जलगांव में ‘जल’ पर उत्पीड़न! - Punjab Kesari
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जलगांव में ‘जल’ पर उत्पीड़न!

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यह कितना जबर्दस्त विरोधाभास है कि भारत के जिस राज्य महाराष्ट्र से दलित अधिकारों का आन्दोलन स्वतन्त्रता से पूर्व ही इस तरह शुरू हुआ हो कि भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसे अमानवीयता की जीती-जागती विरासत बताते हुए भारतीय हिन्दू समाज को उन रूढि़वादी संस्कारों से मुक्त करने का संकल्प लिया हो, जो जन्मगत आधार पर आदमी-आदमी में भेद कर उसे उस दूसरे आदमी का दास बनाने की वकालत करती थीं जिसका जन्म कथित तौर पर वर्ण व्यवस्था की पहली पंक्तियों में हुआ हो, वहीं आज स्वतन्त्रता के सत्तर वर्ष बाद भी वही हिमाकत भरे दस्तूर जारी हैं जो आदमी को उसकी जन्म की जाति से मिली पहचान को हिकारत भरी नजरों से देखती हैं जिस इंसानियत का ढोल हम अपनी हिन्दू संस्कृति के नाम पर अक्सर पीटते रहते हैं, उसकी पोल जन्मगत आधार पर निर्धारित होने वाली जाति व्यवस्था इस बेदर्दी के साथ खोलती है कि इंसानियत ही चीत्कार करने लगती है। यह बेवजह नहीं था कि महात्मा गांधी ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन से भी महत्वपूर्ण दलितोत्थान को माना था और अपना निवास दलितों, सफाई कर्मियों की कालोनी में बना कर सम्पूर्ण हिन्दू समाज को सचेत किया था कि जन्म के आधार पर ऊंच-नीच का भेदभाव करने वाली ब्राह्मणवादी सोच भारतीय समाज को शक्तिविहीन करने की वह क्षमता रखती है जिससे स्वतन्त्रता आन्दोलन का लक्ष्य दूर हो सकता है। इसी वजह से उन्होंने दलितों को हरिजन कह कर मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था को खंड-खंड कर दिया और एेलान किया कि धर्म का अर्थ असमानता को बढ़ावा देना नहीं हो सकता बल्कि मानवीय बुराइयों को मिटाना ही हो सकता है और व्यक्ति-व्यक्ति में भेद करना या उसके काम या जन्म के आधार पर उसके सम्मान अथवा गौरव को चोट पहुंचाना हर दृष्टि से अधर्म है।

मगर क्या माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है कि मानों अंग्रेजों की हुकूमत के दौर की सामाजिक व्यवस्था फिर से लौट कर भारत को सदियों पीछे ले जाने के लिए बेताब है। प्रख्यात लेखक मुंशी प्रेमचन्द की लिखी कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ फिर से महाराष्ट्र के जलगांव जिले में दोहराई जा रही है जहां के एक गांव की ऊंची जाति वाले व्यक्ति की पोखर में तीन दलित बच्चों के नहाने पर उन्हें नग्न करके सरेआम ‘बेल्ट’ से पीटा जा रहा है। मुंशी प्रेम चन्द की कहानी में गांव का दलित बीमार जोखू नामक व्यक्ति की पत्नी को ठाकुर के कुएं से पानी खींचने की मनाही अंग्रेजों के निजाम में थी। उसके गांव में दलितों का अलग से कुआं था। मगर उसमें गिरे एक पशु की मृत्यु की वजह से उसका पानी-पीने योग्य नहीं रहा था। इसके बावजूद उसकी पत्नी को ठाकुरों ने अपने कुएं से पानी नहीं भरने दिया और हार कर बीमार जोखू की पानी के लिए लगातार जिद्द को पूरा करने के लिए उसकी पत्नी को पशु की लाश से सड़े हुए कुएं का पानी ही उसकी प्यास मिटाने के लिए पिलाना पड़ा था जिससे अन्त में उसकी मृत्यु हो गई। मगर 21वीं सदी के अन्तरिक्ष में कुलांचे मारते वैज्ञानिक प्रगति के सौपान चढ़ते भारत का हाल देखिये कि दलित बच्चों को ऊंची जाति के कहे जाने वाले लोगों के कुएं या पोखर में स्नान करने का अधिकार नहीं है और उनका यह काम सजा के काबिल माना जाता है।

मुंशी प्रेमचन्द के जमाने से हमने तरक्की सिर्फ यह की है कि पीने के पानी की जगह नहाने के पानी पर आ गए हैं। लानत है एेसी सामाजिक व्यवस्था पर जिसमें आदमी की जाति देखकर पानी का रंग तय करने की जुर्रत की जाती है। प्रकृति प्रदत्त जल पर किसी जाति का अधिकार कैसे हो सकता है? हमने जिस लोकतन्त्र को अपनाया उसकी आधारशिला हमारे संविधान में है और उसे एक दलित के बेटे बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही लिखा है। यह केवल एक पुस्तक नहीं है बल्कि बकौल पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाने का कारगर औजार है। यह प्रत्येक नागरिक को बिना जाति, धर्म या सम्प्रदाय का ध्यान किये बिना बराबरी का हक देता है और कहता है कि इस भारत राष्ट्र के सभी नागरिक बतौर इंसान के एक समान हैं और कोई भी व्यक्ति छोटा या बड़ा नहीं है, सबके हक बराबर हैं। मगर आज भी इस देश में वह मानसिकता सिर उठाने से बाज नहीं आती जो जन्मगत आधार पर आदमी-आदमी में भेद करते हुए उसे छोटा या बड़ा सिद्ध करने के उतावलेपन में रहती है और इसके लिए बहशियाना रास्ते अपनाती है।

जलगांव में जिन तीन दलित किशोरों को आधुनिक ठाकुर बने लोगों के कुएं पर नहाने के लिए सजा दी गई है उसकी कैफियत यह है कि इन लोगों को कानून के राज की परवाह नहीं है और वे समझते हैं कि जो लोग हुकूमत में बैठे हैं उनके लिए एेसे कारनामे कोई मायने नहीं रखते क्योंकि उनकी सियासत ही आदमी-आदमी को बांट कर उनके गिरोह तैयार करके एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ा करके वोट बैंक तैयार करने पर ही चलती है। हुकूमत किसी भी पार्टी की हो सकती है मगर वोट बैंक तैयार करने के तरीके कैसे बदले जा सकते हैं? भारतीय लोकतन्त्र के लिए यह कोई छोटी-मोटी चुनौती नहीं है क्योंकि इसके जरिये वे असल मुद्दे जमीन में गाड़े जा सकते हैं जिनका वास्ता समाज की वास्तविक प्रगति से होता है। किसी भी समाज के बदलने के लिए आर्थिक विकास से उपजी अधिकारिता ऐसे उत्प्रेरक का काम करती है जो सामाजिक भेदभाव दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अगर समाज सामाजिक भेदभाव के अत्याचारों में ही सिमटा रहेगा तो आर्थिक उत्थान का विचार जन्म लेने से पहले ही मर जाएगा। अतः यथास्थिति को बनाये रखने के ये नुस्खे नए नहीं हैं लेकिन हैरत सिर्फ इस बात पर है कि जिस महाराष्ट्र की धरती से सामाजिक न्याय की बयार लगभग दो सदी पहले उठी हो वहां आज भी ये नुस्खे आजमाए जा रहे हैं? दलितों को निशाना बना कर कौन सा पैगाम देने की कोशिश की जा रही है?

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