धर्म को भारतीय संस्कृति में जो महत्ता प्रदान की गई है उसका लक्ष्य मनुष्य को अनुशासित और संयमशील बनाने का रहा है। शास्त्रोक्त वचन यही है कि संयम व सहनशीलता मनुष्य को अनुशासित बनाते हैं और उसके आचरण को धर्मानुसार ढालते हैं। धर्म का पालन हृदय या मन से तभी कर पाता है जबकि वह अनुशासित रह कर समाज में सुख व शान्ति का वातावरण बनाने में सहायक हो सके। धर्म या मजहब का अर्थ केवल पूजा पद्धति का दिखावटी प्रदर्शन नहीं होता बल्कि इस कर्मकांड के मूल में छिपे हुए तात्विक सन्देश को जीवन में उतारने का होता है। हिन्दू संस्कृति तो ‘अहं बृह्मास्मि’ का मन्त्र भी देती है और मनुष्य को सांसारिक जीवन का पालन करते हुए ही यह स्थिति पाने की राह भी दिखाती है। किन्तु जब केवल विशुद्ध प्रदर्शन या भौंडे कर्मकांड को धर्म का अनुसरण मान लिया जाता है तो समाज के विभिन्न अंगों की स्थापित व्यवस्था कसमसाने लगती है और एेसा करने वाला व्यक्ति केवल अपनी सुविधा के लिए समूचे समाज को ही व्यथित करने के रास्ते पर चल पड़ता है।
आजकल उत्तर भारत में श्रावण मास में हरिद्वार से कांवड़ भरकर लाने का कार्यक्रम चल रहा है परन्तु इसके चलते पूरे उत्तर भारत की अर्थव्यवस्था से लेकर सामान्य नागरिकों की जीवनशैली इस प्रकार कुप्रभावित हो रही है। कांवड़ यात्रा के मार्ग के सभी गांव व शहर न केवल अपनी स्थापित दैनन्दिन की व्यवस्था में हस्तक्षेप पा रहे हैं बल्कि इसका असर पूरे मार्ग की वाणिज्यिक व व्यापारिक व्यवस्था के साथ आम नागरिकों के आवागमन पर भी पड़ रहा है। कांवड़िये जिस प्रकार डीजे आदि वद्ययन्त्रों के अलावा अन्य आधुनिक सुविधाओं व मोटर वाहनों का प्रयोग करते हुए अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हुए चलते हैं उससे पूरे समाज की व्यवस्था न केवल गड़बड़ाती है बल्कि उसमें रोष भी पैदा होता है। वैसे भारत के संविधान में व्यक्तिगत आधार पर प्रत्येक नागरिक को अपने धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता दी गई है, जिसका मतलब यही निकलता है कि कोई भी नागरिक अपनी निजी आस्था व मान्यता के अनुसार जीवन गुजार सकता है परन्तु वह व्यक्ति इस देश का नागरिक भी होता है और नागरिकों के संविधान में अधिकार व कर्त्तव्य भी होते हैं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष व लोकतान्त्रिक देश है जिसके हर नागरिक के मूल अधिकार भी हैं जिनमें उसकी निजता भी आती है और सामाजिक संरचना की व्यवस्था भी।
नागरिक शास्त्र का कक्षा दस का छात्र भी जानता है कि किसी भी नागरिक को दूसरे नागरिक की निजी जिन्दगी से छेड़छाड़ करने का अधिकार संविधान नहीं देता है तो फिर किस प्रकार केवल कांवडि़ये अपनी सुविधा के लिहाज से पूरे उत्तर भारत के लोगों के जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं। यह अधिकार उन्हें संविधान का कौन सा अनुच्छेद देता है। कांवडि़यों के लिए राजमार्गों तक को पूरे एक पखवाड़े के लिए बाधित कर देना और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के पूरे पुलिस बल को विभिन्न शहरों व गांवों के रास्ते बदल देने का अधिकार कौन सा कानून देता है। कांवड़ मार्ग के सभी रेस्टौरेंटों से लेकर छोटे ढाबों तक के बन्द रहने से क्या आम नागरिकों में अराजकता पैदा करने का सन्देश नहीं जाता। भारत कानून से चलने वाला देश माना जाता है और वास्तव में ऐसा है भी तो क्यों फिर कुछ दिनों के लिए कानून को ही नये तरीके से लिखने की कवायद की जाती है। कांवड़ मार्ग में दिन से लेकर रात्रि के समय तक हुड़दंग मचाते हुए चलना किस धर्म या मजहब का नियम हो सकता है। जब पुलिस कांवड़ियों के लिए राजमार्गों व अन्य रास्तों में अवरोध पैदा करती है तो रोजाना उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को हजारों करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचता है। इस मार्ग में आने वाले शहरों व कस्बों में बनी विभिन्न फैक्ट्रियों में कच्चा माल आना बन्द हो जाता है और तैयार माल अन्य गन्तव्यों तक जाना रुक जाता है। इन फैक्ट्रियों में रोजाना दिहाड़ी के हिसाब से काम करने वाले लोग बेरोजगार हो जाते हैं और जिला प्रशासन को कांवड़ियों की भीड़ व इसके चरित्र को देखते हुए बच्चों व किशोरों के विद्यालय बन्द रखने का आदेश देना पड़ता है।
कांवड़ यात्रा का जो स्वरूप हम आजकल देखते हैं वह 1990 से पहले नहीं था। श्रावण के महीने में हरिद्वार से कांवड़ भरने के लिए दूर-दराज के राज्यों के लोग ही अक्सर आया करते थे। वे प्रायः छिटपुट संख्या में ही होते थे क्योंकि हरिद्वार से कांवड़ भारी संख्या में लोग जाड़ों में आने वाली महाशिवरात्रि पर ही प्रायः भरते देखे जाते थे। परन्तु 1990 के बाद से अचानक सावन में कांवड़ भरने का प्रचलन बढ़ा जिसके पीछे चल रही राजनीतिक परिस्थितियां भी थीं।
1990 से पहले सावन की कांवड़ भरने के लिए आने वाले कांवडि़ये इतने संयमित व सहनशील होते थे कि यदि मार्ग में उनके पैसे समाप्त भी हो जाते थे तो वे रास्ते पर पड़ने वाले कस्बों के दुकानदारों से धन उधार लेकर बाद में अपने स्थान पर पहुंचने पर मनी आर्डर द्वारा वापस भेजा करते थे। इन कांवड़ियों का सभी बहुत सम्मान करते थे । इन कांवडि़यों की सेवा करना भी लोग पुण्य का काम समझते थे। मगर अब तो पूरा मामला ही उल्टा हो गया है और कांवड़ यात्रा एक आक्रामक धार्मिक प्रदर्शन में बदलती जा रही है। इसका मतलब यही है कि हम बजाये आगे बढ़ने के धर्म के दिखावे के नाम पर पीछे की तरफ लौट रहे हैं।