अपने पूर्वजों को याद करना भारत की प्राचीन परम्परा है। पूर्वजों के पदचिन्हों पर चल कर ही हम उनके सिद्धांतों, शिक्षाओं को आगे बढ़ा सकते हैं। मेरे पूजनीय दादा अमर शहीद रमेश चन्द्र जी ने जीवनभर अपने पिता (पूजनीय परदादा) अमर शहीद लाला जगत नारायण जी से प्रेरणा पाकर लेखन शुरू किया था। मेरे पिता स्वर्गीय श्री अश्विनी कुमार ने अपने पिता और दादा से प्रेरणा पाकर कलम को सम्भाला था। अब यह दायित्व मुझ पर आ पड़ा है। जब भी मैं पिताश्री की अनुपस्थिति के बीच खुद को अकेला महसूस करता हूं तो मेरा आत्मविश्वास डोलने लगता है, कभी मैं महसूस करता हूं कि मैं इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे निभा पाऊंगा।
जैसे ही मैं अपनी मां का चेहरा देखता हूं, अनुज आकाश और अर्जुन की तरफ देखता हूं तो मेरी समृद्ध विरासत मुझे ऊर्जा प्रदान करती है, मुझे शक्ति प्रदान करती है और मुझे अपनी जिम्मेदारियों और कर्त्तव्यों के प्रति आगाह करती है। मेरे लिए यह गौरव की बात है कि मैं एक ऐसे पत्रकारिता संस्थान का वारिस हूं, जिसने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना बलिदान दिया। 9 सितम्बर का दिन मेरे परदादा लाला जगत नारायण जी का बलिदान दिवस है। पत्रकारिता और सियासत से हमारे परिवार का रिश्ता पुश्तैनी है। लाला जी और मेरे दादा रमेश चन्द्र जी ने लाहौर से पत्रकारिता की जो यात्रा आरम्भ की थी, हमने उसे अब तक उसी प्रखरता के साथ जारी रखा हुआ है। मेरे पिता अश्विनी जी अक्सर परिवार का इतिहास हमें बताते रहतेे थे। लाला जी अविभाजित भारत में पंजाब में उर्दू और हिन्दी पत्रकारिता के आधार स्तम्भ माने जाते थे। लाला जी अविभाजित पंजाब के लाहौर से प्रकाशित ‘जय हिन्द’ के सम्पादक थे। इस पत्र के संस्थापक स्वयं पंजाब केसरी लाला लाजपत राय थे। उन्होंने 18 वर्ष पंजाब की विभिन्न जेलों में काटे। प्रायः उन्हें लाला लाजपत राय के साथ ही जेल हो जाती थी। वह जेल में भी लाला लाजपत राय के सचिव के रूप में कार्यरत रहते और अपने सम्पादकीय लेख गुप्त रूप में प्रकाशनार्थ वहीं से ही भेजते थे। बहरहाल भारत-पाक का विभाजन हुआ। हमारा परिवार भी करोड़ों भारतीयों की तरह लाहौर से जालंधर आ गया। वर्ष 1948 में उर्दू दैनिक हिन्द समाचार का प्रकाशन आरम्भ हुआ। आजादी के बाद लाला जी भीमसेन सच्चर के मुख्यमंत्रित्वकाल में मंत्री बने। उनके पास शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन विभाग थे। स्वयं अपने पूर्वजों के बारे में लिखना जरा मुश्किल होता है, परन्तु मेरे परदादा उस इतिहास का हिस्सा थे जो इतिहास कभी हमें पढ़ाया ही नहीं गया और उन षड्यंत्रों का शिकार हो गए जो हर उस संत पुरुष की नियति है जो राजनीति में आ गए, जबकि पंजाब की पूरी राजनीति भारत की स्वाधीनता से 30 वर्ष पहले और लाला जी की शहादत तक उन्हीं के इर्दगिर्द घूमती रही। पंजाब में शिक्षा मंत्री पद पर रहते जब किसी ने उनका ध्यान स्कूलों में बच्चों को पढ़ाए जाने वाली इतिहास की पुस्तकों की ओर दिलाया तो वह स्तब्ध रह गए। लालाजी स्वयं स्वतंत्रता सेनानी थे। महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वयं कभी वकालत की पढ़ाई छोड़ कर असहयोग आंदोलन में कूदे थे परन्तु सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह, उधम सिंह आदि का भी सान्निध्य उन्हें प्राप्त था। इनकी भूमिका किताबों में अच्छी तरह वर्णित नहीं थी, सिर्फ एक या दो लोगों का ही प्रशस्ति गान था। उन्होंने पाठ्यक्रम में न केवल बदलाव करवा दिया अपितु अपने ओजस्वी लेखों से जनमानस में भी नवजागृति पैदा कर दी। न केवल वह इससे सत्ताधारी चाटुकारों का कोप भाजन बने अपितु पंडित नेहरू तक भी सत्य को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया। लालाजी को जीवन में अनैतिक समझौते मंजूर नहीं थे। अंततः लाला जी ने कांग्रेस छोड़ दी और जालंधर से 1957 में स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने पूरा दम-खम लगाया कि वह चुनाव नहीं जीत सकें लेकिन कांग्रेस के कड़े विरोध के बावजूद वे चुनाव जीत गए। सारा जीवन वे आदर्शों के साथ ही चले। जब परिवहन मंत्री थे तो लाखों लोगों ने कहा कि बसों का राष्ट्रीयकरण उचित नहीं परन्तु उन्होंने कहा जो पंजाब के हित में है उससे राष्ट्र का अहित कैसे होगा। उन्होंने किसी की न मानी। उनके मंत्री पद पर रहते पंजाब में परिवहन और पाठ्य पुस्तकों की छपाई का राष्ट्रीयकरण हुआ।
यह विडम्बना ही रही कि इंदिरा गांधी शासनकाल में जब लोगों के मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात किया गया और आपातकाल लगाया गया तो वृृद्ध हो चुके लाला जी महान विभूति कांग्रेसियों की नजर में ‘विलेन’ हो गई। तब लाला जी पर बहुत दबाव बनाया गया कि वे राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने का आश्वासन दें तो सरकार उन्हें रिहा कर देगी लेकिन लाला जी ने साफ कहा कि मैंने सारा जीवन बड़े स्वाभिमान से जिया है, मैं मरूंगा तो स्वाभिमान से ही। जीवन का अंतिम घूट भी उन्होंने शहादत का ही पिया। जब पंजाब सीमा पार ‘मित्रों’ की काली करतूतों के कारण आतंकवाद की आग में झुलस रहा था तो लाला जी ने आतंकवाद के खिलाफ कलम से जंग लड़ी। अंततः राष्ट्र विरोधी ताकतों ने उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बना डाला। उनकी शहादत का अनुसरण मेरे पूजनीय दादा रमेश चन्द्र जी ने भी किया। किसी भी सत्पुुरुष को हम स्व. कह कर वर्णित करते हैं। वस्तुतः स्वर्ग भी देवताओं का स्थान है। शहीद का स्थान सबसे ऊंचा होता है। शास्त्र बताते हैं कि रण क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त सैनिक और जीवन क्षेत्र में शहीद समतुल्य हैं। इनकी गति भी निर्विकल्प समाधि प्राप्त योगियों सी होती है।
सोचता हूं खंडित होते परिवार क्या पूर्वजनों की विरासत को सहेज कर रख पाएंगे? मैं तो पूर्वजों की विरासत को सम्भाल कर रखने काे संकल्पबद्ध हूं। हम आज जो कुछ भी हैं यह उनका ही आशीर्वाद है। लाला जी का बलिदान मुझे प्रेरणा देता रहेगा।