बिहार की प्रयोगशाला का नतीजा - Punjab Kesari
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बिहार की प्रयोगशाला का नतीजा

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बिहार राज्य को प्रायः भारत खासतौर पर उत्तरी क्षेत्रों की राजनीतिक प्रयोगशाला माना जाता रहा है। इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए चुनावों के बाद इस राज्य में जिस तरह हालात बदले उसमें स्व. कर्पूरी ठाकुर के बाद श्री राम विलास पासवान, लालू प्रसाद यादव व नीतीश कुमार की त्रिमूर्ति कांग्रेस विरोधी राजनीति की धुरी बनती चली गई और इस त्रिमूर्ति के बीच श्री शरद यादव एेसे केन्द्र बन कर उभरे जिन्होंने इस त्रिमूर्ति की राजनीति को राष्ट्रीय धरातल पर उतारने में महत्वपूर्ण योगदान किया किन्तु कालान्तर में विद्रोही समाजवादी नेता की छवि रखने वाले जार्ज फर्नांडीज द्वारा भाजपा के पाले में आने के बाद से इस राज्य में गांव, गरीब और पिछड़ों की स्व. कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत में सेंध लग गई और यह विरासत जातियों में बंटती चली गई।

सामाजिक न्याय की राजनीति पर जातिगत आधार पर वर्चस्व काबिज करने की इस नई सियासत ने नेताओं को जातिगत आधार पर बने कबीलों के सरदारों के रूप में उभार देकर भाजपा समर्थक और इसके विरोधियों में बांट दिया। इसने कांग्रेस पार्टी को पूरी तरह हाशिये पर फैंक दिया और इसके जनाधार को जातियों की राजनीति में इस तरह उलझाया कि अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी कांग्रेस से हटकर उसी दल के साथ होने लगे जो भाजपा के प्रखर विरोध में मजबूत नजर आए। बिहार की इस राजनीति का प्रभाव साथ लगते उत्तर प्रदेश राज्य पर इस प्रकार पड़ा कि यहां भी कांग्रेस पार्टी असंगत होने लगी और सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी सुविधानुसार अपने-अपने जाति समूह के साथ अल्पसंख्यकों को रिझाने में कामयाब होने लगीं मगर इसका अंतिम परिणाम उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त सांप्रदा​ि​यक ध्रुवीकरण के रूप में हुआ जिससे भाजपा को एेतिहासिक सफलता मिलने लगी।

मगर इसका मूल कारण मुलायम सिंह की व्यावहारिक अल्पसंख्यक तुष्टीकरण कारगुजारियां ही थीं जिसकी वजह से बहुसंख्यक हिन्दू समाज को गोलबन्द करने में भाजपा को अपार सफलता मिली परन्तु बिहार में यह स्थिति (2014 के लोकसभा चुनाव छोड़कर) इसलिए नहीं आ पाई कि लालू जी पर उनके जनाधार के जातिगत मतदाताओं का विश्वास कायम रहा, जिसका उदाहरण 2015 में हुए विधानसभा चुनाव परिणाम हैं। बिना शक इन चुनावों में नीतीश कुमार भाजपा से पिछला लम्बा सम्बन्ध तोड़ कर लालू जी के साथ खड़े हुए थे जबकि श्री पासवान भाजपा के साथ खड़े हो गए थे। लालू-नीतीश के इस गठबन्धन ने बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई को जातिगत दायरे से बाहर खींचने में मदद दी मगर पिछले वर्ष नीतीश बाबू ने लालू जी का साथ छोड़ने का फैसला करके इस लड़ाई को पुनः जातिवाद के उग्र तेवरों के आगे समर्पित कर दिया परन्तु इस राज्य के राजनीतिक रूप से सर्वाधिक सजग माने जाने वाले नेताओं ने नीतीश बाबू की इस कदम ताल को इस तरह बदला कि जातिगत दायरा बजाय मजबूत होने के ढीला पड़ने लगा।

इससे नीतीश बाबू का राजनीतिक कद फिर से वहीं पहुंच गया जहां से उन्होंने शुरूआत की थी। 24 घंटे के भीतर लालू जी से नाता तोड़ कर भाजपा के समर्थन से उन्होंने जिस तरह मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा देकर पुनः इस पद की शपथ ली उससे भाजपा के विस्तार की संभावनाएं बढ़ गईं मगर नीतीश बाबू भूल गए कि हरियाणा में स्व. बंसीलाल का क्या हश्र हुआ था? वह भाजपा के साथ सामान्य परिस्थिति​यों में सत्ता में नहीं आए थे बल्कि उनकी हरियाणा विकास पार्टी ने भाजपा के समक्ष लगभग आत्मसमर्पण कर दिया था तब जाकर बंसीलाल मुख्यमन्त्री बने थे। हरियाणा का शेर कहे जाने वाले बंसीलाल छह महीने बाद ही बकरी की तरह मिमियाने लगे थे और उन्हें अपना शराबबन्दी का फैसला वापस लेना पड़ा था मगर जो काम हो चुका था उसे बंसीलाल नकार नहीं सकते थे, उनकी छवि सत्ता में रहने के बावजूद ‘खरपतवार’ जैसी हो गई थी। दरअसल गठबन्धन की राजनीति में दलीय हित कहीं न कहीं इस प्रकार प्रभावी रहते हैं कि वे सरकारी फैसलों में अपना अस्तित्व ढूंढने का प्रयास हरदम करते रहते हैं। राजनीति में यह अनहोनी बात नहीं है मगर देखने वाली बात यह होती है कि आम जनता उसे किस नजरिये से देखती है।

बिहार में जोकीहाट विधानसभा उपचुनाव का जो परिणाम आया वह चौंकाने वाला था क्योंकि यहां से लालू जी के जेल में होने के बावजूद उनके पुत्र तेजस्वी यादव की रहनुमाई में उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के प्रत्याशी ने जबर्दस्त जीत हासिल की और नीतीश बाबू की जनता दल (यू) पार्टी से इसे छीन लिया। इसके साथ ही नीतीश बाबू के जनता दल (यू) के अध्यक्ष श्री शरद यादव की राज्यसभा सदस्यता जिस तरह आनन-फानन में छीनी गई उससे उनकी ही पार्टी के भीतर विश्वसनीयता का संकट गहराता जा रहा है। शरद जी संसद के माध्यम से इस पार्टी को वैचारिक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानजनक स्थान दिलाये रखते थे। सर्वश्रेष्ठ सांसद के सम्मान से विभूषित किए जाने वाले इस नेता को ‘संसद’ से ही बाहर करने में नीतीश बाबू ने जो उतावलापन दिखाया, उसी से स्पष्ट है कि जनता दल (यू) का अस्तित्व किस तरह स्व. बंसीलाल की हरियाणा विकास पार्टी के समान संकट की तरफ बढ़ सकता है मगर निश्चित रूप से इस प्रक्रिया से बिहार में भाजपा का वजन बढ़ेगा जैसा कि हरियाणा में हुआ था।

अतः जो साफ नजर आ रहा है वह यह है कि बिहार में त्रिमूर्ति की राजनीति समाप्त हो रही है और एेसा राजनीतिक विमर्श तैयार हो रहा है जिसमें जातिगत आधार का महत्व कम से कम रहेगा। बिहार का यह प्रयोग उत्तर प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्य में भी थिरकन पैदा कर सकता है। इसका मतलब यही निकलता है कि जाति मूलक दलों को अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए सामाजिक न्याय के उस मन्त्र को पकड़ना होगा जिससे उनके जनाधार की अपेक्षाओं को व्यापक स्वरूप मिल सके। बिहार की प्रयोगशाला से फिलहाल जो परिणाम निकल रहा है वह चौंकाने वाला बिल्कुल नहीं है क्योंकि इसके मूल में मतदाता का स्व-विवेक प्रमुख है। जब वही जातिगत बन्धनों को तोड़ कर राजनीति की दिशा तय कर रहा है तो नेता क्या कर सकते हैं ? नेता उसे केवल भटका सकते हैं मगर भुलावे में नहीं रख सकते।

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