भारत का भविष्य का सफर? - Punjab Kesari
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भारत का भविष्य का सफर?

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2019 के लोकसभा चुनावों से पहले जिन चार राज्यों में विधानसभा चुनाव 2018 में ही होने हैं उनकी तरफ नजर करने की बजाय हम एेसे विवादों में उलझते जा रहे हैं जिनका भारत के लोगों के विकास और समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। माहौल एेसा बन रहा है जैसे हम बजाय आगे जाने के पीछे की तरफ दौड़ रहे हैं और उन जख्मों को बार-बार सहलाने की कोशिश कर रहे हैं जिन्हें वक्त में भरने की ताकत है। यदि एेसा न होता तो सत्तर साल पहले जिस भारत को अंग्रेजों ने हिन्दू-मुसलमान के नाम पर बांट दिया था वह आज तरक्की की उन ऊंचाइयों को न छू पाता जहां पहुंच कर भारत की तरफ विकसित कहे जाने वाले देशों ने भी उम्मीद भरी नजरों से देखना शुरू कर दिया। यह सब हमारे उन पुरखों की दूरदर्शिता थी जिन्होंने वक्त के दिये गये जख्मों को वक्त से ही भरने की प्रक्रिया पर आम जनता को सशक्त बनाने के तरीके से भरोसा किया। जरूरी है कि हम आगे की तरफ देखें और अपना सफर इस तरह तय करें कि दुनिया के वे देश हमें हैरत भरी नजरों से देखें जो कभी हमें असभ्य बताकर हम पर दो सौ साल तक अपना राज करके चले गये और इस धन-धान्य से भरी धरती को कंगाल बनाकर छोड़ गये।

जरा कल्पना कीजिये यदि पं. नेहरू जैसे दूरदृष्टा नेता ने आजादी की लड़ाई के दौरान भारत की जमीनी हकीकत का गहरा अध्ययन न किया होता तो किस प्रकार यह देश वैज्ञानिक नजरिये से अपना सफर तय करते हुए औद्योगीकृत देशों की श्रेणी में आकर खड़ा होता ? वह कौन सी नीति थी जिसकी वजह से 1947 में भारत की कुल आबादी तीस करोड़ होने के समय 90 प्रतिशत से ज्यादा खेती पर निर्भर करती थी मगर अगले वर्षों में इसकी आबादी हर साल 18 प्रतिशत की दर से बढ़ने के बावजूद खेती पर लोगों की निर्भरता कम होती चली गई और यहां के लोगों के लिए कल-कारखाने व बड़े-बड़े बांध नये मन्दिर-मस्जिद बन गये। जरा सोचिये यदि भारत 1947 के जख्मों को लेकर ही रोता रहता तो क्या हम तरक्की की यह सीढ़ी चढ़ सकते थेे? मगर यह सीढ़ी हम तब चढ़ पाये जब हमारे नेतृत्व में राजनैतिक इच्छा शक्ति थी और उसने तय कर लिया था कि भारत एेसी नई इबारत लिख कर ही दम लेगा जिसमें किसानों के देश में वैज्ञानिक तरक्की करने का जज्बा पैदा होगा। यह सब मैंने इसलिए लिखा है कि आज की राजनीति पूरी तरह दिशाविहीन होती दिखाई पड़ रही है।

एक तरफ हमारे सामने करोड़ों बेरोजगारों को रोजगार देने की चुनौती है तो दूसरी तरफ धरती का सीना चीर कर अन्न उगाने वाले किसान को सालभर तक के लिए जीवन यापन की समुचित सामग्री सुलभ कराने का प्रश्न है और तीसरी तरफ अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई पाटने का सवाल है। हम इन सभी सवालों को इतिहास के पर्दे उतार-उतार कर लोगों को उसमें झांकने का रास्ता दिखा कर हल नहीं कर सकते। एेसा करके हम चुनौतियों से हारने का ही प्रमाण देंगे जिसका अर्थ लोकतन्त्र में आम आदमी की पराजय के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। हमें इतिहास से अगर कुछ सीखना है तो हम उस तरफ देखने से क्यों कतराते हैं जिसमें हमारे हौंसलों के फलसफे छिपे हुए हैं। 1756 में जब लार्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर ईस्ट इंडिया कम्पनी को उनकी रियासत का सरपरस्त बनाया था तो विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत के लगभग था। अतः पं. नेहरू ने आजादी से पहले ही लन्दन के एक अखबार में यह लेख लिखकर भारत से जाने वाले अंग्रेजों को चेताते हुए लिखा था कि ‘भारत कभी भी गरीब मुल्क नहीं रहा’, इसकी समावेशी संस्कृति में इतनी ताकत थी कि यह आर्थिक रूप से भी पूरी दुनिया में अपनी छाप छोड़ने में सक्षम रहा था। यही वजह थी कि पं. नेहरू ने आजाद भारत का प्रथम प्रधानमन्त्री बनते ही सबसे पहला काम विज्ञान की ताकत का लाभ उठाते हुए इसका इस्तेमाल यहां के लोगों की तरक्की में किया।

इसकी वजह एक ही थी कि अपने दो सौ साल के राज में अंग्रेजों ने भारतीयों को वैज्ञानिक तरक्की से दूर रखा और यहां के लोगों को आपसी सामुदायिक व धार्मिक झगड़ों में उलझाये रखा मगर हमने इस झंझावत को पूरी हिम्मत के साथ पार करते हुए परमाणु क्षेत्र से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान तक मंे अपने झंडे गाड़े और साथ ही प्रजातन्त्र की मशाल को भी कसकर पकड़े रखा जिससे राजनीति के शिखर तक पहुंचने में हर आम हिन्दोस्तानी को किसी प्रकार की दिक्कत न हो। हमने चीन की तरह लोगों को मशीन बनाकर उनके बच्चे पैदा करने तक पर प्रतिबन्ध लगाकर विकास का सौपान नहीं चढ़ा बल्कि किसान के बेटे (स्व. चरण सिंह) से लेकर चाय बेचने वाले तक के बेटे (नरेन्द्र मोदी) को प्रधानमन्त्री तक बना कर अपनी लोकतान्त्रिक ताकत का परिचय दिया मगर हमने यह सब इतिहास की कब्रें खोदकर गड़े मुर्दे उखाड़ कर नहीं किया बल्कि भविष्य की तरफ नजरंे गाड़ते हुए किया। आज समय है कि हम सब इस बारे में गहराई से सोचें और अपना सफर तय करें।

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