दैनिक आधार पर बढ़ते पेट्रोल व डीजल के भावों के विरुद्ध कांग्रेस के नेतृत्व में आयाेजित विपक्षी दलों के भारत बन्द का असर सर्वव्यापी रहा है और आम जनता का इसे कमोबेश समर्थन भी मिला है। यह इस बात का प्रमाण है कि बन्द बेशक राजनीतिक दलों द्वारा प्रायोजित था मगर इसमें आम जनता की रजामन्दी शामिल थी। इसकी वजह यह है कि केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों ने जिस तरह पेट्रोल व डीजल पर अन्धाधुन्ध शुल्क दरें बढ़ाकर राजस्व उगाही का आसान रास्ता अख्तियार किया हुआ है वह भारत की कथित तेज गति से विकास करती अर्थव्यवस्था के सांचे में नहीं उतर रहा है और सामान्य नागरिक की दिक्कतें इस प्रकार बढ़ा रहा है कि विकास की रोशनी उसके दरवाजे तक पहुंचने से पहले ही सरकारी खजाने में बन्द हो जाती है। आचार्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में जब यह सिद्धान्त दिया था कि राजा को प्रजा से कर वसूली उसी प्रकार करनी चाहिए जिस प्रकार मधुमक्खियां विभिन्न पुष्पों से पराग लेकर शहद का उत्पादन करती हैं तो उसका आशय यही था कि राजा की शुल्क प्रणाली प्रजा को कभी भी शूल की तरह नहीं चुभनी चाहिए।
वर्तमान बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में जब हमने घरेलू बाजार में पेट्रोल की कीमतें सीधे तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों से जोड़ दी हैं तो किसी भी सरकार का कर्तव्य हो जाता है कि वह इस पर केवल उतना ही ‘सुविधा शुल्क’ लगाये जिससे सामान्य नागरिक द्वारा कमाई गई धनराशि के उस बंटवारे पर अतिरिक्त बोझ न पड़े जिसे वह अपनी दैनिक जरूरतों की वस्तुओं के इस्तेमाल पर खर्च करता है। भारत में पेट्रोल व डीजल इसकी प्रगति व विकास के समानान्तर दैनिक उपभोग की वस्तु एक सामान्य टैक्सी या टेम्पो चला कर जीवनयापन करने वाले व्यक्ति से लेकर दुपहिया वाहन खरीद कर गांवों व कस्बों में अपने काम-धन्धे या आवागमन के लिए जरूरी उपभोक्ता सामग्री बन चुकी है। इसी प्रकार डीजल की खपत कृषि क्षेत्र में आधुनिक तकनीक इस्तेमाल करने का पर्याय बन चुकी है।
हमने यह स्थिति बहुत मेहनत और मशक्कत के बाद अर्जित की है। 1991 तक संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था के दौरान हमने पूरे देश में मध्यम वर्ग का निर्माण इस तरह किया कि भारत पूरी दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार बनकर उभरा। हमारे आर्थिक उदारीकरण का यही मूलाधार बना और हमने लाइसेंस-कोटा राज खत्म करके विकास की उस दूसरी धारा पर चलना शुरू किया जिसमें निजी उद्यमशीलता के भरोसे विकास की कहानी लिखी जाती है। वित्तीय संशोधन इसी प्रणाली का हिस्सा रहे जिसकी मार्फत उपभोक्ता सामग्री की सुलभता का वित्तीय पोषण आसान होता चला गया और हम औद्योगिक उत्पादन बढ़ाकर विकास करते रहे और हमने अपने विकास का पैमाना सकल वार्षिक वृद्धि दर को मानना शुरू कर दिया। भाजपा अपने जन्मकाल (जनसंघ) से ही इस प्रकार की अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी अलम्बरदार रही है अतः इस पार्टी की यह एेतिहासिक जिम्मेदारी बनती है कि वह एेसा रास्ता निकाले जिससे भारत में पेट्रोल व डीजल के भाव आम उपभोक्ता के लिए दैनिक आधार पर शेयर बाजार में तय होने वाले शेयरों के भाव की मानिन्द न बनें।
यह विषय राजनीति का किसी भी दृष्टि से नहीं है बल्कि नागरिक संवेदनशीलता का है। सवाल यह पैदा होता है कि जब हम आयातित स्वर्ण के भाव घरेलू बाजार में इस प्रकार सुनिश्चित कर सकते हैं कि ये अंतर्राष्ट्रीय बाजार भावों के आसपास ही घूमते रहें और इस पर शुल्क की दरें भी वाजिब सीमा में लगा सकते हैं तो पेट्रोल व डीजल के लिए एेसी ही नीति क्यों नहीं बना सकते? सोने में जितना भी निवेश होता है वह मृत निवेश ही होता है और भारत दुनिया का एेसा देश है जो पूरी दुनिया में हर साल स्वर्ण आयात में नम्बर एक पर रहता है। यह उपभोक्ता सामग्री भी नहीं है। रुपए के मुकाबले डालर के महंगा होने की वजह से जब इसके दाम घरेलू बाजार में बढ़ते हैं तो सामान्य नागरिक को इसकी परवाह नहीं होती किन्तु यही नीति जब हम पेट्रोल व डीजल के दामों पर लागू करते हैं तो पूरे देश में हाहाकार मच जाता है। जाहिर है कि हमने वह रास्ता अख्तियार किया है जिसमें शेर और बकरी एक साथ तुल रहे हैं परन्तु भारत एेसा देश है जो अपने कुल बजट की धनराशि के आधे से कुछ कम मूल्य का कच्चा पैट्रोलियम तेल प्रतिवर्ष आयात करता है।
जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसके भाव बढ़ते हैं तो सरकार की राजस्व आमदनी बढ़ती है और जब इसके दाम घटते हैं तो सरकार की राजस्व आमदनी घटती है। इस कमी को पाटने के लिए सरकार प्रायः शुल्क दर बढ़ा लेती है। यह काम वाजपेयी सरकार में जमकर हुआ था और इस हद तक हुआ था कि अध्यादेश जारी कराकर उस कानून में संशोधन किया गया था जिसमें 50 प्रतिशत से ज्यादा उत्पाद शुल्क नहीं लगाया जा सकता था। वित्तमन्त्री माननीय यशवन्त सिन्हा और राम नाइक ने यह कार्य किया था मगर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ने पर सरकार शुल्क दरें घटाने से कतराने लगती है। यदि सरकार इस फार्मूले पर चले तो घरेलू बाजार में काफी हद तक पेट्रोल व डीजल के दामों को बांधे रखा जा सकता है और सरकार पर ‘इजी मनी’ उगाहने का आरोप भी नहीं लगाया जा सकता तथा वह श्रमशील रहकर लगातार राजस्व उगाही के स्रोतों पर भी जोर दे सकती है जो अर्थव्यवस्था के सुधरते स्वास्थ से बन्धे होते हैं।
भारत में एेसा तब हुआ था जब मनमोहन सरकार के दौरान कच्चे तेल के भाव 140 डालर प्रति बैरल तक पहुंच गए थे। तब शुल्क दरें बहुत कम कर दी गई थीं इसके बावजूद पेट्रोल 70 रु. प्रति लीटर के भाव को छू गया था परन्तु दूसरी सबसे बड़ी दिक्कत यह आ रही है कि डालर रुपए के मुकाबले सरपट दौड़ रहा है और अब साढ़े 72 रुपए के करीब है। इससे कच्चे तेल का आयात और ज्यादा महंगा हो जाएगा परन्तु कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह 75 रुपए के करीब तक जा सकता है। इससे आयात मोर्चे पर सरकार की चिन्ता बढ़नी चाहिए अर्थात कच्चे तेल की कीमतें घरेलू बाजार में और महंगी पड़ेंगी। अतः समय रहते हमें कोई न कोई एेसा हल निकालना पड़ेगा जिससे सामान्य नागरिक को राहत मिल सके मगर इस मामले में राज्य सरकारों की अपनी दिक्कत है कि वे किस हद तक पेट्रोल व डीजल पर लगने वाले मूल्य अभिवृद्धि शुल्क को घटाएं क्योंकि उनके पास राजस्व उगाही का यही एेसा रास्ता है जिस पर केन्द्र का दखल नहीं है। मदिरा भी इसी श्रेणी में आती है। इन दोनों को भी यदि जीएसटी के घेरे में ले लिया जाता है तो राज्यों के अपने आय स्रोत पूरी तरह सूख जाएंगे। इसके बावजूद कोई न कोई हल तो निकालना पड़ेगा ही। भारत बन्द का पैगाम यही है।