जनता की नब्ज पहचानते केजरीवाल - Punjab Kesari
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जनता की नब्ज पहचानते केजरीवाल

भारतीय राजनीति में समय-समय पर युवा तुर्क पैदा हुये हैं। जिन्होंने भारतीय राजनीति को नया मुहावरा देने का

भारतीय राजनीति में समय-समय पर युवा तुर्क पैदा हुये हैं। जिन्होंने भारतीय राजनीति को नया मुहावरा देने का प्रयास किया। जिन्होंने जनता की नब्ज को पहचाना वह राजनीति में लम्बे अर्से तक रहे, जिन्होंने जनभावनाओं को समझा ही नहीं वे राजनीति में पिछड़ गये। नये मुहावरों और पुराने मुहावरों में अंतर केवल इतना होता है कि पुराने मुहावरे राजनीति की टकसाल में ढल कर आते हैं जबकि नये मुहावरे समय के साथ-साथ ढल कर आते हैं। 
जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल 2011-2012 में भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाये गये अन्ना आंदोलन में टीम अन्ना में बतौर ‘एक्टिाविस्ट’ शामिल थे तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि दिल्ली की सियासत का घटनाक्रम इस कदर तेजी से बदलेगा कि वह प्रचंड बहुमत के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री बन जायेंगे। इंडिया अंगेस्ट करप्शन के आन्दोलन के दौरान ही अन्ना हजारे और केजरीवाल में मतभेद पैदा हो गये थे। 
अन्ना राजनीति के खिलाफ थे जबकि अरविंद केजरीवाल को लगता था कि अगर सिस्टम को बदलना है तो सिस्टम के भीतर घुसे बिना इसे नहीं बदला जा सकता। तब अरविंद केजरीवाल ने 26 नवम्बर 2012 को आम आदमी पार्टी का गठन किया और 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी ने पहली बार चुनाव लड़ा और दिल्ली विधानसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर कर सामने आई। आम आदमी पार्टी को 70 में से 28 सीटें मिली थी। किसी भी पार्टी के पास बहुमत न होने की स्थिति में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने मिलकर सरकार बनाई। 
लोकपाल विधेयक को लेकर मतभेद के चलते केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। महज 49 दिन ही सरकार चली। 2015 में फिर से दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत भाजपा के विजयरथ को दिल्ली में रोक दिया। भाजपा को केवल तीन सीटें मिली थी और कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था। दिल्ली के बाहर के लोग भी हैरान थे। दूसरे राज्यों के लोग भी दिल्ली वालों से पूछते थे कि कौन है ये अरविंद केजरीवाल? जो अचानक दिल्ली वालों के लिये खास बन गया और 15 वर्ष से शासन कर रही कांग्रेस की वरिष्ठ नेता स्व. शीला दीक्षित के किले को ध्वस्त कर दिया। दरअसल साफ-सुथरी छवि, स्पष्टवादिता, आक्रामक रवैये के साथ केजरीवाल सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपनी साख बना चुके थे। 
राजनीतिक पंडित समझ रहे थे कि अरविंद केजरीवाल राजनीतिक नासमझी के चलते ही चुनाव लड़ रहे हैं जो उनके लिये आत्मघाती होगा लेकिन जब चुनाव परिणाम सामने आये तो सभी भौंचक्के रह गये। अगर उनके शासनकाल का विश्लेषण किया जाये तो उन्होंने ऐसे मास्टर स्ट्रोक लगाये जिसमें मध्यम वर्ग और निम्न आय वर्ग के लोग उनसे काफी संतुष्ट नजर आते हैं। चाहे बात सस्ती बिजली या फिर मुफ्त पानी (20 हजार लीटीर प्रति माह) देने की इससे मध्यम आय और निम्न आय वर्ग यानि आम आदमी को राहत मिली। केजरीवाल सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है और दिल्ली में सरकारी स्कूलों को नया स्वरूप हासिल हुआ है और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर ध्यान दिये जाने में परीक्षा परिणामों में भी सुधार देखा गया है। कुछ स्कूल तो प्राइवेट स्कूलों की तरह दिखाई देने लगे हैं। 
केजरीवाल सरकार ने मोहल्ला क्लीनिक हैल्थ स्कीम पर भी काफी फोक्स किया है। दिल्ली की जनता को इस बात का अहसास है कि सरकार किसी की भी हो वह शत-प्रतिशत वादे पूरे नहीं कर सकती। हालांकि दिल्ली सरकार ने उपराज्यपाल से और केन्द्र से मुठभेड़ की सियासत की है। दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर जबरदस्त टकराव चला। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही दिल्ली और केन्द्र सरकार में समन्वय नजर आ रहा है। हालांकि दिल्ली की परिवहन सेवाओं को लेकर केजरीवाल सरकार की आलोचना भी की जा सकती है। 
दिल्ली में प्रदूषण को लेकर भी सरकार ने कुछ ज्यादा काम नहीं किया लेकिन दिल्ली के आम लोगों के बीच केजरीवाल  का आकर्षण कायम है। बिजली दरों में कोई बढ़ौतरी नहीं हुई। अब अरविंद केजरीवाल ने महिलाओं को मैट्रो में मुफ्त यात्रा उपलब्ध कराने की घोषणा की है। हालांकि इसे लागू करने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। संभव है भविष्य में कोई न कोई रास्ता खोज लिया जाये। दिल्ली अनधिकृत कालोनियों को लेकर जमकर सियासत की जाती रही है। केजरीवाल सरकार ने इन कालोनियों  में जनसुविधायें उपलब्ध कराने का काम शुरू किया। अब मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी है कि दिल्ली की अवैध बस्तियां नियमित होंगी और जल्द रजिस्ट्री खुल जायेगी।
 अनधिकृत कालोनियों में एक करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं। इन्हें मालिकाना हक  मिलेगा। केन्द्र सरकार ने भी अब कालोनियों को नियमित करने में गंभीरता दिखाई है। केजरीवाल कीे कार्यशैली से साबित हो गया है कि वह जनता की नब्ज पहचानते हैं। दिल्ली में शीला दीक्षित जी के स्वर्ग सिधारने के बाद तो कांग्रेस का जनाधार खिसक रहा है। नेता आपसी फूट का शिकार हैं। दिल्ली भाजपा में एक मात्र नेता डा. हर्षवर्धन ही दिखाई देते हैंं जो सभी को साथ लेकर चल सकते हैं, बाकी नेताओं का अधिक प्रभाव नहीं है। अंततः फैसला जनता जनार्दन ही करेगी। फिलहाल तो केजरीवाल एक के बाद एक मास्टर स्ट्रोक लगाने जा रहे हैं।
आगाज तो अच्छा है, अंजाम खुदा जाने!

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