केशवानन्द भारती और ‘भारत’ - Punjab Kesari
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केशवानन्द भारती और ‘भारत’

स्वतन्त्र भारत की न्यायपालिका के इतिहास में अभी तक जो महत्वपूर्ण फैसले आये हैं उनमें सर्वाधिक महत्ता का

स्वतन्त्र भारत की न्यायपालिका के इतिहास में अभी तक जो महत्वपूर्ण फैसले आये हैं उनमें सर्वाधिक महत्ता का 1974 का वह फैसला था जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि लोकतन्त्र में आम जनता द्वारा चुनी गई संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार अवश्य है मगर संसद संविधान के उस मूल ढांचे में कोई संशोधन या परिवर्तन नहीं कर सकती जिस पर समूचे संविधान का प्रारूप टिका हुआ है। यह फैसला कोई साधारण फैसला नहीं था क्योंकि इसे न्यायालय की 13 सदस्यीय संविधान पीठ ने बहुमत से दिया था। यह फैसला न्यायिक इतिहास में ‘केशवानन्द भारती केस’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ जिसमें केरल के भूमि सुधार कानून को चुनौती दी गई थी। इसमें मुख्य कोण यह था कि 1970 तक संविधान में सम्पत्ति का अधिकार मौलिक या मूलभूत अधिकारों में शामिल था जिसे बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम बनाते समय संशोधित कर दिया गया था। 1969 में जब एक अध्यादेश द्वारा तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था तो इसेे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी और सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अवैध करार देकर निरस्त कर दिया था। तब श्रीमती गांधी ने बीच में ही लोकसभा भंग करके 1971 के शुरू में चुनाव कराये थे जिसमें उन्हें तूफानी सफलता प्राप्त हुई थी और इसके बाद उन्होंने संसद में संविधान संशोधन करके बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कानून बनाया था।  यह संशोधन ही सम्पत्ति को मूल अधिकारों से हटाने का था।
 केरल भूमि सुधार कानून को चुनौती सम्पत्ति के अधिकार को ही लेकर मुख्य रूप से थी जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने 1974 में फैसला दिया था। यह मुकदमा अभूतपूर्व था क्योंकि उस समय श्रीमती गांधी ने यह बहस छेड़ दी थी कि लोकतन्त्र में संसद ही सर्वोच्च होती है। एक प्रकार से यह न्यायपालिका और संसद के बीच शीतयुद्ध का दौर भी कहा जा सकता था जिसमें अन्ततः विजय स्वतन्त्र न्यायपालिका की हुई थी क्योंकि इसने संसद के अधिकारों की वह सीमा बांध दी थी जो संविधान निर्माताओं का भारतीय लोकतन्त्र की बहुमत की तानाशाही को निरंकुश होने से रोकने के लिए दूरदृष्टि थी। श्रीमती इन्दिरा गांधी के शासन के दौरान संसद में अपार बहुमत के बूते पर यह प्रस्ताव पारित करा लिया गया था कि संसद संविधान के किसी भी अनुच्छेद या भाग को संशोधित कर सकती है जिसे न्यायिक समीक्षा के तहत नहीं रखा जा सकता।
 सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर विचार करने के साथ ही एक उस अन्य याचिका पर भी विचार कर रहा था जिसमें उसने अपने पहले के फैसले को ही बदल कर यह कहा था कि संसद संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती। यह फैसला भी प्रसिद्ध गोला गोलकनाथ विरुद्ध पंजाब सरकार के मुकदमे में आया था। केशवानन्द भारती केस में इन सभी विषयों व मुद्दों पर समन्वित रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने विचार किया और बाद में इसकी संविधान पीठ ने बहुमत से फैसला दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान में संशोधन करके नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निरस्त नहीं किया जा सकता, तब न्यायमूर्तियों ने निर्णय दिया था कि संसद को बेशक संविधान में संशोधन करने के वृहद अधिकार हैं मगर इसी संविधान के कुछ अंश इस दस्तावेज के अतःकरण में  इस तरह अन्तर्निहित हैं कि संसद भी उनमें संशोधन नहीं कर सकती। ये अंश मौलिक अधिकारों से ही सम्बन्धित हैं जिनमें जीवन जीने के अधिकार से लेकर धर्म निरपेक्षता तक शामिल है। हालांकि अपने इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से बाहर किये जाने को वैध माना मगर इसके साथ ही शेष मौलिक अधिकारों को अपरिवर्तनीय बना दिया। बाद में 1977 में जब केन्द्र में स्व. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार आयी तो सम्पत्ति के अधिकार को संवैधानिक अधिकार बनाया गया। जिन केशवानन्द भारती ने यह ऐतिहासिक न्यायिक युद्ध लड़ा था उन्हीं की मृत्यु विगत दिनों केरल में हो गई। वह केरल के कासरगोड़ जिले में स्थित एदनीर मठ के प्रमुख आचार्य थे जिन्होंने यह लड़ाई लड़ी थी। इस न्यायिक लड़ाई में हालांकि उनकी विजय नहीं हुई थी मगर उनके मुकदमे के बहाने भारत का लोकतन्त्र विजयी रहा था क्योंकि यह मुकदमा तीन से अधिक साल चला था और इसमें भारतीय संविधान की प्रमुख बातों से लेकर दुनिया के अन्य लोकतान्त्रिक देशों के संविधानों की भी चर्चा हुई थी और बहस-मुहाबिसे हुए थे।
 संविधान संशोधन के मुद्दे पर जर्मनी के संविधान पर भी जम कर चर्चा हुई थी कि किस प्रकार हिटलर ने संसद में अपने दो-तिहाई बहुमत का लाभ उठा कर अपना निरंकुश शासन स्थापित किया था। यह मुकदमा केवल ऐतिहासिक नहीं था बल्कि इसमें चली बहस में हिस्सा लेने वाले दोनों पक्षों के वकील भी इतिहास का हिस्सा हो गये थे और इसी फैसले के बाद श्रीमती गांधी ने झुंझला कर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर एक कनिष्ठ न्यायमूर्ति अजित नाथ राय की नियुक्ति कर दी थी जिसके खिलाफ तीन वरिष्ठ न्यायमूर्तियों ने इस्तीफा दे दिया था। कई मायनों में केशवानन्द भारती केस ऐसा मील का पत्थर साबित हुआ था जिसे देख कर देश की सबसे बड़ी अदालत में इसकी नजीर की रोशनी में आगे फैसले होते रहे। अतः केशवानन्द भारती भी स्वयं में एक ऐतिहासिक पुरुष हो गये।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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