जम्मू-कश्मीर में यूरोपीय संगठन के देशों के सांसदों के प्रतिनिधिमंडल को यात्रा करने की अनुमति देकर केन्द्र सरकार ने पूरी दुनिया को यह बताने की कोशिश की है कि विगत 5 अगस्त से राज्य का विशेष दर्जा समाप्त करने के बाद इसकी भीतरी हालत सामान्य है और ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे भारत छिपाना चाहता है। विदेशी प्रतिनिमंडल का यह दौरा वैश्विक कूटनीतिक स्तर पर मिला-जुला असर छोड़ने वाला होगा, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। हाल ही में विदेश मन्त्री एस. जयशंकर फिनलैंड की यात्रा करके आये थे, जिसके हाथ में इस समय यूरोपीय संगठन देशों की अध्यक्षता है। इससे पहले भारत ने अमेरिका के डेमोक्रेटिक पार्टी के सिनेटर क्रिस वैन होलेन को कश्मीर जाने की इजाजत नहीं दी थी।
कश्मीर मामले पर अमेरिका का रुख विशेष रूप से इसकी डेमोक्रेटिक पार्टी का अत्यन्त आलोचनात्मक रहा है। पिछले सप्ताह अमेरिकी कांग्रेस में कश्मीर को लेकर सुनवाई का दौर भी चला और इसमें अमेरिकी सहायक विदेश मन्त्री एलिस जी वेल्स ने कहा था कि अमेरिकी राजनयिकों को जम्मू-कश्मीर जाने की इजाजत नहीं दी गई। इसी प्रकार यूरोपीय संगठन देशों की संसद में भी कश्मीर की स्थिति पर चर्चा हुई और इसमें राज्य के जमीनी हालात पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा गया था कि यहां नागरिक अधिकारों की स्वतन्त्रता पर कुछ अंकुश लगाये गये है। अतः कुल मिला कर पश्चिमी देशों ने भारत को आलोचना के घेरे में रखने का प्रयास किया लेकिन इस वातावरण से सबसे ज्यादा चिन्ता कश्मीर के पुनः अंतर्राष्ट्रीयकरण होने के खतरे से घिरी है।
पाकिस्तान कश्मीर को लेकर जिस तरह का दुष्प्रचार कर रहा है उसका यह दुष्परिणाम तो जरूर कहा जा सकता है जिससे भारत के लिए सफाई पेश करने के हालात बन रहे हैं। यूरोप के विभिन्न देशों के कई राजनैतिक पार्टियों के 27 सांसद आजकल श्रीनगर में हैं जहां वे आम कश्मीरियों से सीधे वार्तालाप करके जमीनी हालात की जानकारी प्राप्त करेंगे। बेशक इस प्रतिनििधमंडल को आधिकारिक नहीं बताया जा रहा है मगर इसमें शामिल सभी सदस्य आधिकारिक है सियत से ही कश्मीर का दौरा कर रहे हैं। इनकी कश्मीर यात्रा से पहले प्रधानमन्त्री ने भी उनके साथ भेंट की और सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने उन्हें कश्मीर की स्थिति के बारे में भी बताया।
इससे यह सवाल भी उठ रहे हैं कि कश्मीर का प्रश्न पूरी तरह भारत का घरेलू मामला है और इसका विशेष दर्जा रखा जाना या समाप्त किया जाना विशिष्ट रूप से भारतीय संविधान का अधिकार है। सरकार ने कश्मीर की स्थिति में जो भी फेरबदल किया है वह संविधान से शक्ति लेकर संसद के माध्यम से किया है जिसे दुनिया की कोई भी ताकत चुनौती नहीं दे सकती। अतः किसी भी स्तर पर और किसी भी मंच पर भारत के रक्षात्मक होने का सवाल ही पैदा नहीं होता लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि घरेलू मोर्चे पर ही कश्मीर के बारे में अलग-अलग स्वर उठने बन्द होने चाहिए।
इस मामले में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा में उप नेता श्री आनन्द शर्मा का यह कथन विचारणीय है कि सरकार को विपक्षी दलों के नेताओं को कश्मीर जाने और वहां लोगों के साथ सीधे संवाद करने की इजाजत देनी चाहिए। लोकतन्त्र में विपक्षी पार्टियां भी देश के लोगों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं क्योंकि उनके नुमाइन्दों को भी आम लोग ही चुन कर विभिन्न सदनों में भेजते हैं। इन पार्टियों के प्रत्येक सांसद और विधायक या किसी भी सदन के सदस्य के लिए भी जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का अभिन्न और अटूट हिस्सा है और पाकिस्तान की हैसियत एक आक्रमणकारी देश की है। सत्ता पर काबिज विभिन्न पार्टियों की सरकारों की नीतियां अलग-अलग हो सकती हैं मगर संविधान सभी के लिए एक समान है और यह संविधान ही घोषणा करता है कि समूचा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इसी संविधान की शपथ लेकर प्रत्येक राजनैतिक दल का चुना हुआ सदस्य सम्बद्ध सदन में प्रवेश करता है।
अतः विपक्ष में बैठे हर सांसद को भारत के किसी भी राज्य की जमीनी स्थिति जानने का अधिकार है। बेशक सरकार कानून-व्यवस्था की दृष्टि से कुछ ऐसे तात्कालिक प्रतिबन्ध लगा सकती है जो उस राज्य की जनता और देशहित में हों। जाहिर है कि अनुच्छेद 370 समाप्त करने का सबसे बड़ा कारण देशहित ही है और विपक्षी दलों को भी इस मुद्दे पर अपने साथ रखने के लिए सरकार को आवश्यक उपाय करने चाहिए जिससे पड़ौसी पाकिस्तान की बदनीयती और बेगैरती को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ही स्वर भारत से उठे क्योंकि कांग्रेस समेत प्रत्येक विपक्षी दलों का स्पष्ट मत है कि कश्मीर पूर्णतः भारत का घरेलू मसला है।
हालांकि इस मामले में इस पार्टी के ही कुछ अधकचरे नेता उल्ट-पुल्ट विवादास्पद बयान देकर हैरत में डालते रहे हैं मगर सिद्धान्त: सम्पूर्ण विपक्ष कश्मीरियों को पक्का और देशभक्त भारतीय नागरिक ही मानता है और हकीकत भी यही है कि इस राज्य के नागरिकों ने हर संकट के समय तिरंगा ही हाथ में पकड़े रखा है और इसका मान बढ़ाया है, जहां तक राज्य में फिलहाल कुछ सीमित नागरिक अधिकारों का सवाल है तो उस पर भी विपक्षी दलों को साथ लिया जा सकता है क्योंकि केन्द्र में चाहे पिछले सत्तर सालों से किसी भी दल की सरकार रही हो, हरेक के राज में खासकर पिछले तीस सालों में पाकिस्तान की तरफ से आतंकवाद फैलाने और कश्मीरियों को बरगलाने में कोई भेदभाव नहीं किया गया है। भारत के विशाल जनमूलक लोकतन्त्र में सत्तारूढ़ व विपक्षी दलों के बीच नोकझोंक बहुत स्वाभाविक प्रकिया है।
ऐसा मामला सिक्किम के भारत में विलय को लेकर भी सामने आया था जब 1972 में इस पहाड़ी देश के भारतीय संघ में विलय का विरोध स्व. मोरारजी देसाई ने किया था। वह 1969 तक स्व. इंदिरा गांधी की सरकार में उप प्रधानमन्त्री तक रहे थे। मगर उन्होंने इंदिरा जी के इस कदम को अनुचित और इंसाफ के खिलाफ तक बता दिया था लेकिन पूरे देश ने ही मोरारजी भाई के इस विचार को भारत के खिलाफ माना था। अतः जरूरी है कि हर जगह से हर मंच से और हर राजनैतिक दल से एक ही आवाज उठे कि पूरा कश्मीर हमारा है और यह पूरी तरह भारत का निजी मामला है। इससे न अमेरिका को कुछ लेना-देना है और न किसी अन्य देश को। 1948 का राष्ट्रसंघ का कश्मीर सम्बन्धी प्रस्ताव 1972 में हुए भारत-पाक शिमला समझौते की स्याही में दफन कर दिया गया था। जय हिन्द।