न्यूजीलैंड, नफरत और गोडसे! - Punjab Kesari
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न्यूजीलैंड, नफरत और गोडसे!

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न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की अल नूर मस्जिद में एक 28 वर्षीय आस्ट्रेलियाई नागरिक ब्रेंटन हरीसन टैरंट ने जिस तरह नमाज के समय एकत्र हुए मुस्लिम नागरिकों पर अंधाधुंध गोलीबारी करते हुए 49 लोगाें को निशाना बनाया वह नफरत के जहर से भरी हुई मानसिकता की वहशत का वह नमूना है जो ‘आतंकवाद’ को अपना लक्ष्य समझता है और सिद्ध करता है कि इसका मजहब से कोई लेना-देना नहीं है और सावधान करता है कि किसी भी धर्म का मानने वाला व्यक्ति घृणा से उपजी हिंसा का शिकार बनकर ‘इंसानियत’ को लहूलुहान कर सकता है और खुद को एक ‘खिदमतगार’ कह सकता है।

यही वह विषैली मानसिकता है जिसने 30 जनवरी 1948 को पिछली सदी के महान सपूत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की थी। नाथूराम गोडसे ने भी नफरत को अपने सीने में सुलगा कर महात्मा गांधी पर गोलियां दागी थीं और तभी दागी थीं जब वह अपनी प्रार्थना सभा में जा रहे थे। बापू अपनी सभा में ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम-सबकाे सन्मति दे भगवान’ का भजन गाकर हिन्दू-मुसलमानों में एकता और भाईचारा रखने का सन्देश देते थे मगर नाथूराम गोडसे ने जिस विचारधारा और दर्शन में अपना विश्वास रखा उसमें नफरत को उसकी जहनियत बना डाला और उसने अपने समय के मानवता के महा-अवतार महात्मा गांधी को ही उसका शिकार बना दिया जबकि गांधी भी हिन्दू थे और गोडसे भी हिन्दू था।

गोडसे समझता था कि महात्मा गांधी का हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का पैगाम हिन्दोस्तानी मुसलमानों के लिए रियायत थी क्योंकि पाकिस्तान का तब लगभग डेढ़ साल पहले ही निर्माण हो चुका था अतः उसने नफरत को अपने दिल पर पूरी तरह जवां होने दिया। वास्तव में यह अकेले गांधी की हत्या का मामला नहीं था बल्कि करुणा और प्रेम व दया की मानसिकता की नफरत की मानसिकता ने हत्या की थी। ठीक यही काम कुछ बदले हुए रूप और अंदाज में न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर में एक युवा व्यक्ति टैरंट ने किया है जिसका धर्म ईसाई है मगर इसका सम्बन्ध किसी भी तरह से उसके धर्म से नहीं है बल्कि उस मानसिकता से है जिसने उसने नफरत के रंग में ऊपर से लेकर नीचे तक रंग दिया। उसका मानना है कि न्यूजीलैंड आदि यूरोपीय देशों में दूसरे देशों से आकर बसने वाले लोग ‘आक्रमणकारी’ हैं जिनकी वजह से स्थानीय नागरिकों का हक मारा जा रहा है।

उसका आदर्श अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हैं जिन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ते हुए अपने चुनाव प्रचार में यह मुद्दा बनाया था कि वह अन्य देशों से अमेरिका आने वाले लोगों पर पाबन्दी लगाने के उपाय करेंगे। ट्रम्प के इस सिद्धान्त को अमेरिकी राष्ट्रवाद का नाम दिया गया था जबकि वास्तव में यह अमेरिकी राष्ट्रीय हितों के खिलाफ ही था क्योंकि अमेरिका को एक मजबूत और संगठित राष्ट्र बनाने में दुनिया के विभिन्न देशों से आकर इसमें बसने वाले लोगों का ही मुख्य योगदान रहा है। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड जैसे देशों को बनाने में भी यहां आये आप्रवासियों की प्रमुख भूमिका रही है मगर ट्रम्प ने राष्ट्रपति बनने के बाद जिस प्रकार की नीतियों को राष्ट्रवाद के नाम पर आगे बढ़ाया उसने इसी देश के अश्वेत नागरिकों के प्रति ‘गोरों’ की हिंसा को जन्म दिया और कभी-कभी यह विकराल रूप में सामने आया मगर हमने कभी इसे आतंकवाद का नाम नहीं दिया लेकिन इसके समानान्तर ही मजहब को चोला बनाकर नफरत केे सिद्धान्त के तहत आतंकवाद का कहर ढहाने वालों को हमने इस्लामी आतंकवादी मान लिया है।

अपनी पहचान इस्लाम के हवाले से नुमायां करने वाले इन लोगों को अगर हम इस्लामी आतंकवादी मानते हैं तो पूरी दुनिया के मुसलमान नागरिकों की पहचान को बदनाम करते हैं क्योंकि उनका ऐसे दहशतगर्दों के सिद्धान्तों से न तो कुछ लेना-देना है और न उनकी तंजीमों से। दुनिया के 44 मुस्लिम देशों के नागरिक भी उसी प्रकार अमन और शान्ति से रहना चाहते हैं जिस प्रकार अन्य शेष देशों के नागरिक, परन्तु पाकिस्तान जैसे देश ने इसी आतंकवाद को पनाह देकर ऐसा गुनाह और कहर ढहाया है कि मजलूमों और अमन व इंसाफ के हक में शिक्षा देने वाले इस्लाम धर्म को मानने वाले लोगों के प्रति उन लोगों को घृणा फैलाने का अवसर मिल रहा है जो नफरत के जरिये इंसानियत में दरारें पैदा करना चाहते हैं लेकिन क्राइस्टचर्च के कत्लनामें से हमें यह भी साफ होना चाहिए कि सियासत किस तरह लोगों में नफरत को भरकर इस दुनिया को तबाही के मंजर पर खड़ा कर देना चाहती है।

डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने सियासी फायदे के लिए जिस तरह अपने ही मुल्क में मुसलमान नागरिकों को सन्देहास्पद बनाने की मु​िहम यह कहकर छेड़ी थी कि उनके अमेरिका प्रवेश से उनके देश की आन्तरिक सुरक्षा प्रभावित होती है, उसने दुनिया के दूसरे देशों तक को इस तरह प्रभावित किया कि एक ऑस्ट्रेलियाई युवक ने इसी फलसफे के फन्दे में आकर 49 निरपराध लोगों की हत्या इस वजह से कर डाली कि वे मुसलमान थे जबकि दूसरी तरफ अमेरिका से ही शुरू हुआ ‘बाजारवाद’ पूरी दुनिया को एक बाजार मान रहा है। दीगर सवाल यह है कि अगर पूरी दुनिया एक बड़ा बाजार है तो इसमें रहने वाले लोगों को हम एक से दूसरे देश में जाकर उनकी रौनकों में हिस्सेदारी करने से कैसे रोक सकते हैं? जिस मुल्क में जिस चीज की इफरात और जरूरत है उसे इसी बड़े बाजार में रहने वाले लोग ही तो पूरा करेंगे। यह दौर औद्योगिकरण का दौर पूरा होने के बाद बदलती दुनिया का दौर है जिसमें बड़ी-बड़ी मशीनों की जगह कम्प्यूटर की मार्फत अकेला आदमी खुद उत्पादक संस्थान बनता जा रहा है।

इस बदलते दौर में हम प्रतिभा व योग्यता और उत्पादकता को एक पाये से बांध कर नहीं रख सकते। इसीलिए राष्ट्रवाद के चलते ही विदेशों में बसे नागरिकों को भी मताधिकार दिया जा रहा है। यह राष्ट्रवाद का विस्तार नहीं है बल्कि इसके सीमित होने का संकेत है क्योंकि तभी तक विदेशों में बसा कोई व्यक्ति अपने देश से जुड़ा है जब तक उसके परिवार के निशान उसके अपने देश में मौजूद रहते हैं अथवा उसे पराये देश की स्थायी नागरिकता प्राप्त नहीं होती मगर इसमें राष्ट्रविरोध जैसा कुछ नहीं है क्योंकि दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं जिन्हें दूसरे देशों से आये लोगों ने ही एक वैधानिक मुल्क बनाया है। खुद अमेरिका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अतः नफरत की जगह इस दुनिया में न पहले थी और न आज हो सकती है।

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