मणिपुर स्थिति : केन्द्र गमभीर - Punjab Kesari
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मणिपुर स्थिति : केन्द्र गमभीर

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका और मिस्र के दौरे से लौटते ही मणिपुर की स्थिति पर गृहमंत्री अमित

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका और मिस्र के दौरे से लौटते ही मणिपुर की स्थिति पर गृहमंत्री अमित शाह के साथ बैठक की। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस पूर्वोत्तर राज्य की हिसा काे लेकर काफी गम्भीर हैं। बैठक में राज्य में चल रही जातीय हिंसा को रोकने के लिए उठाए गए कदमों की समीक्षा की गई और यह भी फैसला लिया गया कि राज्य में लोगों को पैट्रोल और कुकिंग गैस की सप्लाई सीधे केन्द्र करेगा ताकि लोगों को कालाबाजारी से राहत मिले। केन्द्र की नजर इस बात पर भी रहेगी कि वहां आवश्यक वस्तुओं की कालाबाजारी न हो। इसी बीच मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन ​सिंह को हटाने की मांग जोर पकड़ रही है। केन्द्र ने इस मांग पर अभी कोई निर्णय नहीं लिया है। केन्द्र की प्राथमिकता राज्य में सामान्य स्थिति बहाल करने की है। लगभग दो महीने से अशांत मणिपुर के हालात पर गृहमंत्री अमित शाह ने गत् 24 जून को 18 राजनीतिक दलों के साथ सर्वदलीय बैठक करके सही कदम उठाया था। इसके बावजूद राज्य में हिंसा थम नहीं रही है।
इम्फाल घाटी के बहुसंख्यक मैतेई और पहाड़ी इलाकों में बसे कुकी-नगा जनजातियों के बीच सुलह के सभी प्रयास विफल रहे हैं। 3 मई से जारी हिंसा की शुरूआत मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने संबंधी हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद हुई और देखते ही देखते हिंसा पूरे राज्य में फैल गई। मैतेई समाज भी यहां का मूल निवासी है। सैंकड़ों हजार साल के प्रमाण भी हैं। ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का तो व्यवस्थित इतिहास है। पर अंग्रेजों ने अपनी विभाजन नीति के अन्तर्गत वन और पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाले कुकी और नगा समाज को आदिवासी घोषित किया था और उनके रूपान्तरण के लिए मिशनरीज सक्रिय हो गई थीं। चूंकि अंग्रेजों को इस क्षेत्र की वन सम्पदा पर अधिकार करना था। इसलिए उन्होंने इन दो समुदायों को वन और पर्वतीय क्षेत्र का स्वामी तो माना और यह अधिकार भी दिया कि वे घाटी क्षेत्र में बसने के अधिकारी हैं। जबकि मैतेई समाज को वन और पर्वतीय क्षेत्र में मकान, जमीन क्रय करके बसने का अधिकार नहीं दिया। इसलिए यह समाज सिमटता जा रहा है और विवश होकर या तो अन्य प्रांतों में जा रहा है अथवा रूपान्तरित हो रहा है।
1961 की जनगणना में यह समाज साठ प्रतिशत से अधिक था जो अब घटकर चालीस प्रतिशत के आसपास रह गया। अपने सिमटते अस्तित्व से चिंतित इस समाज ने अपने तीन हजार वर्ष पुराने इतिहास को आधार बना कर ही इस समुदाय ने स्वयं अनुसूचित जनजाति (एसटी) श्रेणी में शामिल करने की मांग उठाई। मामला अदालत में भी दायर किया। इसके विरोध में ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (एटीएसयूएम) सामने आया । ताजा हिंसा के पीछे यही संगठन है। मई के प्रथम सप्ताह में हुई यह हिंसा रैली में अकस्मात भड़की हिंसा नहीं अपितु पहले से की गई तैयारी झलकती है। यह हिंसा चुराचांदपुर के तोरबंग इलाके से कांगपोकपी होकर इंफाल तक पहुंची।
अंग्रेजों ने जो विष बीज डाले उसका जहर आज तक फैल रहा है। 1949 में मणिपुर का भारत में विलय हुआ था। उससे पहले मैतेई को यहां जनजाति का दर्जा मिला हुआ था। यह समुदाय अपने पूर्वजों की जमीन, परम्परा, संस्कृति और भाषा की रक्षा के ​िलए जनजाति का दर्जा मांग रहा है। इनका कहना है कि समुदाय को बाहरी लोगों के अतिक्रमण से बचाने के लिए एक संवैधानिक कवच की जरूरत है। जबकि कुकी और नगा मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने का विरोध कर रहे हैं।  इन जनजातियों का कहना है कि मैतई जनसंख्या में भी ज़्यादा हैं और राजनीति में भी उनका दबदबा है। जनजातियों का कहना है कि मैतेई समुदाय आदिवासी नहीं हैं। उनको पहले से ही एससी और ओबीसी आरक्षण के साथ-साथ आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग का आरक्षण मिला हुआ है और उसके फ़ायदे भी मिल रहे हैं। उनकी भाषा भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है और संरक्षित है। ऐसे में मैतेई समुदाय को सब कुछ तो नहीं मिल जाना चाहिए। अगर उन्हें और आरक्षण मिला तो फिर बाकी जनजातियों के लिए नौकरी और कॉलेजों में दाखिला मिलने के मौके कम हो जाएंगे। फिर मैतई समुदाय को भी पहाड़ों पर भी ज़मीन ख़रीदने की इजाज़त मिल जाएगी और इससे उनकी जनजातियां और हाशिये पर चली जाएंगी।
लेकिन हिंसा के पीछे आरक्षण का मुद्दा भी एकमात्र कारण नहीं है। अब तक की ​िहंसा में 140 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। कम से कम तीन मंत्रियों के घर जलाए जा चुके हैं। भीड़ बेकाबू होकर सेना और अन्य सुरक्षा बलों पर हमले कर रही है। हजारों की संख्या में लोग पलायन कर चुके हैं। हिंसा के पीछे की असली वजह अलग कुकी लैंड की दशकों पुरानी वजह है। यही कारण है कि ज्यादातर कुकी संगठन आधुनिकतम हथियारों को लेकर मैदान में उतर गए हैं। मैतेई और कुकी जनजाति के पुराने झगड़े ने भी आरक्षण विरोधी आंदोलन में आग में घी डालने का काम किया। महिलाएं सुरक्षा बलों के सामने आकर उपद्रवियों की ढाल बनी हुई हैं। हिंसा समाप्त करने का एकमात्र रास्ता है संवाद। समुदायों में भ्रम दूर करने के​ लिए संवाद अनिवार्य भी है। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राज्य सरकार काे भी अपनी नीतियों में परिवर्तन करना होगा और जनजातियों को विश्वास दिलाना होगा कि उनके साथ कोई अन्याय नहीं होगा। सभी राजनीतिक दलों को मणिपुर में एक संदेश देना चाहिए कि मतभेदों का हल बातचीत से सम्भव है। इसके लिए ​िंहंसा रोकना बहुत जरूरी है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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