मॉब लिंचिंग एक ऐसा कृत्य है जिसमें किसी व्यक्ति को किसी कथित अपराध के लिए बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के मार दिया जाता है। मॉब लिंचिंग उन घृणा अपराधों में से एक के रूप में उभरा है जो किसी विशेष पहचान या अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों या केवल संदेह के आधार पर अजनबियों को निशाना बनाते हैं। भीड़ किसी भी कानून के नियमों का पालन किए बिना कथित आरोपी को दंडित करने के लिए कानून को अपने हाथों में लेती है। लोकतंत्र की मूल विशेषता लोगों के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करना है लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हो रहा है। हाल ही में हरियाणा के चरखी दादरी में बीफ खाने के आरोप में पश्चिम बंगाल के एक प्रवासी युवक की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। गोरक्षा दल के सदस्यों को शक था कि 23 वर्षीय शब्बीर खान ने अपने साथी के साथ बीफ पकाकर खाया है। महाराष्ट्र के धुले एक्सप्रैस में बीफ ले जाने के शक में एक बुजुर्ग यात्री की कुछ लोगों द्वारा पिटाई किए जाने का मामला भी चर्चा का विषय बना हुआ है। एक बार फिर यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या देशभर में लगातार भय का राज स्थापित हो रहा है। उपद्रवियों को मिली खुली छूट के चलते ही क्या उनके भीतर ऐसा कर पाने का साहस पैदा हो रहा है। इन घटनाओं के बाद तबरेज, अंसारी, पहलू खान और अखलाक लुकमान जैसे नाम जहन में उभरने लगते हैं। इन मामलों में दक्षिणपंथी संगठन और गोरक्षक संस्था के लोगों को गिरफ्तार भी किया गया था। चरखी दादरी मॉब लिंचिंग केस में भले ही यह कहा गया कि गोहत्या का मामला बहुत ही संवेदनशील और लोगों के िलए भावनात्मक होता है। फरीदाबाद में गो तस्कर समझकर एक छात्र को गोली मारने के मामले में भी पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
जब अमेरिका में नस्ली भेदभाव बहुत ज्यादा था और अफ्रीकी-अमेरीकियों की लिंचिंग आम थी जो एक घृणाजनित अपराध था तथा श्वेतों और अश्वेतों के बीच एक गहरी खाई को रेखांकित करता था। अब ऐसी घटनाएं भारत में होना आम बात है। खून के प्यासे लोगों द्वारा निर्दोष नागरिकों को अपना निशाना बनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। जिस तरह से ऐसी हत्याओं से एक समुदाय में दूसरे समुदाय के प्रति भय का भाव भरा जा रहा है, वह भी कोई कम खतरनाक नहीं है। वर्ष 2014 से मॉब लिंचिंग की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इन घटनाओं की सार्वजनिक रूप से निंदा की गई थी और दोषियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की बात कही गई थी लेकिन धर्म और संस्कृति के स्वयंभू रक्षक आज भी ऐसी घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं।
भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है। विवेक जब शून्य हो जाता है तब राह चलता व्यक्ति भी भीड़तंत्र का हिस्सा बन जाता है और ऐसी विवेक शून्य भीड़ ही निर्मम घटनाएं करती है। बुद्धिजीवी, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता इसमें साम्प्रदायिक एंगल तलाशने लगते हैं, लेकिन धर्म के तथाकथित ठेकेदार मौन धारण कर लेते हैं। दुखद पहलू यह है कि राजनीतिक और सामाजिक संगठन इन घटनाओं को अपनी-अपनी सुविधाओं के हिसाब से कम या ज्यादा करके उठाते हैं। ऐसे में उनका विरोध केवल राजनीतिक दिखाई देता है। देश में मॉब लिंचिंग की घटनाओं में वृद्धि की पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी घटनाओं को रोकने और दोषियों को सजा दिलवाने के लिए एक तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को यह याद दिलाया कि हिंसा को रोकना उसका कर्त्तव्य है। विविधता में एकता ही भारत की पहचान है और भीड़ द्वारा कानून को अपने हाथ में लेना विविधता में एकता के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
मॉब लिंचिंग रोकने के लिए कई राज्यों ने कड़े कानून बनाए हुए हैं। भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता जुलाई माह से पूरे देश में प्रभावी हो चुके हैं। नए कानूनों में मॉब लिंचिंग पर अलग से कानून बनाया गया है। इस कानून के तहत शरीर पर चोट पहुंचाने वाले क्राइम को धारा 100-146 तक का जिक्र है। वहीं मॉब लिंचिंग के मामले में न्यूनतम 7 साल की कैद हो सकती है। इसमें उम्रकैद या फांसी की सजा का भी प्रावधान है। इसके अलावा हत्या के मामले में धारा 103 के तहत केस दर्ज होगा। वहीं धारा 111 में संगठित अपराध के लिए सजा का प्रावधान है, धारा 113 में टेरर एक्ट बताया गया है। बीएनएस में मर्डर के लिए धारा 101 में सजा का प्रावधान है। इसमें दो सब-सेक्शन हैं। धारा 101 (1) कहती है, अगर कोई व्यक्ति हत्या का दोषी पाया जाता है तो उसे आजीवन कारावास से लेकर मौत की सजा तक हो सकती है। वहीं उस पर जुर्माना भी लगाया जाएगा।
अगर भीड़ सरेराह खुद लोगों को दंडित करने लगे तो फिर कानून का राज कहां रहेगा। लोकतंत्र में समाज को बर्बर बनने नहीं दिया जा सकता। आखिर धर्म के नाम पर हत्याओं की अनुमति कैसे दी जा सकती है। मॉब लिंचिंग पूरे समाज की अखंडता के लिए खतरा है। एक सभ्य समाज की नींव कैसे मजबूत बनाई जाए यह सोचना भी समाज का ही काम है। नफरत की राजनीति को अलग-थलग करना ही होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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