लोकतन्त्र में जब धर्म (मजहब) और राजनीति का घालमेल होता है तो सत्ता के तन्त्र के कर्त्तव्य विमुख होने का गंभीर खतरा पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में राजशाही के दौरान भी राजदरबारों में राजगुरु व राज-पुरोहितों की अलग-अलग भूमिका रही है। राजगुरु जहां राजा को राजधर्म का पालन करने की सलाह देता था वहीं राज-पुरोहित राजा के निजी धार्मिक कर्मकांडों को पूरा करने का कर्त्तव्य निभाता था। राजधर्म वह धर्म या कर्त्तव्य होता था जो सभी धर्मों से सबसे ऊपर होता था और जिसमें राजा का जनता के प्रति कर्त्तव्य निहित होता था। प्रयागराज में महाकुंभ के अवसर पर भारी भीड़ होने पर जिस प्रकार की त्रासदी घटित हुई है उसकी जिम्मेदारी सत्ता तन्त्र को ही लेनी होगी। यह विडम्बना है जो कुंभ क्षेत्र के इतिहास में स्वतन्त्र भारत में दूसरी बार हुई है। ये पंक्तियां लिखे जाने के वक्त तक सरकारी तन्त्र ने यह सूचना नहीं दी थी कि भगदड़ में कितने लोगों की मृत्यु हुई। मगर लोकतन्त्र में सच छिपाने से नहीं छिप पाता है अतः गैर सरकारी सूत्रों से पता चल रहा है कि भगदड़ में मरने वालों की संख्या काफी अधिक हो सकती है जबकि 38 लोगों के मरने की पुष्टि गैर सरकारी स्थानीय सूत्र अपने-अपने इलाकों में कर चुके हैं।
1954 के कुंभ में मची भगदड़ में सरकारी तौर पर 400 लोगों की मृत्यु हुई थी जबकि गैर सरकारी सूत्रों ने यह संख्या 800 बताई थी। कुंभ के अवसर पर 2013 में भी इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में 48 लोगों के मरने की पुष्टि हुई थी मगर यह भगदड़ मेला क्षेत्र में नहीं हुई थी। मूलतः कुंभ का मेला पूरी तरह धार्मिक व अध्यात्मिक होता है। इसका इतिहास कितना पुराना है इस बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं मगर इतना निश्चित लगता है कि इसकी परंपरा आठवीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य के सनातन पुनर्जागरण दौर में तो हुई ही होगी क्योंकि उन्होंने ही साधुओं के अखाड़ों की शुरूआत की थी। कुंभ में सभी अखाड़ों के साधू-संन्यासियों व कल्पवासियों के स्नान का सम्बन्ध आध्यात्मिक क्रियाकलाप से जाकर जुड़ता है। यही वजह है कि इन अखाड़ों के संन्यासियों के कुंभ स्नान के बाद ही आमजन स्नान करते हैं।
भारत उत्सवों का देश माना जाता है और यहां की जनता धर्म परायण समझी जाती है अतः वह स्थान बहुत पवित्र व पूज्य हो जाता है जहां जग से वैराग्य रखने वाले साधु-सन्त स्वयं को पवित्र रखने का उपक्रम करते हैं। इसके साथ यह भी सत्य है कि ईरान से लेकर वियतनाम तक फैले बौद्ध धर्म के ‘पराभव’ के बाद ही भारत में सनातन धर्म का पुनः जागरण हुआ था अतः साधु-सन्तों का अनुकरण करने की परिपाठी भी इसी दौर में शुरू हुई होगी। भारत में बौद्ध धर्म का उदय स्वयं में एक क्रान्ति थी क्योंकि इस दौर में भारतीय समाज जाति विहीन व कर्मकांड विहीन था। इसके जवाब में आदिशंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म की परंपराओं का प्रारम्भ करना संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर के अनुसार ‘प्रति क्रान्ति’ थी। यदि हम इस दार्शनिक पचड़े में ना भी पड़ें तो पायेंगे भारत की ‘धर्म-प्राण’ जनता ‘गतानुगतिको लोकः’( एक-दूसरे की रीस) की शिकार रही है जिसमें धार्मिक गतिविधियां केन्द्र में रहती हैं। मगर धर्म व संस्कृति के बीच बहुत महीन अन्तर होता है। कुंभ का मेला धार्मिक व सांस्कृतिक गतिविधियों का संगम है । बेशक यह हिन्दू आस्थाओं का केन्द्र है मगर सामाजिक रूप से यह भारत के विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोगों का उपक्रम भी है क्योंकि इसकी व्यवस्था व प्रबन्ध में सभी धर्मों के लोग शामिल रहते हैं। उन सभी के सामूहिक प्रयत्नों से ही हर छह साल बाद अर्ध कुंभ व 12 वर्ष बाद कुंभ के मेले का आयोजन संभव हो पाता है। मगर यह भी सच है कि धार्मिक मेलों का देश की गरीबी से कोई सम्बन्ध नहीं होता। प्रयाग में गंगा-जमुना-सरस्वती के संगम से गरीबी का क्या लेना-देना हो सकता है? इसका बहुत सुन्दर चित्रण कवि नरेन्द्र मिश्र ने अपनी एक कविता में किया था। उसी कविता का मुखड़ा है कि,
मेरा भारत देश कि जिसकी
माटी स्वर्ग समान है
भूखा-नंगा देश कि जिसके
कण-कण में भगवान है।
अतः आस्था और गरीबी दोनों का कोई मेल नहीं बैठता है। क्योंकि भारत की कुल 140 करोड़ आबादी में आज भी 81 करोड़ लोग एेसे हैं जिन्हें सरकार दो वक्त का मुफ्त राशन मुहैया कराती है। इसका मतलब सीधा-सादा है कि परंपराओं व रूढि़यों से ग्रस्त भारतीय समाज में धार्मिक मान्यताएं यथा स्थितिवाद को ही पुष्ट करती हैं। यह तर्क केवल हिन्दू मान्यताओं पर ही लागू नहीं होता बल्कि हर धर्म के मानने वालों पर लागू होता है। हम जानते हैं कि जब दुनिया के विभिन्न देशों में राजनीति मजहब के दायरे में थी तो उस दौर को अन्धा युग (डार्क एजेस) कहा जाता है। मगर भारत तो धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है जो संविधान से चलता है और संविधान में प्रत्येक धर्म का बराबर सम्मान करने की चेतना व्याप्त है इसलिए किसी भी धर्म के आयोजन समारोहों या उत्सवों में सरकार की भूमिका केवल कानून व्यवस्था बनाये रखने तक ही सीमित रहती है। इनके बहाने सरकार खुद धार्मिक नहीं हो सकती। लोकतन्त्र में किसी भी राजनैतिक पार्टी की सरकार लोगों की या जनता की सरकार ही होती है अतः जनता के अच्छे-बुरे को देखना इसका पहला कर्त्तव्य होता है। इसमें एेसे धार्मिक आयोजनों को सरकारी आयोजनों में तब्दील करने की गुंजाइश लेशमात्र भी नहीं होती। इसी सिद्धान्त के चलते हम लोकतन्त्र या गणतन्त्र कहलाते हैं।