मणिपुर कई बार हिंसा की लपटों में जला। जबकि सरकारें यह दावा करती आ रही हैं कि मणिपुर अब शांत क्षेत्र में बदल गया है। पिछले साल और इस वर्ष राज्य के कई जिलों को अफ्सपा कानून के दायरे से बाहर भी कर दिया गया था लेकिन राज्य में हाल ही में हुई हिंसा ने एक बार फिर कई सवाल खड़े कर दिए। मणिपुर की हिंसा कोई सामान्य हिसा नहीं है। एके-47 से फायरिंग से लेकर कई धर्मस्थलों, घरों और वाहनों को आग के हवाले कर देना छोटी बात नहीं है। उपद्रवियों के हाथों में भारी संख्या में हथियार देखकर प्रथम दृष्टि में यही दिखाई दिया कि वे सत्ता को खुली चुनौती दे रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि हिंसा में 54 लोगों के मारे जाने का आंकड़ा तीन दिन बाद सार्वजनिक किया गया। हालात इस हद तक बिगड़ गए कि 25 हजार लोगों को हिंसाग्रस्त क्षेत्राें से निकालकर राहत कैम्पों और सैनिक छावनियों में ले जाया गया। सेना के दस हजार जवानों को शांति कायम करने के लिए ले जाया गया। विविधता में एकता ही अवधारणा अमूर्त नहीं है। इस एकता को मजबूत करने के लिए शासन व्यवस्था को बहुत प्रयास करने पड़ते हैं। संघर्ष की स्थितियां तब उत्पन्न होती हैं जब एक वर्ग महसूस करता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है।
उनकी संस्कृति और विशिष्ट पहचान खतरे में है। मणिपुर की हिंसा पहाड़ी और घाटी की पहचान के विभाजन का ही परिणाम है लेकिन इस हिंसा को टाला जा सकता था। दरअसल राज्य के नगा और कुकी यानि आदिवासी समुदाय को यह लगने लगा था कि उनके साथ पक्षपात किया जा रहा है और मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की मांग एक सियासी खेल है। आल ट्राइबल स्टूडैंट यूनियन ऑफ मणिपुर का कहना है कि मैतेई समुदाय की भाषा संविधान की आठवीं सूची में शामिल है और इनमें से कईयों को अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) का फायदा मिल रहा है। आदिवासियों को डर है कि मैतेई समुदाय का सत्ता में पहले से ही वर्चस्व है। अगर मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा दिया गया तो यह पहाड़ी आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षण के दायरे को खत्म कर देगा। आदिवासी नेताओं ने इस मुद्दे को लेकर घाटी विरोधी भावनाओं को भड़काया।
आदिवासी समूहों के विरोध के पीछे राज्य सरकार के पक्षपातपूर्ण रवैये के खिलाफ लगातार बढ़ रहा असंतोष भी एक कारण है। सरकार समर्थक समूहों का कहना है कि जनजाति समूह अपने हितों को साधने के लिए मुख्यमंत्री वीरेन सिह को सत्ता से हटाना चाहते हैं। क्योंकि उन्होंने ड्रग्स के खिलाफ जंग छेड़ रखी है। वीरेन सरकार ने मादक पदार्थों के खिलाफ युद्ध में बेदखली अभियान चलाया था जिसमें मार्च में कुकी समुदाय का एक गांव भी शिकार हुआ था। इस अभियान की मार अवैध प्रवासियों पर भी पड़ी जिन्हें म्यांमार से जुड़ा अवैध प्रवासी बताया जा रहा है। वे मणिपुर केे कुकी जोमो जनजाति से ताल्लुक रखते हैं। वन संरक्षण के नाम पर बाहरी लोगों को हटाने के नाम पर जिस ढंग से लोगों को गांव से बेदखल किया गया उससे आजीविका के लिए पहाड़ पर निर्भर समुदाय के बीच आक्रोश बढ़ता ही चला गया। प्रभावित लोगों के पुनर्वास और मुआवजे की घोषणा किए बिना ऐसा करने से हजारों लोगों पर आजीविका की तलवार लटक गई। जिसके परिणामस्वरूप विध्वंसकारी हिंसा सामने आई। मैतेई समुदाय का बड़ा हिस्सा हिन्दू है और बाकी मुस्लिम। प्रदेश के जिन 33 समुदायों को जनजाति का दर्जा मिला है वे नगा और कुकी जाति से हैं। इन दोनों जनजातियों के लोग मुख्य रूप से ईसाई हैं। राज्य की अनुसूचित जनजाति समूहों को ही पहाड़ों पर जमीन खरीदने और बसने का अधिकार है। वन संरक्षण के नाम पर राज्य सरकार ने अति उत्साह में बेदखली अभियान तो चला दिया लेकिन आदिवासियों का कहना है कि यह उनकी पैतृक जमीन है। उन्होंने कोई अतितक्रमण नहीं किया बल्कि वह सालों से यहां रहते आ रहे हैं।
सरकार के इस अभियान काे आदिवासियों ने अपनी पैतृक जमीन से हटाने की तरह पेश किया जिससे भीतर ही भीतर चिंगारियां सुलग रही थी। जिसने अंतत: आग की लपटों का रूप धारण कर लिया। अब हालात यह हैं कि राज्य में हर समुदाय भयभीत होकर बैठा है। ईसाई आबादी खुद को असुरक्षित महसूस कर रही है। सरकार के सामने विस्थापित हुए हजारों लोगों की घर वापसी की चुनौती सामने है। अन्य राज्यों के मणिपुर में फंसे हुए लोगों को निकालने का काम किया जा रहा है। स्थिति का फायदा उठाने के लिए निजी विमान कंपनियों ने किराया बढ़ा दिया है। मणिपुर सहित पूूर्वोत्तर में विद्रोही संगठनों के म्यांमार के सशस्त्र समूहों के साथ संबंध हैं जहां से वे चीनी हथियार प्राप्त करते हैं ताकि विद्रोही संगठन दोबारा से कोई बड़ी साजिश न कर सके। दरअसल मणिपुर जातीय मकड़जाल में इतना उलझा हुआ है कि अगर राज्य सरकार ने सभी को विश्वास में लेकर गिले-शिकवे शांत नहीं किए तो यह आग असानी से नहीं बुझेगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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