से ही गिर गई थी। जबकि इससे पहले 1990 में वीपी सिंह की ‘दो खड़ाऊ’ भाजपा व वामपंथियों के समर्थन पर खड़ी सरकार बुरी तरह लोकसभा में हार गई थी और 1997 में कांग्रेस के समर्थन पर टिकी देवेगौड़ा सरकार का हश्र भी ऐसा ही हुआ था। मगर मोदी सरकार में तो भाजपा के ही 301 सांसद हैं। अतः अब उस दिन का इंतजार करना चाहिए जब लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा शुरू होगी जिसका फैसला अध्यक्ष करेंगे लेकिन तब तक के लिए अब संसद में कामकाज सुचारू ढंग से शुरू हो इसकी व्यवस्था होनी चाहिए मगर साथ ही ध्यान रखा जाना चाहिए कि उच्च सदन राज्यसभा में विपक्ष के नेता श्री खड़गे का माइक बन्द करने जैसी कोई भी घटना न हो। संसदीय प्रणाली में विपक्ष के नेता का रुतबा भी कोई कम नहीं होता क्योंकि वह भी उन करोड़ों लोगों की आवाज होता है जिन्होंने सत्तारूढ़ दल के खिलाफ मत दिया होता है। इसीलिए लोकतन्त्र में कोई भी सरकार ‘सहकार’ की सरकार ही कहलाई जाती है। 

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