दिल्ली जिसे सिख समुदाय के द्वारा समय-समय पर कई बार विजयी किया गया और उसी की बदौलत है कि आज यह देश की राजधानी बन सकी। आजादी के बाद भी सिखों का खासा दबदबा दिल्ली में हुआ करता था और उस समय के सिख नेताओं में इतनी क्षमता देखी जाती थी जिसके आगे देश के प्रधानमंत्री से लेकर अन्य नेतागण भी झुकने को मजबूर हो जाया करते थे। धीरे-धीरे शायद नेताओं को इस बात का अहसास होने लगा और उन्होंने दिल्ली के सिखों में आपसी दूरियां बढ़ाने हेतु कई तरह के प्रयास किए। सिखों का एक वर्ग पंजाब के सिख राजनीतिकों के अधीन दबकर रह गया और एक वर्ग ने दिल्ली के सिखों को साथ लेकर दिल्ली के फैसले दिल्ली में ही करने की ठान ली। कई सालों तक दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी पर उन्होंने इसी के दम पर राज भी किया पर फिर अचानक एक समय ऐसा आया जब सत्ता फिर से पंजाब वालों के पास चली गई, मगर दिल्ली के ज्यादातर सिखों को सिख मसलों पर पंजाब वालों की दखलअंदाजी पसन्द नहीं आ रही थी जिसके चलते एक बार फिर बगावती सुर अख्तियार कर दिल्ली के सिखों के एक वर्ग ने नई पार्टी का गठन कर लिया जो आज भी दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी की सत्ता पर काबिज है।
दिल्ली में जब भी कोई चुनाव आते हैं तो सिख समाज के लोग अपनी भागीदारी के लिए राजनीतिक पार्टियों पर दबाव बनाते हैं, मगर आम तौर पर देखा जाता है कि सिखों को टिकटें देने से सभी राजनीतिक पार्टियां कहीं न कहीं परहेज सिर्फ इसलिए करती हैं क्यांेकि उन्हें इस बात का अहसास रहता है कि सिख उम्मीदवारों को हराने में अहम भूमिका सिखों द्वारा ही निभाई जाती हैं, वहीं दूसरी ओर अन्य समुदाय के किसी व्यक्ति को अगर कोई पार्टी टिकट दे देती है तो पूरा समाज मिलकर अपने समुदाय के व्यक्ति को विजय बनाने मंे हर संभव प्रयास करता है। इस बार भी दिल्ली विधानसभा चुनावांे में आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा के कुल मिलाकर 10 सिख चेहरे मैदान में उतरे मगर ज्यादातर सीट पर यही देखा गया कि कहीं शिरोमिण अकाली दल के नेताओं ने भाजपा के सिख चेहरों को हराने में पूरा जोर लगा दिया तो कहीं शिरोमणि अकाली दल दिल्ली स्टेट के सिखों ने कांग्रेस और आप के सिख उम्मीदवारों के खिलाफ जमकर प्रचार अभियान चलाया। सिख बुद्धिजीवियों की माने तो सभी सिखों को चाहिए था कि सिख उम्मीदवार भले ही किसी भी पार्टी का क्यों न हो उसकी मदद करनी चाहिए थी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है देश के पूर्व प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह ने भी जब दक्षिणी दिल्ली सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा था तो उस समय भी शिरोमिण अकाली दल के लोगों ने उन्हें हरवा दिया था जिसका पछतावा उन्हें आज दिन तक है। सिख समाज के लोगों को यह समझना चाहिए कि अगर कोई सिख भले ही किसी भी पार्टी से सम्बन्ध क्यों न रखता हो अगर विधानसभा मंे जाएगा तो कहीं न कहीं गभीरता से सिख मसलों पर आवाज उठाएगा। अब देखना होगा कि सिख जत्थेबंिदयों का कितना असर सिख वोटरों पर होता है और कितने सिख उम्मीदवारों को विजयी हासिल होती है। इस सबके चलते आज हमें फिर बख्शी जगदेव सिंह का वह कथन याद आता है ‘‘जे सिख सिख नू ना मारे – तां कौम कदे ना हारे’’।
शिरोमणि अकाली दल की एकत्रता : दिल्ली विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दिल्ली के कीर्ति नगर में शिरोमणि अकाली दल की एक विशाल एकत्रता की गई जिसमें पार्टी की दिल्ली इकाई के अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना, मनजीत सिंह जीके, कुलदीप सिंह भोगल, मनदीप कौर बख्शी के द्वारा संगत को सम्बोधन करते हुए अकाली दल को कैसे मजबूत किया जाए इस पर विचार किया गया, हालांकि देखा जाए तो इस एकत्रता का मकसद जहां भाजपा को यह दिखाना था कि दिल्ली का सिख आज भी पूरी तरह से शिरोमणि अकाली दल के साथ है इसलिए अगर उसे दिल्ली और पंजाब के सिखों में अपनी पकड़ को मजबूत करना है तो शिरोमिण अकाली दल को साथ लेना ही होगा। सूत्रों की माने तो शिरोमणि अकाली दल के मुखिया सुखबीर सिंह बादल तो भाजपा के साथ को तड़प रहे हैं मगर भाजपा ही उन्हें घास नहीं डाल रही, क्योंकि भाजपा भलीभांति जानती है कि हाल फिलहाल शिरोमणि अकाली दल का कोई वजूद नहीं है, मगर एक बात तय है कि बिना अकाली भाजपा गठबंधन के पंजाब में सत्ता वापसी नहीं की जा सकती और हिन्दू सिख एकता के लिए भी यह जरूरी है इसलिए जितना जल्द हो सके, इसे संभव बनाना चाहिए, वहीं इस एकत्रता का एक मुख्य कारण सिख वोटरों से अपील करना था कि वह किस सीट पर किसी पार्टी और उम्मीदवार का समर्थन करें।
मंच से सभी वक्ताओं ने खास तौर पर राजौरी गार्डन सीट पर सिख वोटरों को जागरूक करने की भरपूर कोशिश की पर देखना यह होगा कि कितने सिखांे ने इनकी बातों पर गौर फरमाते हुए मतदान किया होगा।
भोग समागम शादियों से कम नहीं : सिख समाज के हालात आज ऐसे बनते जा रहे हैं जिसे देखकर यही कहा जा सकता है कि सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी ने जो पैमाना सिखांे के लिए तय किया था आज सिख उसके पूरी तरह से विपरीत चलते दिखाई देते हैं। गुरु नानक देव जी ने सिख समुदाय को सादगी से जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी मगर देखने में आता है कि सिख समुदाय आज उन समुदाय के लोगों को भी दिखावे में पीछे छोड़ता चला रहा है जिनमें केवल अपने बच्चों की शादी ब्याह में दिल खोलकर पैसा लगाया जाता। सिख समाज में भी आज उसी प्रकार बच्चों की शादियां महंगे से महंगे पांच तारा होटलों, बैंक्वेट हाल मेें की जाने लगी है यहां तक कि कई लोग तो रात की शादियों को भी पहल देने लगे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि रात्रि में सजावत अच्छे से दिखती है। इसमें कई बार तो ऐसा देखा जाता है कि रात्रि में शादियों में नानवेज खाकर, शराब का सेवन करने के बाद लोग गुरुद्वारों में पहुंचकर आनंद कारज में भी हिस्सा ले लेते हैं जो सिख मर्यादा में पूरी तरह से प्रतिबंधित है। इतना ही नहीं आज परिवार में किसी की मृत्यु होने पर भी शादी की भान्ति ही प्रीतिभोज का आयोजन करते हैं। जबकि मृत्यु भोज पहली बात तो होना ही नहीं चाहिए और अगर हो भी तो वह लंगर के रूप में पूरी सादगी के साथ होना चाहिए, मगर नहीं आज लोग मृत्यु भोज में भी कई तरह के व्यंजन के साथ कई प्रकार के मीठे भी रखने लगे हैं। इसका असर उन सिख परिवारों पर अधिक पढ़ता है जो यह सब करने में असमर्थ होते हैं पर मजबूरीवश समाज दिखावे के चलते उन्हें कई बार कर्जा लेकर यह सब करना पड़ता है। मध्य प्रदेश के सिखों ने एक होकर इसके प्रति आवाज उठाई है और यह फैसला किया है कि मृत्यु भोग पर प्रीतिभोज नहीं दिया जाएगा। इसी प्रकार अगर समूचा सिख समाज एकजुट होकर फैसला ले तो निश्चिततौर पर दिखावे से बचा जाएगा और गुरु नानक देव जी मार्ग से भी जुड़ा जाएगा।
’1984 सिख कत्लेआम पर सुप्रीम कोर्ट का नोटिस : सिख कत्लेआम को आज 40 वर्ष हो चुके हैं मगर आज तक पीड़ित परिवारों को इन्साफ नहीं मिल सका है जिसका मुख्य कारण यह है कि उस समय सरकारी दखलअंदाजी के चलते दिल्ली पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध रही थी, जिसके चलते जो लोग गवािहयां देना भी चाहते थे उन्हें कहीं न कहीं प्रभावित किया गया। बीते दिनों दिल्ली गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के पूर्व सदस्य गुरलाड सिंह काहलो के द्वारा एक पटीशन सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई जिस पर सुनवाई करते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सिख विरोधी दंगों से संबंधित उन अपीलों पर दिल्ली पुलिस से ताजा रिपोर्ट मांगी, जिनमें आरोपी बरी कर दिए गए थे। कोर्ट ने यह भी सवाल किया कि दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा मामलों को फिर से खोलने से इंकार करने के फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती क्यों नहीं दी गई? केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस द्वारा पिछले महीने दायर स्टेटस रिपोर्ट का अवलोकन करते हुए न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा, हम रिपोर्ट में देखते हैं कि हाई कोर्ट ने कई मामलों को खारिज कर दिया था। चलो देर ही सही मगर पीड़ितों को इस बात की तसल्ली मिली है कि भारतीय न्यायपालिका में देरी हो सकती है पर न्याय अवश्य मिलेगा।