अमृतसर में जौड़ा फाटक के निकट रावण दहन के दौरान रेलवे ट्रैक पर खड़े लोगों को 100 किलोमीटर की रफ्तार से आई ट्रेन ने कुचल दिया। ट्रेन को गुजरने में मात्र 5 सैकिंड भी नहीं लगे होंगे कि पटरियों पर लोगों की लाशें बिछ गईं। किसी का हाथ कटा हुआ था तो किसी का पैर, किसी का सिर धड़ से अलग था। किसी ने बेटा खोया, किसी ने भाई और किसी ने पिता खोया। चारों तरफ क्रन्दन ही क्रन्दन। ऐसा खौफनाक मंजर तो 1947 में देखा गया था जब देश विभाजन के समय दंगे हुए थे। दंगों की दास्तान तो हमें पूर्वज ही बताते थे लेकिन विजयदशमी पर्व पर टीवी स्क्रीन पर दृश्य देखकर दिल दहल उठा। जिन लोगों ने यह मंजर अपनी आंखों से देखा है वह जिन्दगी भर इसे भुला नहीं पाएंगे। अब सवाल उठता है कि इस हादसे का जिम्मेदार कौन है? क्या जलते रावण से भयभीत होकर पीछे हटकर रेलवे ट्रैक पर खड़े लोगों को जिम्मेदार माना जाए? कुछ लोग रेलवे ट्रैक पर खड़े होकर वीडियो बना रहे थे। कुछ लोग सेल्फी ले रहे थे। किसी ने भी अपनी ओर आती मौत पर ध्यान ही नहीं दिया।
भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है, भीड़ कुछ नहीं सोचती, जिधर कुछ लोग भागे उनके पीछे भीड़ भी भागना शुरू कर देती है। क्या इस हादसे के लिए आयोजकों को जिम्मेदार माना जाए, जिन्होंने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया कि रेलवे ट्रैक पर खड़े लोगों से हटने की अपील की जाए ताकि कोई हादसा न हो। आयोजकों को भीड़ का प्रबन्धन करने के लिए पुख्ता इंतजाम करने चाहिए थे। क्या वहां कोई पुलिसकर्मी तैनात नहीं था जो आयोजकों का ध्यान किसी अनहोनी की आशंका की आेर दिलाता। स्थानीय पार्षद ने बिना इजाजत रावण दहन का आयोजन क्यों किया? अब कोई स्थानीय प्रशासन को जिम्मेदार ठहरा रहा है तो कोई रेलवे के गैंगमैन को, कोई रेलवे प्रशासन को। सवाल उठाया जा रहा है कि रेलवे को पता क्यों नहीं चला कि ट्रैक पर सैकड़ों लोग खड़े हैं। वक्त राजनीति का नहीं था लेकिन घटनास्थल पर ही इस भयंकर हादसे को लेकर राजनीति शुरू हो गई। कार्यक्रम में पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की धर्मपत्नी नवजोत कौर सिद्धू मुख्य अतिथि थीं। आक्रोशित लोगों का आरोप है कि हादसा होते ही नवजोत कौर सिद्धू कार में बैठकर भाग गईं। हालांकि बाद में नवजोत कौर सिद्धू ने सफाई दी कि वह हादसे से 15 मिनट पहले ही वहां से चली गई थीं। जैसे ही फोन पर उन्हें हादसे का पता चला वह तुरन्त घायलों के उपचार की व्यवस्था करने अस्पताल पहुंच गईं। नवजोत सिंह सिद्धू भी अमृतसर पहुंच गए।
नवजोत सिंह सिद्धू के पास शब्दकोष बहुत बड़ा है। उन्होंने अपने शब्दों में घटना पर दुःख तो व्यक्त किया आैर इस हादसे को कुदरत का कहर बताया। उनका बयान सुनकर बड़ी हैरानी हुई कि इसे परमात्मा का प्रकोप बता रहे हैं। अमृतसर में हुआ हादसा प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह पटरी पर हुआ नरसंहार है। रेलवे विभाग भले ही यह कहे कि उसकी कोई गलती नहीं है, उसे तो रावण दहन कार्यक्रम की जानकारी नहीं थी लेकिन रेलवे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। पटरी पर नरसंहार कार्यक्रम के आयोजकों, स्थानीय प्रशासन, पुलिस और रेलवे की लापरवाही से हुआ है। इनमें से कोई भी अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकता। रामलीला और दशहरे के मंचों का इस्तेमाल लोग अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए कर रहे हैं। रेलवे ट्रैक के निकट रावण दहन का कार्यक्रम भी कुछ ऐसा ही था। नेतागिरी चमकाने वालों ने तो अपना चेहरा लोगों को दिखाना था। किसी ने नहीं सोचा कि मेले में एलईडी स्क्रीन को रेलवे ट्रैक की ओर नहीं लगाया जाए। ढाई हजार की क्षमता वाली जगह में 6-7 हजार लोग कैसे आएंगे? कार्यक्रम के आयोजन से लेकर रेलवे प्रशासन तक सब कुछ रामभरोसे ही चल रहा था।
सच तो यह भी है कि देश की पुलिस और स्थानीय प्रशासन अभी तक भीड़ प्रबन्धन की कला सीख नहीं पाए। धार्मिक आयोजनों में भगदड़ मचने से अनेक मौतें होती रही हैं।
रेलवे ट्रैक के निकट हर वर्ष दशहरे का आयोजन होता आया है। रेलवे को भी त्यौहार के दिन सतर्कता बरतनी चाहिए थी। ऐसा ही एक वाकया छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में सामने आया लेकिन वहां किसी को कोई नुक्सान नहीं पहुंचा। रायपुर की एक कालोनी में रावण दहन हो रहा था, उसी वक्त वहां रेलवे ट्रैक पर हजारों की भीड़ मौजूद थी। अमृतसर आैर रायपुर में सबसे बड़ा फर्क सुरक्षा व्यवस्था का था। जीआरपी और पुलिस के जवान दो घण्टे पहले ही ट्रैक पर मौजूद थे। ट्रेन को एक किलोमीटर पहले ही धीमा करने का आदेश था। ट्रेन के साथ जवान भी आगे बढ़ रहे थे। प्रशासन की मुश्तैदी से सब कुछ सकुशल सम्पन्न हुआ। अमृतसर में रेलवे की तरफ से कोई चुस्ती नहीं दिखाई गई और स्थानीय प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। लाखों रुपए का मुआवजा भी उन लोगों के दुःख को कम नहीं पर पाएगा जिनके अपने हमेशा के लिए बिछुड़ गए हैं। उनकी आंखों में जीवन भर आंसू ही रहेंगे। काश! हम पूर्व के हादसों से सबक लेते तो कीमती जानें बच सकती थीं।े