मिडिल ईस्ट : शान्ति या विध्वंस - Punjab Kesari
Girl in a jacket

मिडिल ईस्ट : शान्ति या विध्वंस

मिडिल ईस्ट में युद्ध की आग, शांति की उम्मीदें धूमिल…

अंततः वही हुआ जिसका डर था। ईरान और इजराइल के युद्ध की आग में अब अमेरिका भी खुलकर कूद चुका है। अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकानों फोर्डो, नतांज और इस्फहान पर हमला कर उन्हें तबाह कर दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इस हमले को इतिहास का सबसे सफल सैन्य हमला बताया और कहा है कि ईरान मिडिल ईस्ट का सबसे बड़ा आतंकी है, हमने ताकत दिखाई, अब वक्त है शांति का। इसके साथ ही मिडिल ईस्ट की जंग खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है। हमले से भड़के ईरान ने अब इजराइल पर मिसाइलों की बारिश कर दी है।

ईरान के सर्वोच्च नेता आयातुल्ला अली खामेनेई ने आदेश दे ​दिया है कि बहरीन में अमेरिकी नौसेना पर हमला करो। जहां-जहां भी अमेरिकी देखो उन्हें मार दो और हार्मुज जल डमरू मध्य को बंद कर दो। ईरान और अमेरिका के बीच दुश्मनी का लम्बा इतिहास रहा है। ईरान के अमेरिका के साथ राजनयिक संबंध 19वीं सदी के अंत में शुरू हुए जब ईरान ने ब्रिटिश और रूसी प्रभाव का मुकाबला करने की कोशिश की। इसमें सांस्कृतिक और आर्थिक आदान-प्रदान शामिल था, जिसमें अमेरिका ने ईरान के आधुनिकीकरण प्रयासों का समर्थन किया था लेकिन साल 1953 में अमेरिका और ब्रिटेन ने ईरान के लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग को उखाड़ फेंकने के लिए तख्तापलट किया था।

मोहम्मद मोसादेग ने तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था। इस घटना ने शाह मोहम्मद रजा पहलवी को ईरान की गद्दी पर बहाल कर दिया जिससे ईरानियों में अपने घरेलू मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप के प्रति व्यापक आक्रोश फैल गया। मोहम्मद रजा पहलवी को अमेरिकी समर्थक माना जाता रहा लेकिन फिर आया वो दौर जिसके बाद ईरान ने अमेरिका को अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया। साल 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति हुई, जिसके बाद अमेरिका परस्त शाह को अपदस्थ कर दिया गया लेकिन अमेरिका ने शाह को राजनीतिक शरण दी। जिसके कारण तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमला हुआ और 52 अमेरिकी बंधकों को 444 दिनों के लिए बंधक बना लिया गया। इस घटना ने ईरान को हमेशा के लिए अमेरिका का दुश्मन बना दिया। बंधक संकट के बाद अमेरिका ने राजनयिक संबंध तोड़ दिए। उस समय ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खुमैनी ने अमेरिका को ‘महान शैतान’ करार दिया।

ईरान का इस्लामी गणतंत्र एक क्रांतिकारी विचारधारा पर आधारित है जो पश्चिमी प्रभाव का विरोध करता है। दूसरी तरफ अमेरिका में घरेलू राजनीतिक विचार भी इस दुश्मनी को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। इजराइल समर्थक लॉबिंग समूहों और सैन्य औद्योगिक समूहों का प्रभाव ऐसी नीतियों को आकार देता रहा है जो ईरान को प्रमुख दुश्मन के रूप में देखती है। ईरान ने अमेरिका से परमाणु समझौता भी किया था लेकिन उसने समझौते का पालन नहीं किया तो डोनाल्ड ट्रम्प समझौते से अलग हो गए थे। अमेरिका ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को खतरे के रूप में देखते हुए उस पर कड़े आर्थिक और सैन्य प्रतिबंध लगा दिए थे। 2019 में दोनों के बीच दुश्मनी उस समय चरम पर पहुंच गई जब ईरान के सबसे शक्तिशाली जनरल कासिम सुलेमानी की मौत हो गई थी।

अब सवाल यह है ​कि ईरान कितना पलटवार करता है। अगर उसने लगातार हमले जारी रखे तो युद्ध का विस्तार होगा और केवल विध्वंस ही होगा। इस बात का अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता कि क्या अन्य देश युद्ध की इस आग में अपने हाथ जलाएंगे या नहीं। विश्व इस समय युद्धों की बहुत बड़ी कीमत चुका रहा है। इजराइली हमलों के शिकार गाजा पट्टी के बच्चों को दो वक्त का भोजन और पानी भी नहीं नसीब हो रहा। 54 हजार से ज्यादा लोग इजराइल-हमास युद्ध में मारे जा चुके हैं। लाखों लोग बेघर हो चुके हैं। मानवीय दृष्टिकोण से आतंकवाद का दमन करना निःसंदेह जरूरी है किन्तु प्रतिशोध की भावना से किसी भी देश को युद्ध की आग में झोंकना अमानवीय है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ईरान आतंकवादी समूहों का समर्थन करता है जिनमें हमास और हिज्बुल्लाह शा​मिल हैं जो सीधे इजराइल के विरोधी हैं। युद्ध तबाही के अतिरिक्त कुछ नहीं। युद्धों से ​विकसित हो चुकी धरती को खंडहर बनाने का खामियाजा पूरी दु​निया को भुगतना ही पड़ेगा। वैश्विक ​शक्तियों को तीसरे विश्वयुद्ध की ओर बढ़ने वाली स्थितियों पर नियंत्रण करना होगा। परिस्थितियां ही बताएंगी कि शांति का मार्ग निकलेगा या विध्वंस का।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

eighteen − 10 =

Girl in a jacket
पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।