विपक्षी एकता का राष्ट्रीय एजेंडा ? - Punjab Kesari
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विपक्षी एकता का राष्ट्रीय एजेंडा ?

यदि राजनीति के धुरंधर पत्रकारों पर विश्वास किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन की कोशिशें युद्धस्तर

यदि राजनीति के धुरंधर पत्रकारों पर विश्वास किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन की कोशिशें युद्धस्तर पर शुरू हो चुकी हैं और एेसा विपक्षी मोर्चा इसी चालू महीने में तैयार हो जाएगा जो सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का विकल्प प्रस्तुत करेगा। इस कार्य को अंजाम देने में विपक्ष के कद्दावर नेता श्री शरद यादव बहुत ही करीने से जुटे हुए हैं। जाहिर तौर पर टुकड़ों में बिखरे विपक्ष को एक मंच पर लाना आसान काम नहीं है क्योंकि एक तरफ ममता बनर्जी जैसी विद्रोही छवि वाली संघर्षशील नेता हैं तो दूसरी तरफ मायावती जैसी क्षेत्रीय गणित पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाली नेता हैं तो तीसरी तरफ कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी वैचारिक प्रतिबद्धता वाली पार्टियां हैं मगर इसका चौथा आयाम भी बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें वामपंथी दल व दक्षिण भारत की द्रमुक जैसी पार्टी आती है।

इन सबको एक मंच पर इकट्ठा लाना पहाड़ तोड़ने से कम नहीं है। इसके साथ ही बिहार की लालू जी की राष्ट्रीय जनता दल व उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी को भी इस मंच पर लाना, इसकी सफलता की गारंटी होगा। जो राजनीति के विद्यार्थी हैं वे इस स्थिति को बहुत ज्यादा उलझी हुई मानने को तैयार नहीं होंगे क्यों​िक भारत एेसी ही परिस्थितियों से पहले भी गुजर चुका है। किसी एक शक्तिशाली दल के विरुद्ध टुकड़ों में बिखरे हुए विभिन्न क्षेत्रीय दलों को जोड़ने के लिए किसी राष्ट्रीय अ​िवलम्ब की आवश्यकता हो, एेसा भी जरूरी नहीं है मगर जो जरूरी है, वह यह है कि सभी क्षेत्रीय मजबूत जनाधार वाले दलों का राष्ट्रीय दल कही जाने वाली पार्टी की विचारधारा से सीधा टकराव न हो। यह स्थिति 1977 में तब बनी थी जब सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की नेता स्व. श्रीमती इं​दिरा गांधी की ताकत को चुनौती देना ​िकसी एक दल के बूते में नहीं था।

तब सभी विरोधी दलों ने अपने मतभेद भुलाकर एक मंच ‘जनता पार्टी’ के रूप में आना स्वीकार किया था। इनमें भी सबसे बड़ी समस्या भारतीय जनसंघ के साथ थी क्योंकि उसकी विचारधारा का सीधा टकराव ‘संगठन कांग्रेस’ जैसी पार्टी के साथ हो रहा था और स्व. चौधरी चरण सिंह के लोकदल के साथ कई मुद्दों पर उसका मूलभूत टकराव था। इनमें सबसे प्रमुख कृषि क्षेत्र को लेकर ही था क्यों​िक तब तक जनसंघ खेती को उद्योग का दर्जा दिए जाने की पक्षधर थी मगर इन सब टकरावों और मतभेदों को समाप्त करने में उस समय जिस तरह इन सभी दलों के नेताओं ने लचीला रुख अपना कर अपना एकमात्र ध्येय कांग्रेस को पराजित करने का तय किया था उससे इनका एक मंच पर आना संभव हुआ।

तर्क दिया जा सकता है कि उस समय विपक्ष के पास लोकनायक जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी जैसे तपे हुए नेता थे जिनके प्रभाव से सभी दलों को इकट्टा होने में मदद मिली मगर यह भी सत्य है कि ये दोनों नेता भी समूचे विपक्ष को किसी एक बड़े नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं कर सके थे। उस समय मोरारजी भाई, जगजीवन राम व चौधरी चरण सिंह तीन एेसी हस्ती थे, जो प्रधानमन्त्री पद के दावेदार थे मगर इन तीनों ने नेतृत्व का सवाल चुनाव बाद के​ िलए छोड़ना बेहतर समझा था। इसकी खास वजह यही थी कि इन तीनों में से कांग्रेस को हराना किसी की भी पार्टी के बस की बात नहीं थी। नेतृत्व का प्रश्न खुला छोड़कर ही 1977 के चुनाव हुए थे। यदि श्री शरद यादव सभी विपक्षी दलों को इस बात पर सहमत करने में सफल हो जाते हैं कि नेतृत्व से अधिक ‘चुनावी एजेंडा’ महत्वपूर्ण होता है तो उन्हें सफल होने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि कोई भी विपक्ष का नेता इतना महत्वाकांक्षी नहीं हो सकता कि वह जमीन पर मच रही हलचल का संज्ञान न ले सके। विपक्ष का कमजोर होना ही यदि सत्तारूढ़ दल की ताकत हो सकती है तो विपक्षी दल भी इतने अदूरदर्शी नहीं हो सकते कि वे अपनी कमजोरी को ताकत में बदलने की जुगत न भिड़ाने लगें। इसके लिए वे बदलती परिस्थितियों में अलग रणनीति तैयार करने से भी नहीं चूकेंगे। यह रणनीति बहुआयामी हो सकती है जो राज्यवार बदल सकती है।

मसलन केरल में असली लड़ाई कांग्रेस व मार्क्सवादी पार्टी के बीच ही होती आई है और प. बंगाल में असली लड़ाई भी कांग्रेस व वामपंथी दलों के बीच होती आई है। इस राज्य में अब तृणमूल कांग्रेस प्रमुख पार्टी है। अतः एेसे राज्यों के लिए विपक्ष की रणनीति वही होगी जो दो मित्रों के बीच किसी प्रतिस्पर्धा में भिड़ जाने पर होती है। इनमें से किसी के भी जीतने पर उसके राष्ट्रीय चुनावी एजैंडे पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में परिस्थितियां बदल जाएंगी क्योंकि यहां भाजपा राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी है और प्रमुख दल है। यहां समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के बीच जिस तरह जातीय आधारगत लड़ाई होती रही है उसे देखते हुए कांग्रेस पार्टी की दुर्गति होती रही है परन्तु राष्ट्रीय एजैंडे को केन्द्र में रखकर जब ये तीनों दल साझा लड़ाई लड़ने को तैयार होंगे तो इनकी निजी महत्वाकांक्षाओं का ह्रास होना निश्चित है मगर यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं है क्योंकि क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व ही उनकी महत्वाकांक्षा पर टिका होता है। विपक्षी एकता के लिए जो व्यायाम श्री शरद यादव को करना पड़ सकता है उसकी कल्पना भर ही की जा सकती है परन्तु सबसे महत्वपूर्ण यह होगा कि ये सभी दल अपना राष्ट्रीय एजेंडा क्या बनाते हैं। यह एजेंडा तभी कारगर हो सकता है जब इसमें व्यक्तिनिष्ठ राजनीति को सन्दर्भहीन और सारहीन बनाने की क्षमता हो क्योंकि इसी से 2019 के चुनाव का चित्र उभरेगा जिसमें व्यक्तियों की नहीं बल्कि विचारधारा की बात उभरेगी और नेतृत्व का मुद्दा हाशिये पर जाएगा।

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