एक कांस्टेबल की हत्या - Punjab Kesari
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एक कांस्टेबल की हत्या

पुलिस लोकतांत्रिक समाज का एक केन्द्रीय तत्व है। पुलिस के डंडे को लोकतांत्रिक सत्ता का प्रतीक माना जाता

पुलिस लोकतांत्रिक समाज का एक केन्द्रीय तत्व है। पुलिस के डंडे को लोकतांत्रिक सत्ता का प्रतीक माना जाता है। अराजकता और सामाजिक व्यवस्था के बीच जो कुछ भी खड़ा है वह पुलिस है। समाज में किसी भी प्रकार के अपराध को रोकना पुलिस का कर्त्तव्य है। लोग अपनी सुरक्षा या किसी प्रकार की गंभीर समस्या के खिलाफ पुलिस से शिकायत करते हैं और पुलिस उनकी मदद करती है। जरा सोचिए अगर समाज में पुलिस नहीं होती तो लोग कानून को अपने हाथों में लेकर कुछ भी करने लगते। समाज में चारों ओर अराजकता का ऐसा वातावरण बन जाता जिसमें लोग एक-दूसरे पर हमले ही करते।

देश एवं समाज में लोग कानून का गंभीरता से पालन करते हैं, इसका श्रेय पुलिस को जाता है। पुलिस के बगैर देश और राज्य के प्रशासन की सुरक्षा की कल्पना तक नहीं की जा सकती है। समाज में लोग अच्छी तरह से कानून व्यवस्था और अनुसाशन का पालन करें, पुलिस इसकी निगरानी हमेशा करती है। देश और कई राज्यों के महत्वपूर्ण चुनाव केन्द्रों और जरूरतमंदों की सुरक्षा पुलिस अक्सर करती है। देश में कोई भी व्यक्ति किसी के साथ गलत हरकत कर रहा है, या फिर कोई भी राह चलता बदमाश लड़की को छेड़ रहा है, ऐसे में पुलिस अपने डंडे की भाषा से अपराधियों को चुप करवाती है और उन्हें उनके अपराधों के लिए दण्डित करती है।

समस्या यह है कि गुंडों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं कि वह आम जनता को तो छोड़िए पुलिस वालों को अपना निशाना बना रहे हैं। आपराधिक तत्वों को कानून का कोई खौफ नहीं है। दिल्ली के गो​िवंदपुरी इलाके में ड्यूटी पर तैनात कांस्टेबल किरणपाल की चाकू से गोदकर की गई हत्या को लेकर बहुत सारे सवाल उठ खड़े हुए हैं। यद्यपि पुलिस ने कांस्टेबल किरणपाल की हत्या के आरोपी रॉकी उर्फ राघव को मुठभेड़ में मार ​िगराया और दो अन्य हमलावरों को गिरफ्तार कर लिया है लेकिन सवाल यह है कि समाज में पुलिस और कानून का डर क्यों नहीं है। आपराधिक तत्व इतने दुस्साहसी हो गए हैं कि वे ड्यूटी पर तैनात पुलिस वाले की हत्या कर दे? समाज में हमेशा से ही आपराधिक प्रवृत्ति के लोग रहे हैं परंतु बर्बरता करने के पीछे उनकी क्या मानसिकता है। ऐसे अापराधियों की पैदाइश हमारे सिस्टम की खामियों को दर्शाती है। जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद और धन बल का सहारा लेकर अपराधी पैदा होते हैं और ऐसे अपराधी बेरोजगार युवाओं का आदर्श बनते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में 8 पुलिस वालों की हत्या कर देने वाला विकास दुबे भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष राजनेताओं के संरक्षण में ही पैदा हुआ था। कभी-कभी कानून के रखवाले संविधान और कानून के प्रति वफादार न रहकर आपराधिक तत्वों को संरक्षण देते हैं और इस तरह कानून से डर का भाव ही निकल जाता है। कानून का भय खत्म होने का अर्थ समाज में जुल्म का बढ़ना होता है। निर्भया के बलात्कारियों को मृत्युदंड दे दिया जाता है। फिर भी बलात्कारियों में कोई भय व्याप्त नहीं हो पाता।

दहेज हत्या करने वालों के लिए सख्त कानून है। इसके बावजूद हत्याएं नहीं रुक रही। मतलब साफ है कि भारतीय कानून व्यवस्था अपराधियों में दंड का भय पैदा करने में नाकाम रही है। पुलिस थाने में नेता की ​हत्या करने वाला कोर्ट में साफ बरी हो जाता है जबकि मामूली अपराध करने वालों को सजा हो जाती हैै। संविधान के तहत पुलिस राज्य सूची का विषय है लेकिन देश में अधिकतर राज्यों में पुलिस की छवि खराब है। पुलिस पर जनता से मित्रवत नहीं होने और अपने अधिकारों के दुरुपयोग के आरोप लगाते रहते हैं। पुलिस का नाम लेते ही प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीय व्यवहार और उगाही, ​रिश्वत जैसे शब्द कौंधने लगते हैं। मारा गया कांस्टेबल किरणपाल भी उस परिवार का बेटा था जिसने बड़े संघर्ष के बाद उसे अच्छी शिक्षा दिलाई थी। उसकी मां ने मेहनत मजदूरी कर उसे बड़ा किया था। उसकी हत्या के बाद पूरे इलाके में दशहत का माहौल है। पुलिस की बदनाम छवि के पीछे सबसे बड़ा कारण बल का राजनीतिकरण हो जाना भी है।

पुलिस व्यवस्था को आज नई दिशा, नई सोच और नए आयाम की आवश्यकता है। समय की मांग है कि पुलिस नागरिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों के प्रति जागरूक हो और समाज के सताए हुए तथा वंचित वर्ग के लोगों के प्रति संवेदनशील बनें। देखने में यह आता है कि पुलिस प्रभावशाली व पैसे वाले लोगों के प्रति नरम तथा आम जनता के प्रति सख्त रवैया अपनाती है जिससे जनता का सहयोग प्राप्त करना उसके लिये मुश्किल हो हो जाता है। आज देश का सामाजिक परिवेश पूरी तरह बदल चुका है। हमें यह समझना होगा कि पुलिस सामाजिक रूप से नागरिकों की मित्र है और बिना उनके सहयोग के कानून व्यवस्था का पालन नहीं किया जा सकता लेकिन क्या समाज की भूमिका केवल मूक दर्शक बने रहकर प्रशासन पर टीका-टिपण्णी करने या कैंडल लाइट मार्च निकालकर या सोशल साइट्स पर अपना विचार व्यक्त करने तक ही सीमित है? प्रत्येक समाज को नीति-नियंताओं पर इस बात के लिये दबाव डालना चाहिये कि उनके राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में पुलिस सुधार को एक अनिवार्य मुद्दे के रूप में शामिल करें। किसी भी लोकतांत्रिक देश में पुलिस बल की शक्ति का आधार जनता में उसका विश्वास है। इसलिए पुलिस की छवि सुधारने और आपराधिक तत्वों को जल्द से जल्द दंडित करने के ​िलए कानूनी प्रक्रिया को पुख्ता बनाने का काम करना होगा।

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