देखिये क्या मजा आ रहा है कि लोकतन्त्र ठुमके लगाकर रोजाना एक ही राग में गा रहा है कि ‘मेरे पिया बसे परदेस।’ क्या कयामत है कि संसद का सत्र चालू रहते इसके बाहर यह बहस हो रही है कि विदेशी कम्पनी ‘कैम्ब्रिज इनेलिटिका’ ने भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों की चुनाव में हार-जीत तय करने के लिए अपनी गोटियां बिछाईं? भारत के लोगों को यह पता ही नहीं चला कि कब उनके उस पवित्र एक वोट के अधिकार को पूरी तरह अंग्रेजी कम्पनी ने अपने रंग में रंग डालने की तरकीब भिड़ा डाली। क्या टैक्नोलोजी का शानदार इस्तेमाल हुआ कि हिन्दोस्तान के गोशे- गोशे में हिन्दोस्तानियों की गैरत की धज्जियां उड़ा दी गईं मगर जिन लोगों को भारत के मतदाताओं की अक्ल पर शक है वे खुद अक्ल से पैदल होते हैं क्योंकि ये वे लोग हैं जिन्होंने नदियों के ‘खादर’ में उगने वाले ‘सरुए’ के झाड़ों में रस भर कर उसे ‘गन्ना’ बनाया और लोगों में ‘मिठास’ बांटी। इसलिए हमें इन लोगों के दिमाग पर भरोसा रखना चाहिए और भारत की मिट्टी की ताकत से उपजे ज्ञान को कभी नजरंदाज नहीं करना चाहिए मगर आने वाली पीढि़यां हमसे जरूर पूछेंगी कि हम उनके लिए क्या नजीरें पेश करके जा रहे हैं और उनके लिए कौन सी विरासत छोड़ कर जा रहे हैं? क्या यह विरासत चूहे मारने के लिए सरकारी ठेके देने की है? महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री देवेन्द्र फड़नवीस इस राज्य की जनता से मिले जनादेश का अपमान जिस बेरहमी के साथ कर रहे हैं उसकी दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है।
जिस राज्य के मुख्यमन्त्री रहे स्व. वी.पी. नाइक ने अब से लगभग 50 साल पहले ‘काम के बदले अनाज योजना’ को ईजाद करके ग्रामीणों व आदिवासियों को आर्थिक स्वावलम्बन देने का मार्ग खोजा हो, उसी राज्य का मुख्यमन्त्री आज अपनी ही सरकार के भवन मन्त्रालय में चूहे पकड़ने के ठेके दे रहा है मगर यही मुख्यमन्त्री बड़ी शान से ग्रामीणों व आदिवासी किसानों के नासिक से मुम्बई पैदल चलकर आने की प्रतीक्षा करता रहा। एक सप्ताह की पैदल यात्रा करके जब ये किसान मुम्बई पहुंचे तो मुम्बईवासियों का इनके प्रति प्रेम देखकर सरकार की नींद उड़ी और उसने इनकी मांगों पर विचार करने का आश्वासन दिया वरना इन्हें तो माओवादी करार देने की पूरी तैयारी सरकारी कारिन्दों ने कर रखी थी। जिस सरकार की वरीयता चूहे मारने के लिए ठेका देने की हो उसकी वरीयता पर आम जनता से उगाहे गए धन का सदुपयोग किस प्रकार हो सकता है? लोकतन्त्र में सरकारें आम जनता से वसूले गए धन पर ही चलती हैं और आम जनता को पूरा हक होता है कि वह उसका पूरा हिसाब-किताब जाने। यही वजह है कि संसद में बजट के हर प्रावधान पर लम्बी बहस होती है (इसका इस बार शोरगुल में बिना बहस पारित होना जनादेश का अपमान ही है। इस सत्र को बजट सत्र बेवजह ही नहीं कहा जाता है)। महाराष्ट्र विधानसभा में फड़नवीस सरकार में ही मन्त्री रहे श्री एकनाथ खड़से ने इस ‘चूहामार घोटाले’ का पर्दाफाश करते हुए साफ कर दिया कि किस तरह एक निजी फर्म ने मन्त्रालय में तीन लाख से ज्यादा चूहे होने का अनुमान लगा कर सरकार को दिया और सरकार ने पहले छह महीने के भीतर इन्हें खत्म करने का ठेका दिया और बाद में इसकी अवधि घटा कर दो महीने कर दी गई परन्तु इस फर्म ने केवल सात दिन में ही तीन लाख 19 हजार चूहों को मौत के घाट उतारने का दावा पेश कर दिया। चूहों की गिनती करने की कौन सी तकनीक इस फर्म ने ईजाद की थी, इसके बारे में सरकार के अफसर चुप हैं और सात दिनों में ही सवा तीन लाख से ज्यादा चूहे मारकर उन्हें कहां दफनाया गया इस बारे में भी श्री खड़से ने सवाल पूछा।
इतनी बड़ी संख्या में चूहे यदि मारे गये थे तो कम से कम एक ट्रक रोजाना लगा कर उन्हें कब्रगाह तक ले जाया जाता मगर मन्त्रालय में किसी ने नहीं देखा कि चूहे कब पकड़े गए और कब उन्हें ट्रक में भरकर ले जाया गया ? श्री खड़से ने हिसाब लगाकर बताया कि फर्म के हिसाब से उसने रोजाना 45 हजार से अधिक चूहे मारे, इसका मतलब यह हुआ कि उसने एक मिनट में तकरीबन 64 चूहे मारे। आखिर इतने मरे हुए चूहे गायब कहां हो गये? अगर चूहों को मन्त्रालय से खत्म ही करना था तो दस ‘बिल्लियां’ ही यह काम कर सकती थीं। वृहन्मुम्बई महानगरपालिका ने पूरे मुम्बई शहर में छह लाख चूहे दो साल में मारने का दावा किया था। अतः यह सवाल उठना लाजिमी है कि मन्त्रालय परिसर में सवा तीन लाख चूहे होने का हिसाब किस तरह लगाया गया? मगर लोकतन्त्र का दायरा इतना विशाल होता है कि कहीं से भी सच की रोशनी फूट पड़ती है। आजकल टीवी पर एक सीरियल ‘हर शाख पर उल्लू बैठा है’ प्रसारित हो रहा है। यह राजनीतिक व्यंग्य है। इसमें ठीक यही वाकया दिखाया गया है कि एक मुख्यमन्त्री किस तरह शहर में चूहे मारने का जनान्दोलन चलाता है और प्रत्येक चूहे पर 100 रु. का पारितोिषक सरकारी खजाने से दिलवाता है। पता चलता है कि मरे हुए चूहे ही लौट-फिर कर सरकारी आंकड़ों में दर्ज हो रहे हैं और संख्या बढ़ा रहे हैं मगर खजाने से धन खूब बांटा जा रहा है। इसका लाभ मुख्यमन्त्री के रिश्तेदार ही जमकर उठाते हैं! फिर मुख्यमन्त्री अपनी पत्नी के कहने पर बिल्लियों को लगाते हैं मगर इसके लिए वह विदेशों से बिल्लियां मंगाते हैं मगर यह केवल एक नाटक है। महाराष्ट्र में तो हकीकत में चूहे मारने के ठेके दिए जा रहे हैं और श्री खड़से हकीकत बयानी कर रहे हैं। क्या गजब का नया इतिहास बन रहा है कि ‘चूहा घोटाला’ खड़ा हो रहा है। इसकी ‘बदबू’ में तो पुराने सभी घोटाले ‘पर्यावरण अनुकूलक’ माने जाएंगे। वाह! क्या तरक्की की है कि चूहों को भी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बना डाला! क्या बेवकूफी है की श्री फड़नवीस ने कि उन्होंने चूहों की सही संख्या जानने की जिम्मेदारी ‘कैम्ब्रिज इनेलिटिका’ को नहीं सौंपी वरना यह कार्य उन्नत टैक्नोलोजी के सदुपयोग के साये में छिप जाता! इसकी जांच की मांग भी होती तो उसे विकास विरोधी कहा जा सकता था मगर अब तो जांच करानी पड़ेगी?