लिंगायत से उपजा ‘वर्गभेद’ - Punjab Kesari
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लिंगायत से उपजा ‘वर्गभेद’

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भारत में धर्म को पहचान बनाकर राजनीति करना कोई नया प्रयोग नहीं है। पूरी दुनिया गवाह है कि किस तरह 1947 में इसी आधार पर देश को बांटकर नया मुल्क पाकिस्तान बनाया गया मगर इस मुल्क को बनाने के लिए उन नागरिकों को आपस में एक-दूसरे के खून का प्यासा बनाया गया जिन्हें तब तक हिन्दोस्तानी ही कहा जाता था लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि हिन्दू और मुसलमान की राजनीति करने वाले लोग स्वयं क्या किसी धर्म की उपासना पद्धति में विश्वास रखते थे? क्या वे स्वयं उस पद्धति या पूजा-अर्चना विधि में विश्वास रखते थे जो किसी भी व्यक्ति की पहचान हिन्दू या मुसलमान के रूप में करती थी? यदि हम तथ्यों का वैज्ञानिक विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि हिन्दू-मुसलमान के आधार पर दो राष्ट्र का दर्शन देने वाले हिन्दू व मुसलमान की पहचान रखने वाले न तो वीर सावरकर और न ही मुहम्मद अली जिन्ना किसी पूजा-पाठ या इबादत में यकीन रखते थे।

हिन्दू महासभा के नेता वीर सावरकर निजी रूप में एक नास्तिक थे। उनका ईश्वर की सत्ता पर विश्वास नहीं था। दूसरी तरफ मुहम्मद अली जिन्ना अपनी पूरी जीवन शैली में एक अंग्रेज की मानिन्द थे। वह कभी नमाज नहीं पढ़ते थे और न ही किसी मस्जिद या दरगाह अथवा जियारत को जाते थे। व्यक्तिगत रूप से इन दोनों का ही हिन्दू या मुसलमान होना एक प्राकृतिक घटना थी क्योंकि दोनों का ही जन्म इन दोनों धर्मों के मानने वाले माता-पिता के घरों में हुआ था मगर वीर सावरकर ने जहां ‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण’ का दर्शन देने की कोशिश की वहीं जिन्ना ने मुस्लिमों की पृथक राष्ट्रीय पहचान को वैधानिक स्वरूप देने की मुहिम छेड़ी वहीं सावरकर ने भारत के हिन्दू राष्ट्र होने की स्थापना को यहां के नागरिकों की उस पहचान से जोड़ा जो उन्हें विदेशी आक्रान्ताओं ने दी थी।

जाहिर है कि सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण किया था तो यहां के नागरिक हिन्दू नहीं कहलाये जाते थे। कुछ विद्वान इतिहासकारों के मत में पांचवीं सदी में हूणों द्वारा भारत पर किये गये आक्रमण के बाद इस शब्द की उत्पत्ति हुई और बाद में सातवीं सदी के अन्त में मुस्लिम आक्रान्ताओं ने यहां के नागरिकों को हिन्दू नाम से पुकारा। यह भी मत है कि गुरु नानकदेव जी महाराज ने भारत के हिन्दोस्तान नाम को स्वीकार्यता दी। अतः स्पष्ट रूप से हिन्दू शब्द का धर्म से किसी प्रकार का लेना-देना नहीं है क्योंकि सिकन्दर के समय से इस देश में जैन धर्म के अलावा दक्षिण में मूर्तिपूजा करने वाले भारतीयों की अलग-अलग धार्मिक पहचान थी।

ये स्वयं को हिन्दू नहीं कहते थे। इसके साथ ही भारत में बौद्ध धर्म के उदय के साथ यहां के नागरिकों की पहचान हिन्दू नहीं रही। अतः हम हिन्दू को धर्म से जोड़कर देखने की गफलत नहीं कर सकते। इस सन्दर्भ में कर्नाटक के मुख्यमन्त्री श्री सिद्धारमैया द्वारा अपने राज्य के लिंगायत वर्ग के लोगों के धर्म को अलग मान्यता देने का अर्थ हिन्दुओं की एकता से जोड़ा जाना अनुचित लगता है क्योंकि हिन्दू कोई धर्म है ही नहीं। यह अधिकार भारत के संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 25 में प्रत्येक नागरिक को दिया हुआ है कि वह स्वयं को जिस रूप में भी देखना चाहे देख सकता है। इस अनुच्छेद में किसी भी भारतीय को धर्म की स्वतन्त्रता ही प्रदान नहीं की गई है बल्कि ‘धर्म से स्वतन्त्रता’ भी प्रदान की गई है।

किसी भी नागरिक को हिन्दू या मुसलमान अथवा सिख या पारसी बताने का अधिकार न तो सरकार के पास है और न न्यायालय के पास अथवा किसी भी अन्य संगठन के पास। यह अधिकार केवल और केवल व्यक्ति विशेष के पास है जिसे कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती। अगर हम हिन्दू समुदाय के भीतर चले संशोधनवादी व सुधारवादी आन्दोलनों को देखें तो ब्रह्म समाज से लेकर आर्य समाज तक ने हिन्दुओं की पूजा पद्धति और रूढि़वादी परंपराओं पर कसकर प्रहार किया। आर्य समाज के जनक स्वामी दयानन्द ने तो वेदों को ही शाश्वत सत्य कहकर पाखंडवाद का तिरस्कार किया। इसी प्रकार उनसे पहले गुरु नानकदेव जी ने भी पाखंडवाद और पंडिताऊ परंपराओं को नकारा और इसी समुदाय के बीच नया समुदाय स्थापित किया मगर श्री सिद्धारमैया ने लिंगायत समाज को पृथक अल्पसंख्यक समाज की मान्यता दी है।

यह विवाद का विषय इसलिए है क्योंकि एक वृहद समुदाय की पहचान में रहने वाले लोगों की पहचान बदली गई है लेकिन हमें 1995 के सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का भी ध्यान रखना होगा जिसमें कहा गया था कि हिन्दू कोई धर्म नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि इस देश में रहने वाले धार्मिक रूप से सभी हिन्दू कहलाये जा सकते हैं। सम्बन्ध सिर्फ जीवन पद्धति से है। उनका धर्म अलग-अलग हो सकता है मगर जीवन को देखने का नजरिया विशुद्ध भारतीय है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण जैन धर्म है जिसकी मान्यता पृथक धर्म की है और इस समुदाय के लोगों को अल्पसंख्यकों का दर्जा दिया गया है मगर उनका जीवन को देखने का नजरिया पूर्णतः भारतीय है। इसी प्रकार सिखों व बौद्धों के बारे में भी कहा जा सकता है। यहां तक कि पारसी समुदाय के लोगों पर भी यही लागू होता है मगर यह हकीकत है कि खुद को हिन्दू या मुसलमान मानने का अधिकार केवल किसी नागरिक के ही हाथ में है। जिस प्रकार सावरकर और जिन्ना नास्तिक जैसे होते हुए भी हिन्दू या मुसलमान थे।

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