तेजी से हो रहे सामाजिक बदलाव के इस दौर में अब पुरुष भी खुद को लाचार और असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। यही वजह है कि महिला आयोग के जवाब में अब पुरुष आयोग की मांग उठने लगी है। बहुत साल हुए, मेरे एक वकील मित्र ने पत्नी पीड़ित संघ का गठन किया था और वह घरेलू मामलों में पीड़ित पतियों को कानूनी परामर्श देने का काम करते थे। अब पुरुष आयोग के गठन की मांग को विभिन्न स्वयंसेवी संगठन भी उठा रहे हैं और समाज के कई वर्गों का इस मांग का समर्थन भी प्राप्त होता दिखाई दे रहा है। भाजपा के दो सांसदों ने भी ऐसी ही मांग दोहराई है और दोनों ने ही यह मांग लोकसभा में उठाने का वायदा भी किया है। नारी सशक्तिकरण के युग में पुरुषों के अधिकारों को अनदेखा किया जा रहा है जिसके चलते पुरुष आत्महत्याएं कर रहे हैं आैर संयुक्त पिरवार बिखरते जा रहे हैं। 10 वर्षों के एनसीआरबी के आंकड़े खुद बयां कर रहे हैं कि पुरुष महिलाओं की तुलना में दोगुनी संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हैं। यह बात भी अब स्पष्ट हो चुकी है कि महिला ही नहीं, पुरुष भी घरेलू हिंसा के शिकार होते हैं जिसके चलते मौजूदा दौर में लड़ाई-झगड़ों के चलते संयुक्त परिवार टूट रहे हैं।
कानून की नजर में पुरुष आैर महिला बराबर हैं लेकिन संविधान में महिलाओं के हक में कानून कुछ ज्यादा ही है। खासतौर पर बहू के लिए, जबकि पति के लिए कोई कानून नहीं। वह जब चाहे उन पर दहेज एक्ट के तहत मुकद्दमा दर्ज करा सकती है, भले ही शादी को 10 वर्ष से भी अधिक का समय हो चुका हो। दहेज उत्पीड़न कानून 498ए का जितना दुरुपयोग भारत में हुआ है, उतना किसी कानून का नहीं हुआ। हमारे देश में 80 के दशक में महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक बड़ा मुद्दा बन गई थी। ऐसा पाया गया कि पिरवार नाम के दायरे के भीतर मिहलाओं के खिलाफ हिंसा की प्रमुख वजहों में से एक दहेज भी है। महिलाएं स्टोव की आग में जल रही थीं, अखबारों के पन्ने एेसी खबरों से भरे रहते थे। इसी असमंजस में मिहला आंदोलन के दबाव में भारतीय दण्ड संहिता में 498ए वजूद में आया। प्रथम दृष्टि में यह कानून महिला पर पति या पति के रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता करने की हालत में बचाने वाला कानून है आैर यह कानून क्रूरता की पिरभाषा भी बताता है।
इस कानून के चलते महिलाएं पतियों के साथ-साथ उनके रिश्तेदारों के विरुद्ध भी मुकद्दमा दर्ज कराने लगीं। इसकी जद में वह लोग भी आ गए जो कभी-कभार ही उनके घरों में आते थे। सुप्रीम कोर्ट ने स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए 498ए पर अहम निर्देश भी िदए थे। इनमें सबसे अहम निर्देश था कि पुलिस ऐसी किसी भी शिकायत पर तुरन्त गिरफ्तारी नहीं करेगी। महिला की शिकायत सही है या नहीं, पहले इसकी पड़ताल होगी। पड़ताल तीन लोगों की अलग बनने वाली समिति करेगी। यह समिति पुलिस की नहीं होगी। यह बात भी सही है कि घरेलू हिंसा से जुड़े मामलों को एकपक्षीय होकर नहीं देखा जा सकता। पुरुषों के मामले में भी जांच निष्पक्ष होनी चाहिए। कई केसों में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि महिलाएं बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आरोप लगाती हैं जबकि वास्तव में ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था। कुछ केसों में न्यायालय ने पति के रिश्तेदारों को भी रिहा कर दिया क्योंकि उनका कोई लेना-देना ही नहीं था। टकराव की वजह कुछ आैर होती है लेकिन पति पर सीधा केस दर्ज कराया जाता है। दहेज प्रताड़ना की लपेट में आ जाते हैं सास, ससुर, ननद, जेठ, जेठानी आैर अन्य। एक बार ऐसा होने से ऐसे पिरवार का सामाजिक बहिष्कार हो जाता है। लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखना शुरू कर देते हैं।
पति कई बार डिप्रेशन का शिकार होकर अपनी जान दे देते हैं। एक बार जेल में बन्द रहने और जमानत पर आने के बाद हृदय में इतनी घृणा पैदा हो जाती है कि परिवारों के पुनः मिलने की कोई सम्भावना ही नहीं बचती। दरअसल महिला आंदोलनों के चलते आैर दबाव में केन्द्र सरकारें एकपक्षीय कानून बनाती गईं, जो महिलाओं के हितों की रक्षा तो करते हैं लेकिन वास्तविक न्याय के पहलू को नजरंदाज किया गया। दामिनी गैंगरेप के बाद बलात्कार कानून भी कड़े किए गए लेकिन न तो बलात्कार कम हुए और न ही हिंसा। कानून कहता है कि न्याय तभी होगा जब आरोपी को भी अपना पक्ष रखने की अनुमति दी जाए। आज महिलाएं पुरुषों की तरह योजनाबद्ध तरीके से अपराधों को अन्जाम देती नजर आ रही हैं। बढ़ते शहरीकरण, पुरुषों के साथ बराबरी की होड़ आैर सामाजिक-आर्थिक स्रोतों पर महिलाओं का भी बढ़ता नियंत्रण तथा उन्मुक्त वातावरण, इन सबके चलते महिलाओं की छवि छुई-मुई वाली नहीं रह गई।
आजकल शराब पीकर हंगामा करने की खबरें महिलाओं की ही अा रही हैं। कभी थाने में हंगामा तो कभी सड़कों पर। प्रेम-प्रसंगों में बाधा बन रहे पतियों की हत्याएं तक हो रही हैं। सैक्स रैकेट से ड्रग्स के धंधे में भी महिलाएं लिप्त हैं इसलिए यह विश्वास कैसे िकया जा सकता है कि घरेलू हिंसा में केवल पुरुष ही दोषी होंगे। अगर सर्वेक्षण कराया जाए तो महिलाओं के साथ पुरुष भी घरेलू हिंसा से पीड़ित पाए जाएंगे। अक्सर होता है कि कानून में संशोधन का प्रस्ताव समाज में एक बहस को जन्म देते हैं। ऐसे में पुरुष आयोग बनाने की मांग गलत नहीं है। इस बार गम्भीर बहस छेड़ी जानी चाहिए। कुछ लोग इस विषय का उपहास उड़ा सकते हैं लेकिन पुरुषों की सुनवाई के लिए भी एक अलग सिस्टम होना ही चाहिए, जहां वे अपनी बात रख सकें। कानून में संशोधन किए जाते रहे क्योंकि न्याय की मूल धारणा ही निष्पक्ष न्याय है।