महाकुम्भ का महोत्सव - Punjab Kesari
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महाकुम्भ का महोत्सव

भारत मूल रूप से उत्सवों व तीज-त्यौहारों का देश है।

भारत मूल रूप से उत्सवों व तीज-त्यौहारों का देश है। इसकी संस्कृति धार्मिक यात्राओं के महोत्सवों का समागम भी है। इन धार्मिक उत्सवों का विस्तार भारत की भौगोलिक सीमाओं का निर्धारण तक इस प्रकार करता रहा है कि यह विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बांधे रखता है। यह सांस्कृतिक एकता मजहब से ऊपर रही है, क्योंकि ऐसे उत्सवों के आयोजन में सभी धार्मिक अनुयायियों की भागीदारी रही है। ऐसे उत्सव भारत की विविधता का भी प्रदर्शन करते रहे हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण व पूर्व से लेकर पश्चिम तक के राज्य इसी सांस्कृतिक एकता के धागे से बन्धे रहे हैं इसलिए जब हम भारत को विविधता में एकता वाला देश कहते हैं तो किसी एक धर्म का चित्र हमारी आंखों के सामने नहीं उभरता है बल्कि विविध धर्मों की इन्द्रधनुषी छटा हमारे सामने आती है। ऐसे ही महोत्सवों में से एक कुम्भ महोत्सव भी है जो 12 वर्ष बाद चुनिंदा तीर्थ स्थानों में से किसी एक स्थान पर पड़ता है। इसके साथ ही इन स्थानों पर छह वर्ष बाद अर्धकुम्भ भी होता है।

इस बार महाकुम्भ प्रयागराज (इलाहाबाद) में पड़ा है। यह कुम्भ सोमवार से शुरू हो चुका है जो अगले 44 दिन तक महाशिवरात्रि के दिन तक चलेगा। एेसे उत्सवों में पूरे देश से लोगों का आना बताता है कि भारत की सांस्कृतिक एकता कितनी मजबूत है और इसकी बुनावट कितनी समृद्ध है। स्पष्ट है कि ऐसे आयोजन भारत के लोगों में आपसी प्रेम व भाईचारे की भावना के उत्प्रेरक होते हैं और एक-दूसरे को भीतर से जोड़ते हैं। प्रयागराज में भारत की तीन नदियां गंगा-जमुना व अदृश्य सरस्वती आकर मिलती हैं। इनके संगम को त्रिवेणी कहा जाता है। इसी त्रिवेणी घाट पर जब लाखों लोग विभिन्न शुभ मुहूर्तों पर स्नान करते हैं तो उन्हें पुण्य भागी माना जाता है। निश्चित रूप से इस पुण्य का सम्बन्ध हिन्दू धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आस्था से जुड़ा हुआ है परन्तु लाखों-करोड़ों लोगों के लिए स्नान की व्यवस्था करने में सभी धर्मों के लोगों का योगदान रहता है। इस बार अनुमान है कि प्रयागराज में कम से कम 40 करोड़ लोग स्नान करने आयेंगे। इतनी विशाल जनसंख्या के लोगों के लिए रहने-ठहरने व खाने-पीने की व्यवस्था करना कोई साधारण कार्य नहीं है अतः सत्ता पर काबिज सरकारें इस कार्य में सहयोग करती हैं। इसके साथ ही विभिन्न काम-धंधों में लगे लोग भी इस आयोजन में सम्मिलित होते हैं जो अलग-अलग धर्मों के मानने वाले होते हैं।

दुनिया में एक सौ से अधिक ऐसे देश हैं जिनकी जनसंख्या 40 करोड़ से कम है अतः महाकुम्भ के लिए तैयारी कोई साधारण काम नहीं है। इसी वजह से कुम्भ स्थल को सरकार नवनिर्मित प्रशासन स्थल के रूप में विकसित करती है जिससे कानून- व्यवस्था से लेकर यातायात व अन्य नागरिक सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। इस आयोजन की विशालता का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सोमवार को कुम्भ स्नान शुरू होने से पहले ही रविवार को लगभग 50 लाख लोगों ने त्रिवेणी में स्नान किया। ऐसे महोत्सवों के आयोजन में राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं होता है अतः कुम्भ शुरू होने से पहले कुछ धार्मिक गुरुओं के जो वक्तव्य आ रहे थे उन्हें मर्यादित करने का कार्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्री योगी आदित्यनाथ ने किया। कुम्भ में कुछ तत्व राजनीतिक अवसर ढूंढ रहे थे और कह रहे थे कि कुम्भ हिन्दुओं का महोत्सव है तो इसके आयोजन से मुस्लिम धर्मावलम्बियों को अलग रहना चाहिए और उन्हें इसमें दुकानें लगाने समेत आर्थिक गतिविधियों से अलग रहना चाहिए।

इसका उत्तर योगी जी ने यह कहकर दिया कि कुम्भ का महोत्सव धर्म-जाति व सम्प्रदाय से ऊपर उठकर इसे मनाने का है। इसमें भाग लेने से किसी भी धर्म के लोगों को रोका नहीं जा सकता है। हकीकत भी यही है कि कुम्भ महोत्सव में बेशक हिन्दू साधुओं के 13 अखाड़े भाग लेते हों मगर इन अखाड़ों की शोभा यात्राओं को भव्य बनाने के लिए बैंड-बाजों को आगे रखा जाता है। इन बैंड-बाजों में 90 प्रतिशत कलाकार व फनकार मुस्लिम ही होते हैं जो इन अखाड़ों की भव्यता में चार चांद लगाते हैं। वर्षों से ये बैंड-बाजे इन अखाड़ों के साथ मिलकर काम करते आ रहे हैं। इसी प्रकार अन्य आर्थिक गतिविधियों में भी मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों की शिरकत निश्चित रहती है जिसमें लाखों लोगों के लिए कुम्भ क्षेत्र में नये फौरी शहर निर्माण करना तक शामिल रहता है।अतः ऐसे अवसरों पर साम्प्रदायिक दृष्टि रखना स्वयं को ही पूरे समन्वित भारतीय समाज से विच्छेद करने के बराबर समझा जायेगा।

कुम्भ जैसे महापर्व का आयोजन बिना मुस्लिम नागरिकों की शिरकत के होना ही संभव नहीं है क्योंकि टेंट लगाने से लेकर बिजली की व्यवस्था करने व यातायात व्यवस्था सृजित करने तक के क्षेत्र में उनकी हिस्सेदारी रहती है। भारत की वास्तविकता यह है कि बिना मुस्लिम कलाकारों और फनकारों की शिरकत के हिन्दुओं का दीपावली जैसा त्यौहार भी नहीं मन सकता है। यहां तक कि हिन्दुओं का दूल्हा भी मुस्लिम सईस द्वारा लाई गई घाेड़ा पर चढ़कर ही अपनी दुल्हन लेने जाता है। अतः भारत के त्यौहार भी इसकी मिलीजुली गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक होते हैं। महाकुम्भ तो भारत की अनूठी मिलीजुली संस्कृति का झंडाबरदार माना जाता है।

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