सबसे पहले हर भारतवासी को यह स्पष्ट होना चाहिए कि पूर्वोत्तर के राज्य भारत माता का ऐसा उज्ज्वल माथा हैं जिसके हर हिस्से के हर राज्य ने प्रत्येक परिस्थिति में राष्ट्र की सुरक्षा में आहुति देने मे जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। चीन की सीमा से सटे ये राज्य भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा की अग्रिम पंक्ति रहे हैं अतः इनमें पूर्ण शान्ति व सौहार्द बनाये रखने के लिए 1947 से ही भारत की हर केन्द्र सरकार ने गंभीर प्रयास किये हैं और इन राज्यों की उग्रवाद व चरमपंथी समस्याओं का निपटारा भी किया है। 2013 तक पूर्वोत्तर के हर राज्य से चरमपंथ या उग्रवाद की समस्या सफलतापूर्वक समाप्त कर दी गई थी और सभी राज्यों के लोग अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों का प्रयोग करके अपनी चुनी हुई सरकारों के माध्यम से अपना विकास कर रहे थे। परन्तु विगत मई महीने के शुरू में इन्ही राज्यों में से एक मणिपुर में यहां की दो जनजातियों मैतई व कुकी-जोमो के बीच जो संघर्ष छिड़ा उससे यह राज्य अब गृहयुद्ध की स्थिति में पहुंचता जा रहा है क्योंकि मई से लेकर अब तक जनजातीय संघर्ष में डेढ़ सौ से अधिक लोग मर चुके हैं और साठ हजार से अधिक शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। यह कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं बल्कि राज्य के दो प्रमुख समुदायों के बीच सीधे खूनी संघर्ष का सवाल है जिसकी छाया अब करीब के दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों पर भी पड़ती दिखाई दे रही है। जब किसी भी राज्य के दो समुदायों के बीच अविश्वास पैदा हो जाता है तो वह राज्य और उसकी पूरी प्रशासनिक व्यवस्था अराजकता की स्थिति मे पहुंच जाती है। मणिपुर में हम यही देख रहे हैं।
हमें याद रखना चाहिए कि इन्ही राज्यों में से एक ‘सिक्किम’ का भारतीय संघ में विलय 1973 के करीब तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जब किया था तो यहां के लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई थी। उससे पहले सिक्किम एक स्वतन्त्र राजतन्त्र था जिसके प्रमुख चौग्याल थे। सिक्किम आज चीन की नाथूला सरहद का प्रहरी है। सभी पूर्वोत्तर राज्यों की आबादी भी बहुत अधिक नहीं है क्योंकि प्रायः ये सभी पहाड़ी राज्य है और इनमें अधिसंख्य आदिवासी लोग रहते हैं जो विभिन्न कबीलों की संस्कृति से चलते हैं। इनमें से अकेला राज्य नागालैंड ऐसा था जिसमें अंग्रेजी शासनकाल से ही विद्रोही गतिविधियां चल रही थीं। स्वतन्त्र होने के बाद भारत की सरकारों ने इस समस्या का हल भी ढूंढा और 1966 में सभी पूर्वोत्तर राज्यों के समाहित प्रदेश असम को सात राज्यों में विभाजित किया। ऐसा इसलिए किया गया जिससे हर इलाके की आदिवासी व कबीला संस्कृति अपने रंग-रूप में फल-फूल सके। पूरे पूर्वोत्तर में सभी जनजाति के लोग एक-दूसरे के साथ प्रेमभाव के साथ रहते थे और एक- दूसरे की परंपराओं व रीति-रिवाजों का सम्मान भी करते थे। परन्तु मणिपुर में आज जो हम देख रहे हैं उसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं क्योंकि इस राज्य के आदिवासी व गैर आदिवासी लोगों के बीच बढ़ते अविश्वास को हमने कम करने का प्रयास नहीं किया।
2012 में पहली बार मैतई समाज के लोगों ने मांग की कि उन्हें भी जनजाति का दर्जा दिया जाये। देश में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर चरम पर होने की वजह से राज्य की 53 प्रतिशत आबादी वाला मैतई समाज केवल 10 प्रतिशत भूमि पर घाटी के इलाकों में रहता था जबकि 40 प्रतिशत आबादी वाला कुकी-जोमी समाज 90 प्रतिशत पहाड़ी इलाके में संविधान में मिले अपने विशेष अधिकारों के साथ रहता है। पूरे पूर्वोत्तर में आदिवासी लोगों को सभ्य बनाने के लिए ईसाई मिशनरियों ने अंग्रेजी शासनकाल के दौरान ही प्रयास किये और इसके साथ ईसाई धर्म भी वहां फैलता गया। इसलिए मणिपुर में मैतई-कुकी संघर्ष के चलते पहाड़ों पर स्थित कम से कम ढाई सौ चर्च या गिरिजाघर भी जला दिये गये जिससे इस संघर्ष को साम्प्रदायिक आयाम भी मिल गया क्योंकि 80 प्रथिशत मैतई समाज हिन्दू धर्म को मानता है। सबसे खतरनाक काम यही हुआ कि यह साम्प्रदायिक रंग में रंग गया जिसके असर से अब पूर्वोत्तर के दूसरे राज्य भी प्रभावित हो रहे हैं।
मिजोरम की राजधानी एजोल में सरकारी दफ्तरों से लेकर स्कूलों, कालेजों व निजी कम्पनियों में मैतई समाज के लोग काम करते हैं। इन्हें मिजो नेशनल फ्रंट ने चेतावनी दी है कि वे उनके राज्य से बाहर चले जायें। इसके साथ ही मिजोरम के मिजो जनजाति लोगों के साथ कुकी-जोमी जनजाति के लोगों की बहुत समानता भी रही है। इस वजह से मैतई समुदाय के लोगों को एजोल से हवाई जहाज से वापस मणिपुर लाने के लिए यहां की राज्य सरकार ने हामी भर दी है। क्या यह उस भारत का चित्र है जिस भारत के विभिन्न राज्यों में दूसरे राज्यों के लोग रोजी-रोटी कमाने जाते हैं? संविधान कहता है कि इस देश का कोई भी नागरिक किसी भी राज्य में जाकर बस सकता है और अपना काम-धंधा कर सकता है। इन्ही पूर्वोत्तर के राज्यों में आज भी हजारों मारवाड़ी व्यापारी कार्यरत हैं (बेशक कुछ संरक्षण संविधान ने स्थानीय लोगों को दिये हुए हैं)।
गंभीर सवाल यह है कि यदि पूर्वोतर के राज्यों में साम्प्रदायिक आधार और आदिवासी व गैर आदिवासी आधार पर हिंसा फैलने लगी तो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी समस्या हो सकती है। मणिपुर का मसला इसके साथ ही जो अन्तर्राष्ट्रीय आयाम ले रहा है वह भी भारत की साख के लिए बहुत चिन्ताजनक है क्योंकि मणिपुर की समस्या मूलतः मानवीय समस्या ही है जिसमें एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के खून का प्यासा बना हुआ है। यूरोपीय संघ की संसद से लेकर ब्रिटेन की संसद तक में इस पर चर्चा हो रही है।