स्वतन्त्र भारत में जिस न्यायप्रणाली का गठन किया गया और जो न्यायिक तन्त्र स्थापित हुआ उसने समय–समय पर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को इस तरह मजबूत किया कि आम आदमी के मूलभूत अधिकारों के संरक्षण के साथ ही यह शासन और सत्ता को सर्वदा इंसाफ के हक में खड़ा कर सके। पिछले दो-तीन दिनों से देश का सर्वोच्च न्यायालय उन महत्वपूर्ण सामाजिक व राजनैतिक मसलों पर फैसले सुना रहा है जिनका सम्बन्ध सीधे आम आदमी से है। चाहे आधार कार्ड का मामला हो या अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों का या फिर आरक्षण में प्रोन्नति का अथवा केरल के सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का या अयोध्या में राम जन्म स्थान का या फिर कथित तौर पर माओवादी बुद्धिजीवियों की महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तारी का। सभी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के न्ययमूर्तियों ने विचारार्थ गठित पीठों में बहुमत के आधार पर जो भी फैसले दिये हैं उनसे भारत के लोगों का विश्वास न्यायप्रणाली में और दृढ़ हुआ है। बेशक इन पीठों में अल्पमत में रहे न्यायामूर्तियों का भी अपना अलग मत कम महत्वूर्ण नहीं कहा जा सकता। इसका मतलब यही निकलता है कि न्याय की कसौटी पर जब कोई भी विषय लाया जाता है तो उसके दोनों पक्षों पर ही न्यायप्रणाली गहन विचार करके उस निष्कर्ष पर पहुंचती है जो बहुमत की राय होती है। सबसे महत्वपूर्ण आधार कार्ड के मुद्दे पर न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ का वह अल्पमत फैसला कहा जायेगा जिसमें उन्होंने आधार कानून को असंवैधानिक तक बताने में गुरेज नहीं किया और स्पष्ट किया कि संसद के निचले सदन लोकसभा में आधार विधेयक को धन विधेयक (मनीबिल) के तौर पर पारित करके इस पर उच्च सदन राज्यसभा को बहस करने से महरूम रखा गया।
हकीकत यही रहेगी कि आधार विधेयक के जिन विभिन्न सामाजिक व आर्थिक पहलुओं पर सर्वोच्च न्यायालय में वकीलों की दलील के आधार पर बहस हुई है वह वास्तव में राज्यसभा में होनी चाहिए थी और इस सदन में बैठे हुए राजनीतिज्ञों को आम जनता के समक्ष आने वाली कठिनाइयों पर अपने विचार व्यक्त करने चाहिए थे। इससे यह भी साबित होता है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा की जो व्यवस्था संसदीय प्रणाली में की थी उसकी महत्ता हम किसी भी तौर पर कम नहीं कर सकते हैं। साथ ही न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने कथित माओवादी विचारकों के खिलाफ की गई पुलिस कार्रवाई को भी अनुचित बताते हुए महाराष्ट्र पुलिस के पेश किये गये दावों को सन्देहास्पद मानते हुए पूरे मामले को विशेष जांच दल को सौंपने की जरूरत बताई। मगर ये सब अल्पमत के फैसले हैं जो कार्यरूप में नहीं आयेंगे फिर भी ये कानूनी दलीलें सुनने के बाद न्यायमूर्ति का अपना निष्कर्ष है लेकिन सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश के मामले में आज जहां बहुमत से सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया कि केरल स्थित इस हिन्दू मन्दिर में किसी भी आयु वर्ग की महिलाएं प्रवेश कर सकती हैं, वहीं अल्पमत में बैठी एकमात्र महिला न्यायमूर्ति श्रीमती इन्दु मल्होत्रा ने इसके विरुद्ध अपना फैसला दिया और कहा कि धर्म की परिपाठी और परंपरा में एक समानता का मामला कानून के घेरे में नहीं लाया जाना चाहिए। तीन सदस्यों वाली पीठ में वह अकेली महिला न्यायाधीश हैं। एक महिला होने के नाते उनके मत को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता।
यदि हम गौर से देखें तो स्त्री और पुरुष को संविधान एक समान अधिकार देता है मगर दोनों शारीरिक तौर पर एक जैसे नहीं हैं। प्रकृति ने स्त्री और पुरुष को अपने–अपने विशिष्ट गुणों से परिपूरित किया हुआ है। धर्म का संविधान में केवल यही स्थान है कि प्रत्येक नागरिक को अपने विश्वास के अनुसार अपने धर्म का पालन करने और उसके प्रचार–प्रसार का अधिकार है। यह व्यक्तिगत अधिकार है सामूहिक नहीं लेकिन राम जन्म भूमि मामले में न्यायमूर्ति एस.ए. नजीर का फैसला था कि 1994 के सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को संविधान पीठ को सौंपा जाना चाहिए जिसमें कहा गया था कि मस्जिद इस्लाम का अनन्य हिस्सा नहीं है और नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है। वस्तुतः यह विषय एेसा है जिसका ताल्लुक धर्म के भीतर स्थापित उन परंपराओं या मान्यताओं से है जो धार्मिक स्थानों को सामाजिक जायदाद में बदल देते हैं परन्तु एेसा नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय में अल्पमत और बहुमत के फैसले आना कोई नई बात है। तीन तलाक के मामले में इसी न्यायालय ने बहुमत से फैसला दिया था कि इस्लाम के नाम पर जारी इस प्रथा का इस्लाम से ही कोई लेना-देना है अतः इस प्रकार का तलाक पूरी तरह असंवैधानिक होगा जबकि अल्पमत का फैसला था कि संसद चाहे तो इस बारे में कोई नया कानून ला सकती है किन्तु सरकार ने अल्पमत के फैसले के आधार पर नया कानून अध्यादेश की मार्फत बनाया। मगर इससे भी बहुत पहले जब 1969 तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने बहुमत से ही फैसला देकर इसे निरस्त कर दिया था जबकि अल्पमत में रहे दो न्यामूर्तियों ने बैकों के राष्ट्रीयकरण के हक में फैसला दिया था।
ठीक यही स्थिति इसके कुछ समय बाद राजा–महाराजाओं के प्रिवीपर्स उन्मूलन के श्रीमती गांधी के फैसले पर बनी थी। बहुमत ने इसे अवैध करार दिया था और अल्पमत ने सही ठहराया था। इसी वजह से तब सरकार को संविधान में संशोधन करना पड़ा था। मगर यह कार्य तभी हो पाया था जब 1971 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की नई कांग्रेस को संसद में दो तिहाई बहुमत प्राप्त हो गया था। कहने का मतलब सिर्फ इतना सा है कि जब न्यायपालिका भी बहुमत और अल्पमत में बंट जाती है तो प्रजातन्त्र की आवाज भी खुल जाती है और विचार–विनिमय का रास्ता मजबूत होता है। फैसला बहुमत का ही लागू होता है क्योंकि लोकतन्त्र का मूल यही है कि ‘बहुमत का शासन’।