झारखंड के ‘खंड-खंड’ चुनाव! - Punjab Kesari
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झारखंड के ‘खंड-खंड’ चुनाव!

झारखंड जैसे छोटे राज्य में पांच चरणों में चुनाव कराने की घोषणा करके चुनाव आयोग ने अपनी निर्बलता

झारखंड जैसे छोटे राज्य में पांच चरणों में चुनाव कराने की घोषणा करके चुनाव आयोग ने अपनी निर्बलता और अधिकारों के प्रयोग में अनावश्यक संकोच का परिचय दिया है। केवल ढाई करोड़ मतदाताओं के लिए पांच दिन मतदान की प्रक्रिया को  30 नवम्बर से 20 दिसम्बर तक खींचना किसी भी रूप में व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। जब विगत वर्ष 2018 में छत्तीसगढ़ जैसे नक्सल प्रभावित राज्य में 90 सीटों के लिए मतदान केवल दो चरणों में सफलतापूर्वक मध्यप्रदेश व राजस्थान व अन्य दो राज्यों के साथ सम्पन्न कराए जा सकते हैं तो अकेले झारखंड की 81 सीटों के लिए पांच चरणों में मतदान कराना  स्वाभाविक रूप से अटपटा लगता है। 
माना कि इस राज्य में भी नक्सल प्रभावित कुछ क्षेत्र हैं परन्तु चुनावी मैदान में अकेला होने की वजह से इस राज्य की कानून-व्यवस्था को संभालने में सुरक्षा बल पूरी तरह सक्षम हो सकते थे। चुनाव आयोग की जिम्मेदारी मतदान पूरी तरह निर्भय व स्वतन्त्र वातावरण में कराने की है और इसके लिए वह राज्य व केन्द्र सरकार से पर्याप्त सुरक्षा बल की मांग करता है। चुनाव आयोग को केवल अपनी यह मंशा प्रकट करनी होती है कि वह मतदान एक दिन में कराना चाहता है अथवा चरणबद्ध रूप में। सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। 
लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को शान्तिपूर्ण माहौल में निपटाने की गरज से ही सुरक्षा बलों की तैनाती होती है जिससे प्रत्येक मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग बिना किसी डर या खौफ के कर सके मगर इसका मतलब यह नहीं है कि ढाई करोड़ मतदाता लगातार चरणबद्ध तरीके से 21 दिन तक मतदान की प्रक्रिया में ही संलिप्त रहें। पूरे भारत में लोकसभा चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग ने सात चरण में मतदान लगभग इतने ही दिनों में पूरा कराया था। विगत अक्टूबर महीने में महाराष्ट्र व हरियाणा जैसे राज्यों में मतदान कराने में चुनाव आयोग ने चरणबद्ध प्रणाली को त्यागा। 
हालांकि तब भी यह मांग उठी थी कि 4 जनवरी को झारखंड विधानसभा का कार्यकाल जब खत्म हो रहा है तो इन राज्यों के साथ ही इसके चुनाव भी करा लिये जाने चाहिएं थे परन्तु चुनाव आयोग को लगा कि वह दिसम्बर महीने में झारखंड के चुनाव करायेगा तो ज्यादा बेहतर होगा। उसके इस फैसले की हालांकि तब भी आलोचना हुई थी मगर उसे किसी ने चुनौती नहीं दी। संविधान के अनुसार चुनाव आयोग के किसी भी विधानसभा के कार्यकाल खत्म होने से पहले चुनाव कराने के विशेषाधिकार को चुनौती नहीं दी जा सकती। दरअसल चुनाव आयोग के प्रयास इस बारे में बहुत पारदर्शी तरीके से देखे जाते रहे हैं। 
1980 में जब मोरारजी देसाई की सरकार गिरने पर स्व. चौधरी चरण सिंह प्रधानमन्त्री बने थे और उन्हें संसद में अपना बहुमत साबित करने का भरोसा नहीं था तो उन्होंने लोकसभा भंग करके चुनाव कराने का ऐलान कर दिया था। उस समय चुनाव आयोग के सामने यह प्रस्ताव था कि वह एक दिन में ही पूरे देश में मतदान करा दे परन्तु आयोग ने तब हाथ खड़े कर दिये थे और सुरक्षा कारणों से मतदान चरणबद्ध कराने का फैसला किया था परन्तु झारखंड के सम्बन्ध में सुरक्षा कर्मियों की कमी होने का कोई मसला चुनाव आयोग के सामने किस प्रकार आ सकता था जबकि पर्याप्त संख्या में सुरक्षा कर्मियों की सेवाएं सुलभ कराने की जिम्मेदारी सरकार पर थी और सरकार को भी कोई दिक्कत कैसे हो सकती थी जबकि किसी अन्य राज्य में चुनाव हो ही नहीं रहे हैं। 
चुनाव आयोग के इस कदम से अनावश्यक रूप से झारखंड ‘हौवा’ बन गया है जबकि इस राज्य के भोले-भाले और मेहनती लोग चुनावों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहते हैं। चुनावों को अनावश्यक रूप से खर्चीला बनाना भी एक पक्ष है जिस तरफ चुनाव आयोग को ही ध्यान देना होगा। कई चरणों में चुनाव कराने का नुकसान अन्ततः मतदाताओं को ही होता है क्योंकि राजनैतिक दल पहले चरण के मतदान का जायजा लेकर उसकी खामी दूसरे चरण में पूरा करना चाहते हैं और दूसरे की तीसरे में और तीसरे की चौथे में और क्रमशः यह प्रक्रिया चलती ही रहती है। 
एक राज्य के चुनाव में मोटे तौर पर प्रादेशिक मुद्दे एक समान ही रहते हैं परन्तु कई चरणों में चुनाव होने की वजह से चुनाव प्रचार का स्तर लगातार गिरता जाता है और खिसियाहट में व्यक्तिगत आलोचना से लेकर बात कभी-कभी गाली-गलौज तक आ जाती है जिससे कानून-व्यवस्था भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहती। यह अनुभव से प्राप्त किया तथ्य इस बात की गवाही देता है कि कई चरण में होने वाले एक ही राज्य के चुनाव में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए राजनैतिक दल भी ओछे हथकंडों पर उतर आते हैं और बेसिर-पैर की अफवाहों का बाजार भी खूब गर्म होने लगता है। 
चुनाव आयोग का कार्य चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न दलों के प्रत्याशियों द्वारा साफ-सुथरे साधन इस्तेमाल करने को देखने का भी होता है परन्तु एक ही राज्य में एक जिले में पहले चरण में और साथ लगे जिले में तीसरे या चौथे चरण में मतदान होने की वजह से राजनैतिक दल अपनी हार के डर से हर प्रकार के साधन प्रयोग करने से भी नहीं चूकते। बहुचरणीय चुनाव की यह सबसे बड़ी व्यावहारिक खामी होती है जो मनोवैज्ञानिक रूप से मतदाताओं की निष्पक्षता को अदृश्य रहते हुए प्रभावित करती है। 
संभवतः यही वजह रही है कि चुनाव आयोग प्रायः किसी भी छोटे राज्य में एक ही दिन में मतदान सम्पन्न कराने का पक्षधर रहा है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा है कि चुनाव आयोग हर सूरत में और हर परिस्थिति में अपनी निष्पक्षता और स्वतन्त्रता को सर्वोच्च स्तर पर रखकर देखने का हिमायती रहा है।

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